आश्विन माह के व्रत तथा त्यौहार

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आश्विन माह की गणेश जी की कथा – Story Of Lord Ganesha In Ashvin Month

एक समय की बात है, मथुरा नगरी में कंस राजा का एक रिश्तेदार रहता था. उसका नाम वाणासुर था और उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम ऊषा था. ऊषा बहुत ही रूपवान थी. उसके पिता वाणासुर ने उसके रहने के लिए एक अलग महल बनवा रखा था. जिसमें वह अपनी सखी चित्रलेखा के साथ रहती थी. एक दिन ऊषा ने अपने सपने में एक सुंदर राजकुमार को देखा. वह राजकुमार भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का बेटा अनिरुद्ध था.

अनिरुद्ध की सुंदरता को देखकर ऊषा उसकी ओर आकर्षित हो गई. स्वप्न में वह प्रेमालिंगन करना ही चाहती थी कि उसकी आँख खुल गई. सपना टूटने पर भी वह उस आकृति को भूल नहीं पाई. उस आकृति से मिलने की इच्छा से वह बेहद परेशान हो गई. ऊषा ने अपने मन की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताई. उसने कहा कि किसी भी तरह से वह उस युवक को लेकर आए.

ऊषा ने सपने की आकृति का नक्शा चित्रलेखा के सामने बयान कर दिया और चित्रलेखा समझ गई कि यह युवक अनिरुद्ध ही है. चित्रलेखा जाती है और सोते हुए अनिरुद्ध को उठाकर ऊषा के सामने ले आती है. अनिरुद्ध के माता-पिता तथा दादी रुक्मणी जब उसे वहाँ नहीं पाते तो परेशान हो जाते हैं. श्रीकृष्ण इस घटना का जिक्र अपनी राजसभा में ऋषि लोमेश से करते हैं. ऋषि लोमेश कहते हैं कि एक उपाय है जिससे आपका पौत्र पुन: वापिस आप लोगों के पास आ जाएगा.

लोमेश ऋषि कहते हैं कि आप गणेश का व्रत करें. श्रीकृष्ण ने उनके कथनानुसार व्रत किया और उन्हें पता चला कि अनिरुद्ध कहाँ है! उन्होंने वाणासुर से युद्ध किया और विजय पाने पर ऊषा तथा अनिरुद्ध को वाणासुर से माँगकर अपने घर ले आए.

 

श्राद्ध – Shraddh

श्राद्ध का आरंभ भाद्रपद माह की पूर्णिमा से होता है. जिनका देहांत पूर्णिमा के दिन हुआ हो उनका श्राद्ध इस दिन मनाते हैं. उसके बाद तिथियों के क्रम से श्राद्ध मनाते हैं और आश्विन माह की अमावस्या तक श्राद्ध मनाते हैं. इस तरह से भाद्रपद की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक के समय को “पितृपक्ष” कहते हैं. घर के ज्येष्ठ(बड़ा) पुत्र को श्राद्ध करने का अधिकार होता है. यदि किसी को पुत्र नहीं है तब नाती को यह अधिकार प्राप्त होता है.

पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है और सामर्थ्यानुसार दक्षिणा दी जाती है. स्त्री के श्राद्ध पर ब्राह्मणी को भोजन कराते हैं. भोजन में खीर का महत्व माना गया है और साथ में पूरी बनाई जाती हैं. पितृपक्ष में पितरों की मरने की तिथि के दिन ही उनका श्राद्ध मनाया जाता है. बिहार में “गया” में पितरों का पिण्डदान पितर पक्ष में करते हैं. पितृपक्ष में देवताओं को जल देने के बाद पितरों के नाम के उच्चारण के साथ उन्हें भी जल अर्पित किया जाता है. एक तरह से बुजुर्गों की मृत्यु की तिथि के दिन श्रद्धापूर्वक तर्पण करने के साथ ब्राह्मण को भोजन कराना श्राद्ध कहलाता है.

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श्राद्ध में तर्पण – Tarpan In Shraddh

सुपारी, पान, काले तिल, गेहूँ, जौ, चंदन, जनेऊ, तुलसी, फूल, हरी दूब, कच्चा दूध, पानी आदि सामग्री को पूजा के लिए एकत्रित कर लेना चाहिए. पूजा स्थान को गाय के गोबर से लीपकर शुद्ध करना चाहिए. मृत पितरों के निमित्त और उनकी मृत्यु की तिथि को याद कर नैवेद्य निकालना चाहिए. पहले पाँच ग्रास अलग-अलग चीजों के लिए निकाले जाते हैं और ब्राह्मण द्वारा भी एक थाली में भोजन निकाला जाता है. यदि कोई व्यक्ति इतना सब नहीं कर पाता है तो जिस ब्राह्मण को भोजन के लिए बुलाया गया है वह अपने आप तर्पण कराके आवश्यकतानुसार ग्रास भी निकाल देता है.

 

आश्विन माह में साँझी का त्यौहार – Festival Of Sanjhi In Ashvin Month

इस त्यौहार को आश्विन माह आरंभ होते ही पूर्णिमा से अमावस्या तक मनाया जाता है. कुंवारी लड़कियाँ घरों में साँझी की पूजा करती हैं. दीवार पर गोबर के साँझा-साँझी की मूर्त्ति बनाकर उनको भोग लगाया जाता है. 15वें दिन अमावस्या को एक बड़ा सा कोट बनाकर पूजा की जाती है. जब लड़की की शादी हो जाती है तो शादी वाले वर्ष में वह 16 कोटों की 16 घरों में जाकर पूजा करती है और भोग लगाती है. जिससे लड़की की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती है.

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साँझी का गीत – Song Of Sanjhi

साँझा बाल बनरा को चाले रे बनरा टेसुरा

बनरी कू क्या क्या लाये रे! बनरा टेसुरा

माया कू हँसला, बहिन कू तो कठला, तो

गोरी धन कारी कंठी लाये रे! बनरा टेसुरा

माया वाकी हँसे, बहिन वाकी खिलकै, तो

गोरी धन रूठी मटकी डोले रे! बनरा टेसुरा

माया पैसे छीनौ बहिन पैसे झपटी तो

गोरी धन लै पहरायो रे! बनरा टेसुरा

माया वाकी रोवे बहिन वाकी सुबके, तो

गोरी धन फूली न समाये रे! बनरा टेसुरा

महालक्ष्मी व्रत – Mahalakshmi Fast

महालक्ष्मी व्रत को भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी से मनाया जाता है. इस व्रत का काफी महत्व माना गया है. इसे भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से आरंभ कर के आश्विन माह की कृष्ण अष्टमी तक मनाया जाता है. इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा आराधना की जाती है.

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महालक्ष्मी व्रत की कथा – Story Of  Mahalakshmi Fast

पुराने समय में एक गाँव में ब्राह्मण रहता था. वह ब्राह्मण रोज नियम से विष्णु भगवान के मंदिर जाकर नियम से  उनकी पूजा अर्चना करता था जिससे एक दिन भगवान प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को साक्षात दर्शन देते हैं. भगवान विष्णु ब्राह्मण को लक्ष्मी जी को पाने का उपाय बताते हैं. वह कहते हैं कि मंदिर के सामने रोज सुबह एक स्त्री उपले थापने आती है. वह जैसे ही आए तुम उसके पैर पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे घर जाने को राजी ना हो जाए तब तक उसके पैर पकड़े रहना. विष्णु जी कहते हैं कि वह मेरी पत्नी लक्ष्मी है. यदि वह तुम्हारे घर चली गई तब तुम्हे कभी धन-धान्य की कमी नहीं होगी. यह कहकर विष्णु भगवान चले गए और ब्राह्मण भी अपने घर वापिस आ गया.

अगले दिन सुबह चार बजे ही वह मंदिर के सामने जाकर बैठ गया. लक्ष्मी जी उपले थापने आई तो ब्राह्मण ने उनके चरण पकड़ लिए और अपने घर चलने का आग्रह करने लगा. लक्ष्मी जी ने भाँप लिया कि यह सब विष्णु जी के कहने पर कर रहा है. लक्ष्मी जी बोली कि तुम अपनी पत्नी सहित मेरा सोलह दिन तक उपवास करो और सोलहवें दिन रात को चन्द्रमा की पूजा करो और उसके बाद उत्तर दिशा में मुझे पुकारना, इससे तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा. ब्राह्मण ने लक्ष्मी जी के कहे अनुसार ही सब किया. ऎसा करने के बाद लक्ष्मी जी ने भी अपना वचन निभाया. इस प्रकार यह व्रत महालक्ष्मी व्रत केर नाम से जाना जाने लगा.

 

जीवित्पुत्रिका व्रत – Jivitputrika Fast

इस व्रत को करने का उद्देश्य पुत्र के जीवन की रक्षा करना है. स्त्रियाँ अपने पुत्रों की दीर्घायु के लिए इस व्रत को करती हैं. इस व्रत को आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है. इस व्रत में जरुरी है कि स्नानादि से निवृत होकर भगवान सूर्य नारायण की मूर्ति को स्नान कराएँ और उसके बाद उन्हें भोग लगाएँ. आचमन कराकर धूप-दीप से आरती करें. भोग लगे प्रसाद को सभी लोगों में बाँट दें. इस दिन भगवान को बाजरे और चने से बनी वस्तुओं का भोग लगाया जाता है. इस दिन कटे हुए फल तथा शाक सब्जी नहीं खाते हैं और ना ही काटते हैं. जिन लोगों के पुत्र होते हैं लेकिन जीवित नहीं बचते तब उन्हें इस व्रत को नियमानुसार रखना चाहिए. इस व्रत के प्रभाव से बच्चों के मरण दोष का नाश होता है.

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जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा – Story Of Jivitputrika Fast

जब भगवान कृष्ण द्वारिका में रहते थे तब वहाँ एक ब्राह्मण भी रहता था. उसके सात पुत्र बचपन में ही मर गए. इससे ब्राह्मण बहुत दुखी रहने लगा. एक दिन वह भगवान कृष्ण के पास गया और कहने लगा कि मेरे सात पुत्र हुए लेकिन एक भी नहीं बचा! कृपया कर मुझे इसका कारण बताएँ और उपाय भी बताएँ. कृष्ण जी कहने लगे कि अब की बार तुम्हारा जो पुत्र पैदा होगा उसकी तीन वर्ष की आयु रहेगी लेकिन उसकी उम्र बढ़ाने के लिए तुम सूर्य नारायण की पूजा करो और पुत्रजीवी व्रत का पालन करो. ऎसा करने से तुम्हारे पुत्र की आयु बढ़ जाएगी.

भगवान कृष्ण के कहे अनुसार ब्राह्मण ने व्रत को किया. पूरे परिवार के साथ वह इस व्रत को कर रहा था और हाथ जोड़ विनती करने लगा –

सूर्यदेव विनती सुनो, पाऊँ दुख अपार ।

उम्र बढ़ाओ पुत्र की कहता बारम्बार ।।

ब्राह्मण की यह विनती सुनते ही सूर्यदेव का रथ वहीं रुक गया और उसकी विनती से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने अपनी गले की एक माला ब्राह्मण के गले में डाल दी और फिर अन्तर्ध्यान हो गए. कुछ समय बाद ही यमराज उस ब्राह्मण पुत्र के प्राण लेने आए. यमराज को देख ब्राह्मण और ब्राह्मणी कृष्ण जी को झूठा समझने लगे इससे भगवान कृष्ण को अपना अपमान लगा और तुरंत सुदर्शन चक्र लेकर आ गए और ब्राह्मण से बोले कि कि इस माला को अपने पुत्र के गले से निकालकर यमराज के गले में डाल दो. ब्राह्मण ने माला उतारी तो यमराज डर से भाग गए.

यमराज तो डर कर भाग गए किन्तु उनकी छाया वहीं रह गई. माला को छाया पर फेंकने से वह छाया शनि रुप में भगवान कृष्ण से प्रार्थना करने लगी. भगवान कृष्ण को शनि पर दया आ जाती है और वह उन्हें पीपल के पेड़ पर रहने के लिए कहते हैं. उसी दिन से शनि की छाया पीपल के वृक्ष पर रहने लगी. इस प्रकार भगवान कृष्ण की कृपा से ब्राह्मण पुत्र की उम्र बढ़ गई. भगवान कृष्ण इसी प्रकार से सभी पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें.

 

आशा भोगती का व्रत – Fast Of Asha Bhogati

आशा भोगती का व्रत श्राद्ध में अष्टमी तिथि से आरंभ होता है और आठ दिनों तक चलता है. अष्टमी के दिन आठ कोने रसोईघर के पोते जाते हैं. आशा भोगती की कहानी सुनने के बाद इन आठ कोनों पर दूध, 8 रुपये, 8 रोली के छीटें, मेहंदी के आठ छींटे, काजल की आठ टिक्की, एक-एक सुहाली और एक दीपक जलाएँ. इस व्रत के आखिरी दिन एक-एक फल, एक सुहाग पिटारी चढ़ाएँ. 8 दिन तक इसी तरह पूजा की जाती है और आखिरी दिन व्रत किया जाता है.

व्रत करने पर आठ सुहाली का बायना निकाला जाता है. 8 साल तक इसी व्रत के साथ पूजा करनी चाहिए और नवें वर्ष इस व्रत का उद्यापन कर देना चाहिए. आठ सुहाग पिटारी में सुहाग की सारी चीजें डाल दें और आठ सुहाली डालकर सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर पैर छूते हैं. पूजा करने के बाद ही कहानी सुनी जाती है.

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आशा भोगती की कहानी – Story Of Asha Bhogati Fast

बहुत समय पहले हिमाचल में एक राजा रहता था और उसकी दो बेटियाँ थी. एक नाम गौरा तो दूसरी का नाम पार्वती था. एक दिन राजा ने दोनो बेटियों को बुलाकर पूछा कि तुम किस के भाग का खाती हो? इस पर पार्वती जी बोली कि मैं अपने भाग का खाती हूँ और गौरा ने कहा कि मैं तुम्हारे भाग का खाती हूँ. दोनो की बातें सुनकर राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर कहा कि पार्वती के लिए भिखारी वर ढूंढना और गौरा के लिए राजकुमार वर ढूंढना. ब्राह्मण ने गौरा को सुंदर राजकुमार दे दिया और पार्वती जी को भिखारी वर दे दिया.

भिखारी का रुप बनाकर शिवजी बैठे थे. राजा ने पार्वती जी की शादी के लिए कोई तैयारी नहीं कर रखी थी जबकि गौरा के विवाह के लिए बहुत सी तैयारियाँ कर रखी थी. गौरा की बारात आने पर बारात की बहुत खातिरदारी की गई. बड़े ही धूमधाम से विवाह संपन्न किया गया. लेकिन पार्वती जी की बारात आई तब कुछ भी नहीं दिया गया और बिना कुछ दिए कन्यादान कर दिया गया. शिवजी पार्वती जी को लेकर कैलाश पर्वत चले गए. जब पार्वती जी जाने लगी तो जहाँ पैर रखती वही की दूब जल जाती. शिवजी ने ब्राह्मणों से पूछा कि ऎसा क्यूँ हो रहा है? ब्राह्मण बोले कि पार्वती जी की भाभियाँ आशा भोगती का व्रत करती थी. उन्होंने अपने पीहर जाकर उद्यापन कर दिया है. पार्वती जी भी अपने पीहर जाकर उद्यापन करेंगी तब इनका यह दोष खतम होगा.

ब्राह्मणों की बात सुनकर शिवजी बोले कि हम वहाँ धूमधाम से जाएंगे और आशा भोगती व्रत का उद्यापन पार्वती जी से कराएंगे, नहीं तो पार्वती जी के पीहर वालों को कैसे पता चलेगा कि पार्वती जी सुखी हैं. शिवजी, पार्वती जी के साथ बहुत सारे गहने पहनकर चल दिए. रास्ते में उन्होंने देखा कि किसी राजा कि रानी को बच्चा होने वाला है इसलिए वह बहुत परेशान थी और भीड़ भी बढ़ती जा रही थी. पार्वती जी ने पूछा कि इतनी भीड़ क्यूँ है़? लोगों ने उन्हें सब बात बता दी. इस पर पार्वती जी शिव से कहने लगी कि मेरी कोख बाँध दो. शिवजी ने बहुत मना किया लेकिन पार्वती जी ने जिद पकड़ ली थी और अंतत: शिव ने पार्वती जी की कोख बाँध दी.

इधर गौरा अपनी ससुराल में बहुत दुखी थी. पार्वती जब अपने पीहर पहुँची तब कोई उन्हें पहचान ही नहीं पाया तो पार्वती जी ने अपने बारे में बताया जिसे सुनकर हर कोई बहुत प्रसन्न था. इस बार फिर पार्वती जी के पिता ने उनसे पूछा कि तुम किस के भाग का खाती हो? पार्वती जी ने फिर वही जवाब दिया कि मैं अपने भाग का खाती हूँ तभी मैं बहुत खुश हूँ. पार्वती जी की भाभियाँ आशा भोगती का उद्यापन कर रही थी. पार्वती जी बोली कि क्या मेरे उद्यापन की तैयारियाँ नहीं है? मैं भी उद्यापन कर देती! इस पर भाभियों ने कहा कि तुम्हें किस चीज की कमी है? शिवजी अपने आप सारी तैयारी कर देगें.

भाभियाँ दासी से बोली कि शिवजी कुएं के पास बैठे हैं, उन्हें कहो कि वे पार्वती जी के आशा भोगती व्रत के उद्यापन की तैयारी कर दें. दासी ने शिवजी से जाकर सारी बात कह दी. इस पर शिवजी ने दासी को एक अंगूठी दी और कहा कि इससे जो तुम मांगोगी वही मिलेगा. दासी अंगूठी लेकर चली गई और पार्वती जी को शिव का संदेश सुना दिया. पार्वती जी ने सारी तैयारी कर ली. पार्वती जी की सभी तैयारी देख भाभियाँ कहने लगी कि हम 8 महीने से इस व्रत की तैयारी कर रहे हैं तब भी वह अभी तक पूरी नहीं हो पाई और इसने जरा सी देर में सभी तैयारी कर ली.

शिवजी ने पार्वती जी से कहा कि अब घर चलो! इस पर ससुर ने शिवजी को जीमने के लिए बुलाया तो शिवजी बहुत से गहने पहन और छोटा सा रुप बनाकर जीमने गए. अब बहुत से लोग बोलने भी लगे कि पार्वती जी को भिखारी वर ढूंढकर दिया लेकिन पार्वती जी अपने भाग से खूब राज कर रही हैं. शिवजी के जीमने के बाद सारा खाना ही खतम हो गया और पार्वती जी खाने लगी तो कुछ भी नहीं बचा था. एक सब्जी उबली हुई पड़ी थी तो पार्वती जी उसी को खाकर ठंडा पानी पीकर वहाँ से चलने लगी. रास्ते में बहुत गर्मी होने से वह एक पेड़ के नीचे बैठ गई. शिवजी ने पूछा कि तुम क्या खाकर आई हो? इस पर पार्वती जी ने कहा कि जो आपने खाया वहीं मैने भी खाया लेकिन शिव सब जानते थे वह हँसकर बोले कि तुम तो सब्जी खाकर ठंडा पानी पीकर आई हो. इस पर पार्वती जी ने कहा कि आपने मेरा भेद तो खोल दिया है लेकिन किसी और का भेद ना खोलना.

अब पार्वती जब चलने लगी तो सूखी हुई दूब हरी होने लगी. शिवजी ने सोचा कि चलो दोष मिट गया. अब पार्वती जी बोली कि आप मेरी कोख खोल दो. शिवजी बोले कि अब कैसे खोलूँ? मैने तो पहले ही मना कर दिया था. जब दोनो कुछ आगे चले तो वही रानी कुआं पूजने आ रही थी. पार्वती जी ने पूछा कि यह क्या हो रहा है? शिव जी बोले कि यह वही रानी है जो दुख पा रही थी. अब इसे लड़का हो गया है इसलिए यह कुंआ पूजने जा रही है. पार्वती जी फिर बोली कि महाराज मेरी कोख तो खोल दो. शिवजी फिर बोले कि मैने तो पहले ही मना किया था कि कोख मत बंधवाओ लेकिन तुमने जिद कर ली.

अब जादू से सारी चीजें निकालकर गणेश जी बनाएं तो पार्वती जी ने सभी नेग किए और कुंआ पूजन भी किया. अब पार्वती जी बोली कि मैं तो सुहाग बाँटूगी तो सारे देश में शोर मच गया कि पार्वती जी सुहाग बाँट रही हैं. जिसको लेना हो ले ले. साधारण मानव तो दौड़कर सुहाग ले गए लेकिन ब्राह्मणी और वैश्य स्त्रियाँ देर से सुहाग लेने पहुंची. अब पार्वती जी ने कहा कि मैने तो सारा सुहाग बाँट दिया लेकिन शिवजी बोले कि इन्हें तो सुहाग देना पड़ेगा तब पार्वती जी ने अपने नाखूनों में मेहंदी निकाली, माँग में से सिन्दूर निकाला, बिन्दी में से रोली, आँखों से काजल, सबसे छोटी अंगुली से छींटा दे दिया. ऎसा करने से उन्हें भी सुहाग मिल गया. सारे नगर में जय-जयकार हो उठी कि पार्वती जी ने सभी को सुहाग दिया है. इस व्रत को कुंवारी लड़कियाँ ही करती है और इसके बाद बिन्दायक जी कथा भी कही जाती है.

 

इन्दिरा एकादशी – Indira Ekadashi

इस एकादशी का व्रत करने से पितरों का उद्धार होता है. आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को इन्दिरा एकादशी कहा जाता है. इस दिन शालिग्राम भगवान की पूजा करते हैं और व्रत रखते हैं. सबसे पहले स्नानादि कर के शुद्ध होते हैं. उसके बाद शालिग्राम जी को पंचामृत से स्नान कराकर, उन्हें भोग लगाकर आरती उतारते हैं. एक बात जरुरी यह है कि शालिग्राम जी को तुलसी दल अवश्य चढ़ाना चाहिए. पंचामृत को सभी लोगों में बाँटा जाता है. जो भी व्यक्ति इस व्रत की कहानी सुनता है या करता है उसे सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है.

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इन्दिरा एकादशी व्रत कथा – Story Of Indira Ekadashi Fast

सतयुग काल में महिष्मतीपुरी में इन्द्रसेन नाम का एक प्रतापी व प्रबल राजा रहता था. वह धन-धान्य, पुत्र तथा पोत्रों से संपन्न था. वह भगवान विष्णु का परम भक्त था. राजा के माता-पिता स्वर्ग सिधार चुके थे. एक दिन अचानक राजा को स्वप्न आया कि उसके माता-पिता यमलोक में कष्ट झेल रहे हैं. राजा की जब आँख खुली तो वह बहुत परेशान हुए. वह सोचने लगे कि यदि वास्तविकता में मेरे माता-पिता कष्ट भोग रहे हैं तो कैसे उन्हें उसे कष्ट से छुटकारा दिलाया जाए जिससे पितरों को मुक्ति मिल सके. उन्होंने अपने दरबार के मंत्रियों से परामर्श किया. मंत्रियों ने कहा कि दरबार में विद्वानों को बुलाकर उनसे पितरों की मुक्ति के बारे में पूछना चाहिए.

राजा ने सभी विद्वान ब्राह्मणों को बुलाया और उनसे अपने स्वप्न के विषय में वार्तालाप किया. राजा की बात सुनने के बाद ब्राह्मणों ने कहा कि हे राजन ! आप अपने परिवार सहित इन्दिरा एकादशी का व्रत करें इससे आपके पितरों को मुक्ति मिल जाएगी. व्रत रखने पर आप शालिग्राम जी की पूजा करे, उन पर तुलसी चढ़ाएँ और 11 ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें. ऎसा करने पर आपके माता-पिता स्वर्ग चले जाएंगे. रात होने पर आप शालिग्राम जी के पास ही शयन(सोएं) करें.

ब्राह्मणों के कहे अनुसार ही राजा ने सभी कार्य किए. रात्रि में जब राजा मंदिर में शालिग्राम जी के पास सो रहे थे तो उन्हें स्वप्न आया कि भगवान उनसे कह रहे हैं कि तुम्हारे व्रत के प्रभाव से तुम्हारे माता-पिता स्वर्ग चले गए हैं. इसके बाद राजा इन्द्रसेन भी अपना राजपाट भोगने के बाद अंत में स्वर्ग लोक में चले जाते हैं.

 

पितृ विसर्जन अमावस्या – Pitru Amavasya

इस दिन संध्या समय में दीपक जलाकर पूरी-पकवान बनाकर दरवाजे पर रखे जाते हैं. इसका अर्थ यह है कि 15 दिन से पितर जो धरती पर आए थे, वह वापिस जाते हुए भूखे ना जाएँ. दीपक जलाने का अर्थ यह है कि जाते समय उनका मार्ग प्रकाशमय रहे. आश्विन माह कि इस अमावस्या का बहुत महत्व है. इस दिन पितरों का विसर्जन किया जाता है. पितरों के नाम से ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और अपनी सामर्थ्यानुसार उन्हें दान-दक्षिणा आदि भी दी जाती है.

माना जाता है कि विसर्जन के समय पितर अपने वंशजों को आशीर्वाद देकर जाते हैं. इस दिन सवा किलो जौ के आठे के सोलह पिण्ड बनाए जाते हैं. जिनमे से आठ गाय को, चार पिण्ड कुत्ते को और बाकी बचे चार पिण्ड कौओं को खिलाए जाते हैं. इस दिन पितृ स्त्रोत का पाठ भी किया जाना चाहिए.

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पितृ स्त्रोत – Pitru Stotra

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ।

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा ।

सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् ।।

मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा ।

तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि ।।

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।

द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।

अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।

प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च ।

योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।

नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ।

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ।।

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा ।

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ।।

अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् ।

अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:।

जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।

तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:।

नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज।।

 

अशोक व्रत – Ashok Fast

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इस व्रत को आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है. इस दिन अशोक के पेड़ की पूजा घी के दीपक, गुड़, हल्दी, रोली, कलावा आदि से की जाती है. पूजा के बाद जल का अर्ध्य दिया जाता है. यह व्रत 12 वर्षों तक निरंतर किया जाता है. उसके बाद उद्यापन के समय सोने का अशोक पेड़ बनवाकर उसकी पूजा कुलगुरु से करवाकर उन्ही को समर्पित किया जाता है. इस व्रत को करने वाल व्यक्ति अंत में शिवलोक को जाता है

 

नवरात्र व्रत – Navratri Fast

आश्विन माह की शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक की तिथियों को नवरात्र कहा गया है अर्थात नौ रातें. प्रतिपदा तिथि को सुबह के समय घटस्थापन किया जाता है. इस व्रत का कोई विशेष नियम नहीं है. व्रती को सुबह सवेरे स्नानादि से निवृत होकर मंदिर जाकर पूजा करनी चाहिए और अगर मंदिर जाना संभव ना हो सके तब घर में ही दुर्गा जी की पूजा की जानी चाहिए.

इस व्रत में फलाहार का भी कोई विशेष नियम नही है. पूरा दिन व्रत रखने के बाद संध्या समय में एक समय का फलाहार करना चाहिए. कुंवारी कन्याओं के लिए यह व्रत बहुत फलदायी कहा गया है क्योंकि माता की कृपा से उनके सव्भी विघ्नों का नाश होता है. व्रत रखने वाले को माँ दुर्गा का ध्यान करते हुए नवरात्र की कथा पढ़नी अथवा सुननी चाहिए.

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दुर्गाष्टमी – Durgashtami

आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को दुर्गाष्टमी के रुप में मनाया जाता है. इस माँ दुर्गा की पूजा होती है. माँ को लोग कुंवारी कन्याओं के रुप में इस दिन भोजन कराते हैं और दक्षिणा भी देते हैं. भोजन के रुप में हलवे तथा पूरी का विशेष महत्व है या जिसकी जितनी श्रद्धा है वह उसी के अनुसार माँ दुर्गा को प्रसन्न करता है. बंगाल में इस पर्व को बहुत ही बड़ पर्व के रुप में मनाया जाता है. माँ दुर्गा की उपासना से व्यक्ति के दुर्गुणों का नाश होता है.

 

दशहरा – Dussehra

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आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को दशहरे के रुप में मनाया जाता है. इस दिन बुराई पर अच्छाई की जीत मानी गई है क्योंकि इस दिन भगवान राम के हाथो रावण का वध होता है. इसलिए इसे विजय दशमी के रुप में भी मनाया जाता है. चिंतामणि ग्रंथ के अनुसार आश्विन शुक्ल दशमी के दिन तारों के उदय होने का जो साय है उसका विजय से संबंध है जो सारे काम व अर्थों को पूरा करने वाला है.

जो व्यक्ति आदर के साथ इस दिन व्रत रखता है वह सभी कामों में सफल होता है. सुबह के समय कई स्थानों पर रावण को पूजा जाता है और संध्या समय में इसे जलाया भी जाता है. दशहरा पूजन में उसके ऊपर जल, रोली, चावल, मोली, गुड़, दक्षिणा, फूल और जौ के झँवारे चढ़ाए जाते हैं.

इस दिन कई स्थानों पर दुकानदार बहीखातों की पूजा के साथ कलम-दवात की पूजा भी करते हैं. इस दिन नीलकंठ जी के दर्शन करना भी शुभ माना गया है. व्रती को संध्या समय में भोजन करना चाहिए. भोजन से पूर्व ब्राह्मण को भी जिमाना चाहिए. कई स्थानों पर श्रीरामचन्द्र की पूजा के साथ रामायण की भी पूजा की जाती है.

दशहरे की कहानी – Dussehra Story

एक बार पार्वती जी भगवान शिव से दशहरे के प्रचलन के बारे में बताने को कहती हैं. इस पर शिवजी कहते हैं कि आश्विन माह की शुक्ल दशमी को नक्षत्रों के उदय होने से विजय नाम का काल बनता है और वह सब कामनाओं को पूरा करने वाला होता है. यदि कोई शत्रु पर विजय पाना चाहता है तब इसी समय उसे प्रस्थान करना चाहिए. यदि इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग भी बनता हो तो वह और अधिक शुभ होता है. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने भी इसी काल में लंका पर चढ़ाई की थी. यह दिन बहुत पवित्र माना गया है और क्षत्रियों का यह प्रमुख त्योहार होता है. बेशक शत्रु पर चढ़ाई ना करनी हो लेकिन इस दिन राजा अपने दल-बल के साथ तैयार होकर जाता है और तमाम सज्जा के साथ पूर्व दिशा में जाकर शमी के पेड़ की पूजा करता है.

वर्तमान समय में राजा और राज्य नही है लेकिन शत्रु के दमन के लिए पूर्व दिशा में जाकर शमी के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए. शिवजी बोले – पूजन करने वाले व्यक्ति को शमी के सामने खड़े होकर ध्यान लगाकर कहना चाहिए – हे शमी वृक्ष ! तू सब पापों को नष्ट करने वाला और शत्रुओं का परास्त करने वाला है. तुमने अर्जुन का धनुष धारण किया और रामचन्द्र जी से प्रिय वाणी कही. पार्वती जी कहने लगी – शमी वृक्ष ने कब अर्जुन का धनुष धारण किया और कब रामचन्द्र जी की वाणी प्रिय की? कृपया कर विस्तार से बताएँ.

शिवजी ने उत्तर दिया – “जुए में हारने के बाद दुर्योधन ने पांडवों को वनवास के लिए भेज दिया और कहा कि 12 वर्ष तक पांडव कहीं भी रहे और घूमें लेकिन तेरहवें वर्ष में उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा. यदि इस अज्ञातवास के दौरान उन्हें कोई पहचान लेता है तब उन्हें फिर से 12 वर्ष का वनवास करना होगा. इस अज्ञातवास के समय अर्जुन अपना धनुष बाण एक शमी के वृक्ष पर रखकर राजा विराट के यहाँ बृहन्नलता के रुप में रहते हैं. विराट के पुत्र कुमार ने गौऔं की रक्षा के लिए अर्जुन को अपने साथ रखा और अर्जुन शमी के वृक्ष से अपना धनुष निकालकर शत्रुओं को परास्त किया. इस प्रकार शमी के वृक्ष ने अर्जुन के हथियारों की रक्षा की थी.

शिवजी आगे कहने लगे कि विजय दशमी के दिन रामचन्द्र जी को लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने कहा था कि आपकी विजय होगी. इसलिए विजय काल में शमी वृक्ष की भी पूजा की जाती है. एक बार राजा युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया था कि हे राजन! विजय दशमी के दिन राजा को स्वयं अलंकृत होकर अपने दासों और हाथी -घोड़ों का श्रृंगार करना चाहिए. उसके बाद गाजे-बाजे के साथ मंगलाचार करना चाहिए. राजा को उस दिन अपने पुरोहित के साथ पूर्व दिशा में जाकर अपनी सीमा से बाहर निकलकर वहाँ वास्तु पूजा करनी चाघिए. राजा को पुरोहित के साथ अष्ट-दिग्पालों तथा पार्थ देवता की वैदिक मंत्रों से पूजा करनी चाहिए.

शिवजी आगे कहते हैं कि राजा को शत्रु की मूर्त्ति बनाकर अथवा उसका पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण लगाने चाहिए और पुरोहित को वेद मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए. ब्राह्मणों की पूजा कर के हाथी, घोड़े, अस्त्र-शस्त्र आदि का निरीक्षण करना चहिए. सारी क्रियाएँ करने के उपरांत ही वापिस अपने महल आना चाहिए. जो राजा विधिपूर्वक शमी की पूजा करता है और विजय काल में सीमा पर जाकर पूजा करता है, वह सदा अपने शत्रु की सीमा पर विजय पाता है.

 

पापांकुशा एकादशी – Papankusha Ekadashi

इस व्रत को आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है. भगवान श्री हरि की पूजा कर के ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है. इस दिन भगवान पद्मनाभ की पूजा का विशेष महत्व है. व्रती को इस दिन सुबह सवेरे उठकर स्नानादि से निवृत होकर भगवान की मूर्ति को नहलाना चाहिए. उनकी पूजा करनी चाहिए और भोग लगाना चाहिए. यथाशक्ति ब्राह्मण को भोजन कराकर उसे दान व दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए.

रात्रि में भगवान के समीप रहकर भजन-कीर्तन करना चाहिए. इस दिन अन्न का त्याग किया जाता है और केवल एक समय फलाहार किए जाने का विधान है.

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पापांकुशा एकादशी कथा – Papankusha Ekadashi Story

प्राचीन समय में एक बहेलिया था जो स्वभाव से बहुत क्रूर था और विन्ध्याचल पर्वत पर निवास करता था. उसका नाम भी उसके स्वभाव के अनुकूल क्रोधन था. पूरे जीवन काल में उसने हिंसा, लूटपाट, बुरी बातें ही की और शराब के सेवन के साथ वह वेश्याओं के पास भी जाता था. जब उसका अंत समय आया तो यमराज ने उसके मरने से एक दिन पहले अपने दूतों को बहेलिए के पास भेजा. दूतों ने कहा कि कल तुम्हारा अंतिम दिन है और हम तुम्हें लेने आए हैं. बहेलिया मृत्यु के डर से अत्यंत भयभीत हो गया और ऋषि के आश्रम में पहुंचा. ऋषि से अपने प्राण बचाने के लिए प्रार्थना करने लगा. उसकी गिड़गिड़ाहट से ऋषि को उस पर दया आ गई. उन्होंने बहेलिए को आश्विन शुक्ल की एकादशी के व्रत की और भगवान विष्णु की पूजा की सारी विधि बताई.

जब ऋषि ने सारी विधि बताई तो संयोग से उसी दिन ही पापांकुशा एकादशी थी. क्रोधन ने ऋषि के कहे अनुसार ही एकादशी के इस व्रत का पालन किया. भगवान की कृपा से वह विष्णुलोक को चला गया और यमदूत हाल मलते ही रह गए.

वाराह चतुर्दशी – Varah Chaturdashi

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आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वाराह चतुर्दशी के रुप में मनाया जाता है. इस दिन भगवान वाराह की पूजा तथा व्रत का विधान है. माना जाता है कि इस दिन भगवान वाराह ने अवतार लिया था. भगवान वाराह की प्रतिमा को गंगाजल से स्नान कराया जाता है. उसके उपरांत भोग लगाकर उनकी आरती की जाती है. इस दिन हिरण्याक्ष वध की कहानी कहने का चलन है. कहानी के बाद ब्ताह्मणों को भोजन कराकर दान दक्षिणा आदि दी जाती है. जो व्यक्ति इस व्रत को करता है वह भूत-प्रेतादि बाधाओं से दूर रहता है और उसका बचाव हो जाता है.

 

वराह चतुर्दशी की कथा – Story Of Varah Chaturdashi

श्रीमद्भागवत में वराह अथवा वाराह अवतार का पूरा वर्णन दिया गया है. एक समय की बात है कि चारों सनकादिक ऋषि – सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार भगवान विष्णु के दर्शन करने वैकुण्ठ धाम गए लेकिन जय-विजय नामक द्वारपालों ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया. ऋषियों के बार-बार कहने पर भी जब द्वारपालों ने उन्हें अंदर जाने नहीं दिया तब सनकादिक ऋषियों ने क्रोध में कहा कि “वैकुण्ठ में अहंकारी का वास नहीं हो सकता, तुम पाप योनि में जाओ और अपने पाप का फल भोगो”. ऎसा सुनते ही जय-विजय भयभीत हो गए और क्षमा माँगने लगे.

सनकादिक ऋषियों के आने की बात सुनकर भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी और अपने पार्षदों के साथ बाहर आए और जय-विजय को क्षमा करने की बात कहने लगे. विष्णु जी कहते है “हे मुनीश्वर! मैं जय-विजय की ओर से क्षमा याचना करता हूँ और आपकी प्रसन्नता की हम भिक्षा माँगते हैं”. भगवान के मधुर वचन सुनकर मुनि बोले – “हे नाथ! हमने क्रोध के वश होकर इन निरपराध द्वारपालों को शाप दे दिया है, इसके लिए हम आपसे क्षमा चाहते हैं और आपकी आज्ञा से हम इन्हें श्रापमुक्त करना चाहते हैं. इस पर भगवान विष्णु बोले “हे मुनीवर! अगर ब्राह्मण वचन असत्य होगें तो धर्म की अवमानना होगी इसलिए इन द्वारपालों ने अहंकार में आकर जो उद्दण्डता दिखाई है उसका फल तो इन्हें भोगना होगा. अत: ये कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ में जाकर दैत्य योनि प्राप्त करेगें और मुझसे शत्रुभाव रखते हुए भी मेरे ध्यान में लीन रहेगें. मेरे हाथों इनका संहार होने पर ये फिर से इस धाम में लौटेगें”.

जैसा भगवान विष्णु ने कहा उसके अनुसार ही जय-विजय ने कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रुप में जन्म लिया. इन दोनों के जन्म लेते ही तीनों लोकों में भयंकर उत्पात मचने लगा. जन्म लेते ही दोनों दैत्य आकाश तक बढ़ने लगे. हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दोनों ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने लिए घोर तप करते हैं और अन्त में ब्रह्मा जी उनके तप से प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ इसलिए तुम जो चाहे वर मुझसे माँग सकते हो! दोनो भाई कहते हैं कि प्रभो! हमें ऎसा वर दो कि कोई हमें किसी भी प्रकार से पराजित ना कर सके और ना ही हमें मार सके. ब्रह्माजी तो वचनबद्ध थे इसलिए “तथास्तु” कहकर अन्तर्धान होकर अपने लोक को चले गए. अब ब्रह्मा जी से अजेयता व अमरता का वरदान पाकर हिरण्यकशिपु दोनों अतिचारी, उद्दण्ड व स्वेच्छाचारी बन गए और तीनों लोकों को अपने अधिकार में कर राज्य करने लगा और भाई की आज्ञा से हिरण्याक्ष भी शत्रुओं का नाश करने लग गया.

तीनों लोको पर एकछत्र राज करने के बाद हिरण्याक्ष एक दिन वरुण की नगरी विभावरी पहुंच गया और वरुण देव को युद्ध की चुनौती दे डाली. वरुण देव ने कहा ” तुमसे युद्ध करने का साहस तथा शौर्य मुझसे में कहाँ है! तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऎसा नहीं है जो तुमसे युद्ध करने का दम भर सके? तुम जैसे बलशाली को यज्ञपुरुष भगवान विष्णु के पास जाना चाहिए क्योंकि वे ही तुमसे युद्ध करने योग्य हैं”. नारायण भगवान को ढूंढते हुए हिरण्याक्ष रसातल जा पहुँचता है जहाँ वह नारायण भगवान को वराह रुप में पृथ्वी को दाँतों में दबाए देखता है. हिरण्याक्ष सोचता है कि जो पृथ्वी को दाँतों के बीच दबाए है वह कोई साधारण वराह तो हो नहीं सकता! ये जरुर विष्णु जी की कोई माया है क्योंकि वही देवताओं के भले के लिए माया रचते रहते हैं.

हिरण्याक्ष कहता है – “हे मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को मुँह में दबाए कहा ले जा रहा है, इसे तो ब्रह्मा जी हमें दे चुके हैं इसलिए ये पृथ्वी अब दैत्यों के उपभोग की वस्तु बन गई है तुम इसे रसातल से कहीं नहीं ले जा सकते हो”. भगवान विष्णु उसकी बात नहीं सुनते और आगे बढ़ते रहते हैं, इस पर हिरण्याक्ष उनको बुरा-भला कहता है, कायर कहता है, निर्लज्ज कहता है, मायावी कहता है लेकिन भगवान बड़े ही शान्त स्वभाव से पृथ्वी को ले आगे बढ़ते जाते हैं. हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा रहा और बुरे वचनों से नारायण के हृदय को भेदता रहा. भगवान विष्णु आगे बढ़ते रहने के कुछ समय पश्चात धरती को स्थापित करके हिरण्याक्ष की ओर ध्यान देते हैं और कहते हैं कि क्यूँ बेकार प्रलाप कर रहे हो! अगर शूरवीर हो तो मुझ पर आक्रमण करो और जैसे ही हिरण्याक्ष उन पर गदा लेकर टूटता है भगवान एक ही क्षण में उसके हाथ से गदा लेकर फेंक देते हैं. दोनों के मध्य भयंकर युद्ध होता है और अन्तत: भगवान विष्णु के हाथों हिरण्याक्ष का वध हो जाता है.

वराह के विजय पाते ही ब्रह्मा जी सहित सभी देवता अकाश से पुष्प वर्षा करते हैं और हिरण्याक्ष विष्णु जी के हाथों मुक्त होकर वापिस वैकुण्ठ धाम जाकर द्वारपाल बन जाता है. जब से वराह रुप में विष्णु जी ने हिरण्याक्ष का वध किया तभी से आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वराह अवतार के रुप में मनाया जाता है.

 

शरद पूर्णिमा – Sharad Purnima

आश्विन माह की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के रुप में मनाया जाता है. सुबह स्नानादि निवृत होकर अपने आराध्य देव अथवा कुल देवता की षोडशोपचार से पूजा की जाती है. इसके साथ ही भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय की पूजा भी इसी दिन की जाती है. इस दिन एक लकड़ी के पाटे को साफ कर के उस पर साफ वस्त्र बिछाकर जल से भरा लोटा रखा जाता है और एक गिलास में गेहूं भरकर रखते हैं. फिर रोली से स्वस्तिक बनाकर चावल के दाने तथा दक्षिणा रखते हैं. इसके बाद तिलक कर के हाथ में 13 दाने गेहूँ के लेकर कथा कही जाती है. कथा सुनने के बाद गेहूँ से भरा गिलास किसी ब्राह्मणी को देते हैं. हाथ के गेहूँ के दानों को लोटे के जल के साथ चन्द्रमा को अर्ध्य दिया जाता है.

इस दिन रात के समय गाय के दूध में गोघृत व चीनी अथवा मिस्री मिलाकर उसे चाँद की किरणों के नीचे रखा जाता है. बाद में इसे अपने आराध्य देव को अर्पण करके सभी लोगों में प्रसाद के रुप में बाँट देते हैं. रात्रि में भगवान का भजन व कीर्तन करना चाहिए. कई स्थानों पर इस दिन खीर बनाकर उसे चाँदनी रात में रात भर रखते हैं और सुबह उसका सेवन परिवार के सभी लोगों द्वारा किया जाता है.  

विवाह के बाद जो पूर्णिमा का व्रत रखना चाहते हैं उन्हें शरद पूर्णिमा से ही इस व्रत को आरंभ करना चाहिए. कार्तिक माह के व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही आरंभ करने का विधान है. यदि कोई शरद पूर्णिमा का व्रत रखता है तो 13 पूर्णिमाएँ होने के बाद ही उद्यापन करे. उद्यापन में एक चाँदी के लोटे में मेवा भरकर रोली, चावल से पूजकर सामर्थ्यानुसार दक्षिणा रखकर सास को देते हैं. यदि सास नही है तो सास समान किसी स्त्री को यह दें.

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शरद पूर्णिमा व्रत कथा – Story Of Sharad Purnima Fast

पुराने समय में एक जमींदार की दो बेटियाँ थी. एक बेटी इस व्रत को पूरा रखती थी तो दूसरी बेटी इस व्रत को अधूरा ही करती थी. विवाह के बाद उसकी जो भी संतान होती वह मर जाती थी. ऎसा बार-बार होने पर उसने पंडितों से इसका कारण पूछा. पंडितों ने कहा कि तुम्हारे अधूरे व्रत रखने के कारण ही तुम्हारी संतान जीवित नही रहती. यह सब जानने के बाद वह पूरा व्रत रखने लगी. कुछ दिन बाद फिर उसे लड़का हुआ लेकिन होने के तुरंत बाद ही मर भी गया. मृत लड़के को सुलाकर वह बड़ी बहन के पास गई और उसे बुलाकर लाई. बड़ी बहन को उसने मृत लड़के के पास बिठाया. उसके छूते ही लड़का जीवित हो गया और रोने लगा.

लड़के के जीवित होने पर छोटी बहन बहुत खुश हुई और कहने लगी कि तेरे भाग्य से ही यह जिन्दा हुआ है क्योंकि तू पूर्णिमा का यह व्रत पूरा रखती थी लेकिन मैंने इस व्रत को अधूरा ही रखा. इस कारण मेरे बच्चे मर जाते थे. इसके बाद उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो भी व्यक्ति इस पूर्णिमा का व्रत करें वह पूरा व्रत करें अन्यथा अधूरे व्रत से उन्हें दोष लगेगा.