महाभागवत – देवी पुराण – सत्रहवाँ अध्याय 

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इस अध्याय में भगवती गीता के वर्णन में ब्रह्मयोग का उपदेश, पाँचभौतिक देह, गर्भस्थ जीव का स्वरुप तथा गर्भ में की गयी जीव की प्रतिज्ञा. माया से आबद्ध जीव का गर्भ से बाहर आने पर अपने वास्तविक स्वरुप को भूल जाना, विषय भोगों की दु:खमूलता तथा देवीभक्ति की महिमा का वर्णन है. 

हिमालय बोले – शिवे ! यह पंचभूतात्मक देह ही दु:ख का कारण है, क्योंकि उससे विलग जीव दु:खों से प्रभावित नहीं होता. माता ! महेश्वरि ! जिस देह को प्राप्त कर यह जीव पुण्य कार्य करके स्वर्ग प्राप्त करता है, वह यह देह किस प्रकार उत्पन्न होता है? और यह जीव पुण्य के क्षीण होने पर पुन: पृथ्वी पर किस प्रकार उत्पन्न होता है. यदि आप मुझ पर कृपा रखती हैं तो उन बातों को शीघ्र ही विस्तारपूर्वक मुझसे बताइए।।1-3।।

श्रीपार्वतीजी बोलीं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इन्हीं पंचमहाभूतों से यह देह निर्मित है, इसलिए यह पांचभौतिक कहा गया है।।4।। उन पाँचों में पृथ्वी तत्त्व तो प्रधान है और शेष चार की उसके साथ सहभागिता मात्र है. गिरिराज ! वह यह पांचभौतिक देह भी चार प्रकार का कहा गया है, जिसे मुझसे समझ लीजिए. अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज – ये उसके भेद हैं. महाराज ! उनमें पक्षी, सर्प आदि अण्डज हैं, मशक (मच्छर) आदि स्वेदज हैं, वृक्ष, झाड़ी आदि सुषुप्त चैतन्य वाले उद्भिज्ज हैं और मनुष्य, पशु आदि जरायुज हैं।।5-7।। शुक्र, रज आदि से निर्मित देह को जरायुज समझना चाहिए. पुन: उस जरायुज को भी पुरुष, स्त्री तथा नपुंसक भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिए. पर्वतराज ! शुक्र की अधिकता से पुरुष, रज की अधिकता से स्त्री तथा उन दोनों की समानता से नपुंसक होते हैं।।8-9।। 

अपने कर्मों के वशीभूत जीव ओसकणों से संयुक्त होकर पृथ्वी तल पर गिरने पर धान्य (वनस्पति) – के बीच पहुँचता है. वहाँ रहकर चिरकाल तक कर्म भोग करता है. पुन: जीवों के द्वारा उसका भोग किया जाता है. तदनन्तर पुरुष के देह में गुह्येन्द्रियों में प्रविष्ट होकर वह वीर्यरूप हो जाता है. उसी कारण से वह जीव भी वीर्य में संनिविष्ट हो जाता है।।10-11½।। (यहाँ पर सृष्टि-परंपरा की निरन्तरता की ओर संकेत है. संक्षेप में कर्मफल-भोग के अनन्तर शेष कर्मों से आविष्ट जीव आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा औषधि, पुष्प, फल, अन्न आदि के रूप में देहान्तर की प्राप्ति करता हुआ स्त्री-पुरुष के द्वारा अन्नादि का भोग करने पर वीर्य तथा रजस् के रूप में उसका पुन: विपरिणाम होता है और पुन: वीर्य तथा रजस् के संयोग से सृष्टि-प्रक्रिया चलती रहती है. इस प्रकार अवान्तरभूत अविदित सृष्टि-प्रक्रिया के प्रति जागरुक करने के लिए भगवती का उपदेश है.)

महामते ! तत्पश्चात ऋतुकाल में स्त्री के साथ पुरुष का संयोग होने पर वीर्य के साथ-साथ वह जीव भी माता के गर्भ में पहुँच जाता है।।12½।। राजन् रजोधर्म के चौथे दिन से लेकर सोलहवें दिन तक ऋतुकाल कहा गया है।।13½।। पर्वतश्रेष्ठ ! विषम दिन में समागम करने से स्त्री और सम दिन में समागम करने से पुरुष की उत्पत्ति होती है. पिताजी ! ऋतुस्नान की हुई कामार्त स्त्री जिसके मुख का दर्शन करती है, उसी की मुखाकृति की संतान जन्म लेती है. अत: स्त्री को उस समय अपने पति का मुख देखना चाहिए।।14-15½।। 

महामते ! वह वीर्य स्त्री के योनिस्थित रज से मिलकर एक दिन में कलल (अवस्थाविशेष) बन जाता है. वही कलल अत्यन्त सूक्ष्म झिल्ली से पूर्णतया आवृत होकर पाँच दिनों में बुलबुले के आकार का हो जाता है. अत्यन्त सूक्ष्म आकार की जो चमड़े की झिल्ली होती है, उसे जरायु कहा जाता है. चूँकि उसमें वीर्य तथा रज का योग होता है और उसी से गर्भ उत्पन्न होता है, इसलिए उसे “जरायुज” कहा गया है।।16-18½।। तत्पश्चात सात रातों में वह मांसपेशियों से युक्त हो जाता है और फिर एक पक्ष में वह जो पेशी होती है, उसमें रक्तप्रवाह होने लगता है. तत्पश्चात पचीस रातों में देह के अवयव अंकुरित होने लगते हैं. महामते ! एक महीने में क्रम से स्कन्ध (कन्धा), गर्दन, सिर, पीठ और पेट – ये पाँच प्रकार के अंग निर्मित हो जाते हैं।।19-21।। 

दूसरे महीने में हाथ और पैर हो जाते हैं तथा तीसरे महीने में अंगों की सभी अस्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं. पुन: चौथे महीने में उसके भीतर जीव की अभिव्यक्ति हो जाती है. तब माता के उदर में स्थित गर्भ चलने भी लग जाता है।।22-23½।।

पाँचवें महीने में नेत्र, कान और नाक का निर्माण होता है एवं उसी महीने में मुख, कमर, गुदा-शिश्न-लिंग आदि गुह्य अंग और कानों में दोनों छिद्र भी बन जाते हैं. उसी तरह छठे महीने में मनुष्यों की नाभि बन जाती है और सातवें महीने में केश, रोम आदि उग आते हैं. आठवें महीने में गर्भ में सभी अवयव स्पष्ट रूप से अलग-अलग बन जाते हैं. इस प्रकार पिताजी ! जन्म के पश्चात उगने वाले दाढ़ी, मूँछ और दाँत आदि को छोड़कर सभी अंग क्रम से निर्मित हो जाते हैं।।24-27½।। नौंवें महीने में जीव में पूर्ण रूप से चेतनाशक्ति आ जाती है. वह उदर में स्थित रहकर माता के द्वारा ग्रहण किए गये भोजन के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होता रहता है. वहाँ पर अपने जन्मान्तर के कर्मों के अनुसार घोर यातना प्राप्त करके वह जीव खिन्न हो उठता है और पूर्वजन्म में अपने शरीर से किये गये कर्मों को यादकर अत्यन्त दु:खी हो जाता है. 

माता के गर्भ में इस प्रकार का कष्ट प्राप्त करके भी जीव बार-बार पृथ्वी पर जन्म लेता रहता है. गर्भावस्था में वह जीव मन में यह सब सोचकर स्वयं से यह बात कहता है – “मैंने अन्यायपूर्वक धन कमाया और उससे अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण किया, किंतु दुर्गति का नाश करने वाली भगवती दुर्गा की आराधना नहीं की. अब यदि गर्भ के दु:ख से मुझे छुटकारा मिल जाए तो मैं पुन: महेश्वरी दुर्गा को छोड़कर विषयों का सेवन नहीं करूँगा और सर्वदा समाहित चित्त होकर भक्तिपूर्वक उन्हीं की पूजा करूँगा. पुत्र, स्त्री आदि के मोह के वशीभूत होकर तथा सांसारिकता में अपने मन को आसक्त करके मैंने व्यर्थ में ही अनेक बार अपना अहित कर डाला. इस समय उसी के परिणामस्वरुप मैं यह असहनीय गर्भ-दु:ख भोग रहा हूँ. अब मैं पुन: सांसारिक विषयों का सेवन नहीं करूँगा”।।28-35।।    

इस प्रकार अपने कर्मानुसार अनेक प्रकार से दु:खों का अनुभव करके वह जीव अपने अंगों में मेदा तथा रक्त लपेटे हुए और झिल्ली से आवृत होकर प्रसव वायु के वशीभूत योनि के अस्थि-यन्त्र से पिसा जाता हुआ-सा उसी प्रकार योनिमार्ग से बाहर निकलता है, जैसे पातकी जीव नरक से निकलता है।।36-37।। तदनन्तर वह जीव मेरी माया से मोहित होकर उन दु:खों को भूल जाता है और कुछ भी न कर सकने की स्थिति को प्राप्त होकर माँस-पिण्ड की भाँति स्थित रहता है. जब तक कफ आदि से उसकी सुषुम्णा नाड़ी अवरुद्ध रहती है, तब तक वह स्पष्ट वाणी बोलने में तथा चल-फिर सकने में समर्थ नहीं होता है और दैवयोग से जब वह कुत्ते, बिल्ली आदि दाढ़युक्त जन्तुओं से पीड़ित होता है तब स्वजनों द्वारा उसकी सम्यक् रक्षा की जाती है. बाद में वह स्वेच्छया कुछ बोलने लगता है और दूर-दूर तक चलने भी लगता है. पिताजी ! इसके बाद कुछ काल बीतने पर यौवन के उन्माद में आकर वह काम, क्रोध आदि से युक्त होकर पाप तथा पुण्यकर्म करने लगता है।।38-41½।। 

जिस देह के भोग के लिए जीव सारे कर्म करता है, वह देह पुरुष (जीवात्मा) – से भिन्न है, क्योंकि जीवात्मा का भोगों से क्या संबंध? प्रतिक्षण आयु का क्षरण हो रहा है और वह हिलते हुए पत्ते पर स्थित जलकण की भाँति क्षणभंगुर है।।42-43।। महाराज ! विषय-वासना संबंधी सभी सुख स्वप्न के समान (प्रतीतिमात्र) हैं, फिर भी जीव के अभिमान में कोई कमी नहीं होती है, मेरी माया से मोहित हुआ जीव यह सब नहीं देखता. वह भोगों को शाश्वत समझकर केवल उन्हे ही देखता है और भूधर ! आयु के पूरा हो जाने पर काल जीव को अकस्मात् उसी भाँति ग्रस लेता है, जैसे सर्प अपने पास आये हुए मेढ़क को क्षण भर में ग्रस लेता है।।44-46।। 

महान् कष्ट की बात है कि यह भी जन्म व्यर्थ बीत गया और इसी प्रकार दूसरा जन्म भी व्यर्थ ही चला जाता है. विषय-भोगों का सेवन करने वालों का उद्धार होता ही नहीं. अत: आत्मतत्त्व का विचार करके वासनात्मक सुख का परित्याग कर शाश्वत ऎश्वर्य (शाश्वत ऎश्वर्य का तात्पर्य भौतिक ऎश्वर्य से नहीं है, कारण वे शाश्वत होते ही नहीं. षडैश्वर्यसम्पन्न परमात्म प्रभु की प्राप्ति ही शाश्वत ऎश्वर्य की प्राप्ति है) की प्राप्ति की कामना करते हुए मेरी उपासना में तत्पर रहना चाहिए, तभी ब्रह्म से स्थिर संबंध बनता है।।47-49।। अपनी आत्मा को देह आदि से पृथक निश्चित करके मिथ्याज्ञानजनित देह आदि की ममता का त्याग कर देना चाहिए. पिताजी ! यदि आप सांसारिक दु:खों से छुटकारा चाहते हैं तो एकाग्रचित्त होकर भक्तिपूर्वक मुझ ब्रह्मरूपिणी भगवती की आराधना कीजिए।।50-51।। 

।। इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीभगवतीगीतोपनिषद् में ब्रह्मविद्यायोगशास्त्र के अन्तर्गत पार्वती-हिमालय-संवाद में “ब्रह्मयोगोपदेशवर्णन” नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।17।।