अति सुख कौसिल्या उठि धाई ।
मुदित बदन मन मुदित सदनतें,
आरति साजि सुमित्रा ल्याई ।।
जनु सुरभी बन बसति बच्छ बिनु,
परबस पसुपतिकी बहराई ।
चली साँझ समुहाहि स्रवत थन,
उमँगि मिलन जननी दोउ आई ।।
दधि-फल-दूब-कनक-कोपर भरि,
साजत सौंज बिचित्र बनाई।
अमी-बचन सुनि होत कोलाहल,
देवनि दिवि दंदुभी बजाई ।।
बरन-बरन पट परत पाँवड़े,
बीथिन सकल सुंगध सिंचाई ।
पुलकित-रोम, हरष-गदगद-स्वर,
जुबतिनि मंगल गाथा गाई ।।
निज मंदिर लै आनि तिलक दै,
दुज गन मुदित असीस सुनाई ।
सियासहित सुख बसो इहाँ तुम
‘सूरदास‘ नित उठि बलि जाई ।।