महाभागवत – देवीपुराण – पैंतीसवाँ अध्याय 

Posted by

इस अध्याय में गणेश जन्म की कथा का वर्णन है, पार्वती द्वारा अपने उबटन से विष्णुस्वरुप एक पुत्र की उत्पत्ति कर उसे नगर रक्षक के रूप में नियुक्त करना, भगवान शंकर द्वारा अनजाने में त्रिशूल द्वारा उस बालक का सिर काटना, पार्वती का पुत्र वियोग से दु:खी होना है, भगवान शंकर द्वारा एक गजराज का सिर काटकर पुत्र के धड़ से जोड़ना और पुत्र का जीवित होना है, उसी बालक गणेश का गणपति-पद पर नियुक्त होने का वर्णन है. 

श्रीमहादेव जी बोले – अपने पुत्र को भवन में छोड़कर एक बार भगवान सदाशिव भवानी पार्वती के साथ विहार के लिये पृथ्वीतल पर गए।।1।। तब पृथ्वी पर एक सुन्दर वन में पहुँचकर एक मनोहर नगरी का निर्माण करके उमा सहित महेश्वर वहीं निवास करने लगे।।2।। तब एक दिन भगवती उमा को घर में छोड़कर भगवान महेश्वर अपने प्रमथगणों के साथ वन में पुष्प लाने गए. अनेक प्रकार के पुष्पों को प्राप्त करके भगवान शिव ने उस सुन्दर वन में बहुत-सा समय बिता दिया।।3-4।। 

मुनिश्रेष्ठ ! इस बीच भगवती गौरी अपने शरीर में उबटन लगाकर स्नान हेतु जाने को उद्यत हुईं. उस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की भी रक्षा करने वाली जगदम्बा अपने निवास स्थान की रक्षा के लिए विचार करने लगीं।।5-6।। तदनन्तर भगवान विष्णु की पूर्व प्रार्थना का स्मरण करके अपने शरीर पर लगे हरिद्रा उबटन का कुछ अंश लेकर एक पुत्र का निर्माण किया. उस बालक के बड़े हाथ, लम्बा-सा पेट, सुन्दर मनोहर मुखमण्डल, तीन नेत्र, रक्तवर्ण और मध्यान्ह-कालीन सूर्य के समान चमकता हुआ प्रभामण्डल था. जगदम्बा का वह पुत्र सभी गणों का स्वामी और और साक्षात् नारायणरूप ही था. तब प्रसन्नवदन होकर उसे अपना दूध पिलाते हुए भगवती पार्वती ने कहा – पुत्र ! जब तक मैं नहाकर यहाँ लौटूँ, तब तक तुम मेरे इस नगर की रक्षा करना।।7-10।। 

पुत्र से ऎसा कहकर जगदम्बा शीघ्र ही स्नान के लिए चली गईं और वह बालक नगर द्वार की रखवाली करते हुए वहाँ खड़ा हो गया।।11।। इसी बीच देवाधिदेव भगवान शंकर वन से लौटकर नगर द्वार पर आए और बालक ने उन्हें देखा।।12।। पार्वती पुत्र ने उन देवाधिदेव को नगर में प्रवेश करते समय शीघ्रतापूर्वक अपना शूल उठाते हुए रोका।।13।। शूल लेकर अपनी ओर बढ़ते हुए देखकर पार्वती पुत्र को न जानने के कारण शूलपाणि भगवान शंकर ने सहसा ही अपना शूल उस पर चला दिया. शूलपाणि भगवान शिव के द्वारा चलाए हुए उस घोर शूल ने उस बालक का मस्तक तुरंत ही भस्मसात् कर दिया।।14-15।। 

सिरविहीन होने पर भी पार्वती पुत्र निष्प्राण नहीं हुए और महेश्वर के शूल ने भी उनके प्राणों का हरण नहीं किया।।16।। उसी समय स्नान करके सभी सखियों के साथ गिरिराज-पुत्री सुरेश्वरी भवानी भी आ पहुँचीं. मुनिश्रेष्ठ ! द्वार पर सिरविहीन भूमि पर पड़े हुए अपने पुत्र को देखकर दु:खी हुई देवी ने देवाधिदेव शंकर से पूछा – ।।17-18।। 

देवी बोलीं – सुरश्रेष्ठ ! यह क्या हुआ? नगर द्वार पर खड़े मेरे इस बालक का सिर किसने भस्मसात् किया है, बतायें।।19।। 

शिवजी बोले – पार्वती ! मैं नहीं जानता था कि यह आपका पुत्र है, इसने मेरा मार्ग रोका इसलिए मैंने इसका सिर भस्म कर डाला।।20।। 

श्रीमहादेव जी बोले – तब पार्वती ने क्रोधपूर्वक सदाशिव से कहा कि मेरे पुत्र का सिर तुरंत लाकर दीजिए, इसमें विलम्ब न हो।।21।। 

मुने ! यह सुनकर भगवान शिव अपने पुत्र के लिए सिर की खोज में चल पड़े. उस जंगल में एक महाबली गजराज को उत्तर दिशा की ओर सिर किए सोया देखकर भगवान शिव ने ‘उस सिर के काटने में पाप नहीं होगा’ – ऎसा जानकर उसे काटा और लाकर अपने पुत्र को लगा दिया एवं “देवी का यह पुत्र गणों का अधिपति तथा गजानन हो’ ऎसा कहा।।22-24½।। मुने ! भगवान शिव ने भी साक्षात् नारायण को उस रूप में जन्मा जानकर गजानन को अपनी गोद में लेकर बहुत स्नेह किया. नारायणरूप उस पुत्र को स्नेहमयी वाणी से प्रसन्न करते हुए शिवजी ने अपराधी की भाँति ऎसा कहा – ।।25-27।। 

श्रीशिवजी बोले – जनार्दन ! अनजाने में इस शूल से मैंने आपका सिर काट डाला, इसलिए मैं सचमुच ही अपराधी हूँ. द्वापर युग के अन्त में वसुदेव के घर में देवकी के गर्भ से जब आप पुन: अवतार लेगें, तब आपके साथ शोणितपुर में मेरा संग्राम होना निश्चित है, उस रणभूमि में सब लोगों के सामने ही मैं आपके द्वारा शूलसहित अवश्य ही स्तम्भित कर दिया जाऊँगा।।28-31।। 

श्रीमहादेवजी बोले – तब भगवान शिव उस वन में देवी पार्वती के साथ कुछ महीनों तक विहार करके पुन: अपने नगर में वापस लौट आए. जहाँ उनके ज्येष्ठ पुत्र तारकासुर संहारक कार्तिकेय भी थे. वहाँ अपने दोनों पुत्रों के साथ प्रसन्नचित्त होकर भगवान शिव निवास करने लगे।।32-33।। ब्रह्मस्वरुपा भगवती पार्वती सदाशिव के साथ कभी कैलास पर्वत पर, कभी वाराणसी पुरी में अथवा अन्य किसी रमणीय स्थल पर यथेप्सित विहार करके अपने नगर में पुन: लौटकर यथारुचि निवास करने लगीं।।34-35।। इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों और प्रमथगणों तथा देवाधिदेव सदाशिव के साथ जगदम्बा ने उस श्रेष्ठ कैलास पर्वत पर निरन्तर वास किया और कभी परमप्रीतिपूर्वक पर्वतश्रेष्ठ हिमालय पर्वत पर भी रहीं।।36-37।।

मुनिवर ! जिस प्रकार पूर्वोक्त परा प्रकृति और सदाशिव का विवाहादि मंगलकार्य संपन्न हुआ, वह सब वृत्तान्त जो आपने पूछा था मैंने बता दिया।।38।। जगदम्बा के इस उत्तम चरित्र को जो भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उस पर ब्रह्मादि देवगणों के लिए भी दुष्प्राप्य भगवती पार्वती प्रसन्न होती हैं. उसके मनोवांछित कार्य निश्चय ही पूर्ण होते हैं और दुर्जय शत्रु भी युद्ध में नष्ट हो जाते हैं।।39-40।। राक्षसराज रावण को मारने के लिए रघुवर रामचन्द्र जी ने असमय में ही परम भक्तिपूर्वक जगदम्बा की जो वार्षिकी पूजा की थी, उसी प्रकार से आश्चिन कृष्णपक्ष की नवमी से आरंभ करके महानवमी तक प्रतिदिन इसका पाठ करने से मानव के कठिन कार्य भी भगवती की कृपा से पूर्ण हो जाते हैं. जैसे देवताओं के लिए दुर्जय महाबाहु राक्षसराज रावण का श्रीरामचन्द्र ने युद्धभूमि में संहार किया, उसी प्रकार देवी भक्त अपने शत्रुओं का निश्चय ही नाश कर देता है, इसमें संशय नहीं है. उसे अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है और वह दीर्घकाल तक स्वर्ग में आनन्द करता है. 

मुनिवर ! जो भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र का श्रवण करता है, उसके पुण्य़ और यश की वृद्धि होती है. व्याघ्र आदि सभी हिंसक जन्तु भी उसकी ओर देखते तक नहीं और भय के मारे दूर से ही भाग जाते हैं. मुनिश्रेष्ठ ! वह इस संसार में पुत्र-पौत्रादि से युक्त होकर सभी सभी सुख भोगते हुये अन्त में देवी लोक पहुँचकर आनन्द प्राप्त करता है।।41-47½।।    

मुनिश्रेष्ठ ! अधिक क्या कहें, इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने वाले पर महेश्वरी भवानी प्रसन्न हो जाती हैं. मुने ! उनके प्रसन्न होने पर जो फल होता है, उसे असंख्य कल्पों में भी मैं कहने में समर्थ नहीं हूँ।।48-49½।। वत्स ! देवी के इस तत्त्व को प्रकाशित नहीं करना चाहिए. यह जिस किसी व्यक्ति को देने योग्य नहीं हैं, इसे केवल भक्तिपूर्ण जिज्ञासु के प्रति ही कहना चाहिए. आप देवी के परम भक्त हैं, दृढ़व्रती और विशुद्ध ज्ञानी हैं, इसलिए आपके लिए मैंने इसे बताया. आप इसे पुन: प्रकाशित न करें. आपके लिए मेरे पास कुछ भी गोपनीय नहीं है, आप और क्या सुनना चाहते हैं वह कहें. मैं उसे भी सुनाऊँगा।।50-53।।

व्यासजी बोले – देवाधिदेव भगवान शिव का यह वचन सुनकर देवराज इन्द्र के द्वारा वन्दित पादारविन्द वाले पंचानन भगवान शिव को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके पुन: सुरेश्वरी भगवती के उत्तम चरित्र को सुनने की कामना वाले उत्तममति नारदजी ने देवी की महापूजा के विधान के संबंध में प्रश्न किया।।54।। भगवती के जिस पूजन को करके रघुनन्दन श्रीरामभद्र ने देवपीड़क राक्षसराज रावण का पुत्रों और मन्त्रियों सहित रणभूमि में संहार किया था और जिस पूजन को करके भूलोक में मानव और देवलोक में ब्रह्मा तथा इन्द्रादि देवगण अपने मनोवांछित फलों को प्राप्त करते हैं, उस पूजा विधान के संबंधों में भी नारद जी ने प्रश्न किया।।55।। 

इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “गणपतिजन्मकथावर्णन” नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।35।।