भाद्रपद माह के व्रत तथा त्यौहार – भाग 4

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राधाष्टमी व्रत अथवा महालक्ष्मी पूजन – Radhashtami Fast Or Mahalakshmi Pujan

भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधा जी का जन्म हुआ था. इसलिए इस दिन को राधाष्टमी के रुप में मनाया जाता है. इस दिन राधा व कृष्ण की पूजा की जाती है. राधाजी को पंचामृत से स्नान कराकर उनका श्रृंगार किया जाता है और फिर भोग लगाया जाता है. उसके बाद फूल, धूप, दीप आदि से उनकी आरती की जाती है.

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श्रीराधा जी की आरती – Shriradha Ji Ki Arti

आरती राधा जी की कीजै। टेक

कृष्ण संग जो करे निवासा, कृष्ण करे जिन पर विश्वासा।

आरती वृषभानु लली की कीजै।

कृष्ण चंद्र की करी सहाई, मुँह में आनि रुप दिखलाई।

उस शक्ति की आरती कीजै। आरती श्रीराधा………

नन्द पुत्र से प्रीति बढ़ाई, जमुना तट पर रास रचाई।

आरती रास रचाई की कीजै। आरती श्रीराधा……..

प्रेम राह जिसने बतलाई, निर्गुण भक्ति नहिं अपनाई।

आरती राधा जी की कीजै। आरती राधा………..

दुनिया की जो रक्षा करती, भक्तजनों के दुख सब हरती।

आरती दुख हरणी जी की कीजै। आरती श्रीराधा……….

कृष्णचन्द्र ने प्रेम बढ़ाया, विपिन बीच में रास रचाया।

आरती कृष्णप्रिया की कीजै। आरती श्रीराधा………

दुनिया की जो जननि कहावे, निज पुत्रों की धीर बँधावे।

आरती जगत मात की कीजै। आरती श्रीराधा……..

निज पुत्रों के काज सँवारे, रनवीरा के कष्ट निवारे।

आरती विश्वमात की कीजै। आरती श्रीराधा……

महालक्ष्मी व्रत – Mahalakshmi Fast

इस व्रत को राधाष्टमी के दिन ही किया जाता है अर्थात भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के दिन से किया जाता है. इस व्रत को लगातार 16 दिनों तक रखा जाता है. सबसे पहले नीचे दिए मंत्र को पढ़कर संकल्प करें:-

करिष्येsहं महालक्ष्मी व्रतते त्वत्परायणा।

अविघ्नेन मे मातु समाप्तिं त्वत्प्रसादत:।।

अर्थात हे देवी! मैं आपकी सेवा में तत्पर होकर आपके इस महाव्रत का पलन करुँगा/करुँगी. आपकी कृपा से यह व्रत बिना विघ्नों के पूर्ण हो जाए.

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व्रत का विधान – Procedure Of Mahalakshmi Fast

सोलह तार का एक डोरा अथवा धागा लेकर उसमें सोलह ही गाँठे लगा लें. इसके बाद हल्दी की गाँठ को पीसकर उसका पीला रँग डोरे पर लगा लें जिससे यह पीला हो जाएगा. पीला होने के बाद इसे हाथ की कलाई पर बाँध लेते हैं. यह व्रत आश्विन माह की कृष्ण अष्टमी तक चलता है. जब व्रत पूरा हो जाए तब एक वस्त्र से मंडप बनाया जाता है जिसमें महालक्ष्मी जी की मूर्त्ति रखी जाती है और पंचामृत से स्नान कराया जाता है. उसके बाद सोलह श्रृंगार से पूजा की जाती है. रात में तारों को अर्ध्य देकर लक्ष्मी जी की प्रार्थना की जाती है.

व्रत करने वाले को ब्राह्मण को भोजन कराना चहिए. उनसे हवन कराकर खीर की आहुति देनी चाहिए. चंदन, अक्षत, दूब, तालपत्र, फूलमाला, लाल सूत, नारियल, सुपारी अत्था भिन्न-भिन्न पदार्थ किसी नए सूप में 16-16 की संख्या में रखते हैं. फिर दूसरे नए सूप से इन सभी को ढककर नीचे दिया मंत्र बोलते हैं :-

क्षीरोदार्णवसम्भूता लक्ष्मीश्चन्द्रसहोदरा ।

व्रतेनानेन सन्तुष्टा भव भर्तोवपुबल्लभा ।।

इसका अर्थ है “क्षीरसागर में प्रकट हुई लक्ष्मी, चन्द्रमा की बहन, श्रीविष्णुवल्लभ, महालक्ष्मी इस व्रत से सन्तुष्ट हों.”

इसके बाद 4 ब्राह्मण तथा 16 ब्राह्मणियों को भोजन कराना चाहिए और सामर्थ्यानुसार दक्षिणा भी देनी चाहिए. उसके बाद स्वयं भी भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए. जो लोग इस व्रत को करते हैं वह इस लोक का सुख भोगकर अन्त समय में लक्ष्मी लोक जाते हैं.

श्रीमहालक्ष्मी जी की आरती – Shrimahalakshmi Ji ki Arti

ॐ जय लक्ष्मी माता , मैया जय लक्ष्मी माता,

तुमको निस दिन सेवत, हरी, विष्णु दाता

ॐ जय लक्ष्मी माता

उमा राम ब्रह्माणी, तुम ही जग माता, मैया, तुम ही जग माता ,

सूर्यचंद्र माँ ध्यावत, नारद ऋषि गाता .

ॐ जय लक्ष्मी माता .

दुर्गा रूप निरंजनी, सुख सम्पति दाता, मैया सुख सम्पति दाता

जो कोई तुमको ध्यावत, रिद्धि सिद्दी धन पाता

ॐ जय लक्ष्मी माता.

जिस घर में तुम रहती, तह सब सुख आता,

मैया सब सुख आता, ताप पाप मिट जाता, मन नहीं घबराता.

ॐ जय लक्ष्मी माता.

धूप दीप फल मेवा, माँ स्वीकार करो,

मैया माँ स्वीकार करो, ज्ञान प्रकाश करो माँ, मोहा अज्ञान हरो.

ॐ जय लक्ष्मी माता.

महा लक्ष्मी जी की आरती, जो कोई जन गावे

मैया निस दिन जो गावे,

और आनंद समाता, पाप उतर जाता

ॐ जय लक्ष्मी माता.

रामदेव जी की जात – Ramadev Ji Ki Jaat

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रामदेव जी की जात भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को लगाई जाती है. यदि आपके आसापस रामदेव जी का मंदिर हो तो वहाँ जाना चाहिए अन्यथा अपने घर में ही रामदेव जी की जात देकर जल, रोली, चावल, चूरमा, नारियल तथा सामर्थ्यानुसार दक्षिणा रखकर सभी को टीका लगाकर धोक देनी चाहिए.

परिवर्तनी अथवा पद्मा एकादशी – Parivartani Or Padma Ekadashi

परिवर्तनी अथवा पद्मा एकादशी को भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है. यह लक्ष्मी जी का परम आह्लादकारी व्रत माना गया है. इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषशैया पर शयन करते हुए करवट बदलते हैं. इसलिए इसे करवटनी एकादशी भी कहा गया है. इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा करना अति उत्तम माना गया है क्योंकि इस दिन देवताओं ने अपने खोये राज्य को पुन: पाने के लिए महालक्ष्मी जी का ही पूजन किया था.

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परिवर्तनी अथवा पद्मा एकादशी की कथा – Story Of Parivartani Or Padma Ekadashi

त्रेता युग में प्रह्लाद का पौत्र राज्य करता था. वह ब्राह्मणों की बहुत सेवा करता था और विष्णु भगवान का उपासक था लेकिन इन्द्रादि देवताओं का शत्रु था. अपने बल के कारण उसने देवताओं को हराकर इन्द्र से उसका इन्द्रासन छीन लिया और देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया था. देवताओं को दुखी देख भगवान विष्णु ने वामन का वेष बनाया और बलि के द्वार पर आकर भिक्षा मांगकर कहा कि “हे राजन! मुझे केवल तीन पग भूमि दान में चाहिए.” राजा बलि ने कहा – “मैं आपको तीन लोक दे सकता हूँ, विराट रुप धारण कर आप नाप लो.”

वामन ने विराट रुप लिया और दो पग में पूरी पृथ्वी को नाप लिया और जब उन्होंने तीसरा पग उठाया तो राजा बलि ने अपना सिर उनके पग के नीचे रख दिया. प्रभु ने अपना चरण बलि के सिर पर रखकर दबाया तो वह पाताललोक में पहुंच गया. भगवान अपना चरण उठाने लगे तो बलि ने हाथ जोड़कर कहा – “इन्हें मैं मंदिर में रखूंगा.” इस पर भगवान बोले कि यदि तुम बामन एकादशी का पूर्ण विधि पूर्वक व्रत करोगे तभी मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करुंगा. तुम्हारे द्वार पर मैं कुटिया बनाकर रहूंगा.

आज्ञा के अनुसार राजा बलि ने बामन एकादशी का व्रत विधिपूर्वक किया. उसी समय से भगवान की एक प्रतिमा द्वारपाल के रुप में पाताल में और एक क्षीरसागर में निवास करने लगी.

वामन द्वादशी – Vaman Dwadashi

इसे भाद्रपद माह की शुक्ल द्वादशी को मनाते हैं. इस दिन स्वर्ण अथवा यज्ञोपवीत से वामन भगवान की प्रतिमा स्थापित कर सुवर्ण पात्र में अर्ध्य दान किया जाता है. फल व फूल चढ़ाकर व्रत करने का विधान है.

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वामन द्वादशी पर पूजन मंत्र – देवेश्वराय देवश्य, देव संभूतिकारिणे।

                                                          प्रभाते सर्व देवानां वामनाय नमो नम:।।

वामन द्वादशी पर अर्ध्य मंत्र – नमस्ते पद्मनाभाय नमस्ते जल:शायिने।

                                                         तुभ्यमर्ध्यं प्रयच्छामि वाल यामन अर्पिणे।।1।।

                                                        नम: शार्ड़ धनुर्पाणि पादये वामनाय च ।

                                                        यज्ञभुव फलदात्रे च वामनाय नमो नम:।।2।।

वामन द्वादशी पूजा की दूसरी विधि – Second Propcedure Of Vaman Dwadashi

वामन द्वादशी पूजा करने का एक दूसरा विधान भी है. इसके अनुसार भगवान वामन की सोने की मूर्त्ति के पास 52 पेड़े और उनके साथ 52 ही दक्षिणा रखकर पूजा की जाती है. भगवान वामन को भोग लगाकर सकोरों में दही, चावल, चीनी, शरबत और दक्षिणा रखकर सब ब्राह्मण को दान करते हैं. इस तरह से व्रत पूरा किया जाता है. इसी दिन उद्यापन भी किया जाता है. उद्यापन में ब्राह्मणों को एक माला, 2 गऊमुखी मण्डल, लाठी, गीता, छाता, आसन, फल, खड़ाऊ तथा दक्षिणा देते हैं. इस व्रत को करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

वामन द्वाद्शी की कथा – Story Of Vaman Dwadashi

बलि राक्षस ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था. उसका देवताओं के प्रति अत्याचार बढ़ने लगा तो एक दिन माता अदिति ने अपने पति महर्षि कश्यप को सारी बात बताई. पति की आज्ञा से अदिति ने एक विशेष अनुष्ठान किया. जिसके परिणामस्वरुप भगवान विष्णु ने वामन के रुप में राजा बलि के पास जाकर तीन पग भूमि दान में माँग ली.

दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने राजा बलि को मना भी किया लेकिन वचनबद्ध होने राजा बलि को तीन पग भूमि देनी पड़ी, जिसमें वामन बने विष्णु जी ने एक पग में पृथ्वी, दूसरे में स्वर्ग तथा ब्रह्मलोक नाप दिए. तीसरे पैर को बलि के सिर पर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया. देवमाता अदिति की कोख से भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को वामन अवतार होने से ही इसे वामन द्वादशी कहा जाता है.

गिरिराज व्रत – Giriraj Fast In Bhadrapad Month

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गौ गिरिराज व्रत भाद्रपद माह की शुक्ल त्रयोदशी को रखा जाता है. इस दिन गाय माता की पूजा की जाती है. इसके साथ ही लक्ष्मीनारायण भगवान की पूजा करन भी श्रेष्ठ माना गया है. एक मंडप बनाकर उसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा को स्नानादि कराकर उसमें रखा जाता है. उसके बाद एक मंत्र पढ़कर गायों को नमस्कार किया जाता है. मंत्र नीचे दिया जा रहा है :-

पंचगाव समुत्पन्ना: मथ्यमाने महोदधौ।

तेषां मध्ये तु या नन्दा तस्मै धेन्वे नमो नम:।।

अर्थात समुद्र मंथन के समय पाँच गाय पैदा हुई. उनके बीच में नन्दा नाम वाली गाय है. उस गाय को बारम्बार नमस्कार है. उसके बाद नीचे दिया मंत्र पढ़कर गाय ब्राह्मण को दान की जाती है.

गावो ममाग्रत: सन्तु गावो में सन्तु पृष्ठत:।

गावो में पार्श्वत: सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम।।

मंत्र का अर्थ है – गायें मेरे आगे पीछे रहें. गाय मेरी बगल में रहें और मैं गायों के बीच में निवास करता रहूँ. इसके बाद ब्राह्मण को दक्षिणा देकर आदर-सत्कार के साथ विदा करना चाहिए. जो इस व्रत को करता है वह सहस्त्रों अश्वमेघ और राजसूर्य यज्ञ के फल का भागी होता है.

अनन्त चतुर्दशी – Anant Chaturdashi

भाद्रपद माह की शुक्ल चतुर्दशी को अनन्त भगवान का व्रत रखकर इसे अनन्त चतुर्दशी के रुप में मनाया जाता है. इसके नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह दिन कभी ना अन्त होने वाले सृष्टि के कर्त्ता विष्णु जी की भक्ति के रुप में मनाया जाता है.

अनन्त सर्व नागानामधिप: सर्वकामद:।

सदा भूयात प्रसन्नोमे यक्तानामभयंकर:।।

उपरोक्त मंत्र द्वारा भगवान अनन्त की पूजा की जानी चाहिए. ये विष्णु जी कृष्ण का रूप हैं और शेषनाग काल रुप में विद्यमान हैं. इसीलिए दोनों की एक साथ पूजा की जाती है.

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अनन्त चतुर्दशी व्रत विधि – Procedure Of Anant Chaturdashi Fast

अनन्त चतुर्दशी का व्रत 2017 वर्ष में 5 सितंबर को मनाया जाएगा. इस दिन सुबह सवेरे स्नानदि से निवृत होकर कलश की स्थापना की जाती है. कलश पर अष्ट दल कमल के समान बने बर्तन में कुशा से बने अनन्त भगवान की स्थापना होती है. कलश के पास ही 14 गाँठे लगाकर हल्दी से रंगे कच्चे डोरे को रखा जाता है. इसके बाद गंध, फूल, धूप, अक्षत, दीप तथा नैवेद्य से पूजा की जाती है. अनन्त भगवान की पूजा करने के बाद शुद्ध मन से उनका स्मरण करते हुए शुद्ध अनन्त डोरे को दाईं भुजा में बांधते हैं. यह धागा अनन्त फल देने वाला होता है क्योंकि इसकी 14 गाँठों में चौदह लोकों की प्रतीक होती है जिनमें भगवान अनन्त बसते हैं.

अनन्त चतुर्दशी की कथा – Story Of Anant Chaturdashi Fast

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया और यज्ञ मंडप का निर्माण बहुत ही सुंदर व अद्भुत रुप से किया गया. उस मंडप में जल की जगह स्थल तो स्थल की जगह जल की भ्रांति पैदा होती थी. इससे दुर्योधन एक स्थल को देखकर जल कुण्ड में जा गिरे. द्रौपदी ने यह देखकर उनका उपहास किया और कहा कि अंधे की संतान भी अंधी होती है. इस कटु वचन से दुर्योधन बहुत आहत हुए और इस अपमान का बदला लेने के लिए उसने युधिष्ठिर को द्युत अर्थात जुआ खेलने के लिए बुलाया और छल से जीतकर पांडवों को बारह वर्ष का वनवास दे दिया.

वन में रहते उन्हें अनेकों कष्टों को सहना पड़ा. एक दिन वन में भगवान कृष्ण युधिष्ठिर से मिलने आए. युधिष्ठिर ने उन्हें सब हाल बताया और इस विपदा से बाहर निकलने का मार्ग भी पूछा. इस पर भगवान कृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने को कहा और कहा कि इसे करने से खोया हुआ राज्य भी मिल जाएगा. इस वार्तालाप के बाद श्रीकृष्ण जी युधिष्ठिर को एक कथा सुनाते है.

प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था उसकी एक कन्या थी जिसका नाम सुशीला था. जब कन्या बड़ी हुई तो ब्राह्मण ने उसका विवाह कौण्डिनय ऋषि से कर दिया. विवाह पश्चात कौण्डिनय ऋषि अपने आश्रम की ओर चल दिए. रास्ते में रात हो गई जिससे वह नदी के किनारे संध्या करने लगे. सुशीला के पूछने पर उन्होंने अनन्त व्रत का महत्व बता दिया. सुशीला ने वहीं व्रत का अनुष्ठान कर 14 गाँठों वाला डोरा अपने हाथ में बाँध लिया. फिर वह पति के पास आ गई. कौण्डिनय ऋषि ने सुशीला के हाथ में बँधे डोरे के बारे में पूछा तो सुशीला ने सारी बात बता दी. कौण्डिनय ऋषि सुशीला की बात से अप्रसन्न हो गए. उसके हाथ में बंधे डोरे को भी आग में डाल दिया. इससे अनन्त भगवान का अपमान हुआ जिससे परिणामस्वरुप कौण्डिनय ऋषि की सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई. सुशीला ने इसका कारण डोर का आग में जलाना बताया.

पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए ऋषि अनन्त भगवान की खोज में वन की ओर चले गए. वे भटकते-भटकते निराश होकर गिर पड़े और बेहोश हो गए. भगवान अनन्त ने उन्हें दर्शन देते हुए कहा कि मेरे अपमान के कारण ही तुम्हारी यह दशा हुई और विपत्तियाँ आई. लेकिन तुम्हारे पश्चाताप से मैं तुमसे अब प्रसन्न हूँ. अपने आश्रम में जाओ और 14 वर्षों तक विधि विधान से मेरा यह व्रत करो. इससे तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे. कौण्डिनय ऋषि ने वैसा ही किया और उनके सभी कष्ट दूर हो गए और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति भी हुई.

श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया जिससे पाण्डवों को महाभारत के युद्ध में जीत मिली.

उमा महेश्वर व्रत – Uma Maheshwar Fast

इस व्रत को भाद्रपद माह की पूर्णिमा को किया जाता है. स्नानादि से निवृत होकर भगवान शंकर की प्रतिमा को स्नान कराया जाता है और बिल्वपत्र व फूल आदि से पूजा-अर्चना की जाती है. रात्रि समय में मंदिर में जागरण किया जाता है. पूजा अर्चना के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दान-दक्षिणा देकर व्रत का समापन किया जाता है.

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उमा महेश्वर व्रत की कथा – Story Of Uma Maheshwar Fast

इस व्रत का उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता है. कहा जाता है कि एक बार महर्षि दुर्वासा शंकर जी के दर्शन कर के वापिस आ रहे थे. लौटते समय रास्ते में ही उनकी भेंट विष्णु जी से हो गई. महर्षि दुर्वासा ने शंकर जी की दी हुई विपल्वपत्र की माला विष्णु जी को दे दी. विष्णु जी ने इस माला को स्वयं ना पहनकर गरुड़ के गले में डाल दिया. यह देखकर दुर्वासा ऋषि अत्यंत क्रोध से भर गए और कहने लगे कि तुमने भगवान शंकर का अपमान किया है जिसके कारण लक्ष्मी जी तुम्हारे पास से चली जाएंगी. क्षीरसागर से भी हाथ धोना पड़ेगा और शेषनाग भी आपकी सहायता नहीं कर पाएंगे. इतना सुनकर विष्णु जी ने हाथ जोड़कर श्राप से मुक्ति का मार्ग पूछा.

दुर्वासा ऋषि ने तब कहा कि आप उमा-महेश्वर के व्रत रखो तभी तुम्हें ये वस्तुएँ मिल पाएंगी. विष्णु भगवान जी ने उमा-महेश्वर का व्रत किया और व्रत के प्रभाव से विष्णु जी को सभी खोई चीजें लक्ष्मी जी सहित मिल गई.

गाज का व्रत – Fast Of Gaaj

इस व्रत को भाद्रपद माह के किसी भी शुभ दिन को किया जाता है. यदि किसी के यहां पुत्र हुआ हो अथवा पुत्र का विवाह हुआ हो तब भाद्रपद माह में किसी शुभ दिन में इस गाज के व्रत का उद्यापन किया जाता है. सात जगह चार-चार पूड़ी और हलवा रखकर उस पर कपड़ा और रुपये रख देते हैं.

एक लोटे में जल भरा जाता है और उस पर सतिया बनाया जाता है. फिर सात दाने गेहूँ के हाथ में लेकर गाज की कहानी सुनी जाती है. इसके बाद सारी पूरियों को ओढ़नी पर रखकर सास के पैर छूकर सास को देते हैं. लोटे के जल को सूर्य भगवान को अर्पित कर देते हैं. उसके बाद सात ब्राह्मणियों को भोजन कराकर, दक्षिणा आदि देकर विदा कर के खुद भी भोजन करते हैं.

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गाज के व्रत की कथा – Story Of Gaaj Fast

प्राचीन काल में एक राजा की कोई संतान नहीं हुई. इससे राजा-रानी बहुत दुखी रहते थे. एक दिन रानी ने गाज माता से प्रार्थना की कि अगर मुझे संतान हो जाए तो मैं हलवे की कड़ाही करुंगी. इसके बाद रानी गर्भ से हुई और उनके यहाँ पुत्र पैदा हो गया लेकिन रानी गाज माता की हलवे की कड़ाही वाली बात को भूल गई. जिससे गाज माता बहुत नाराज हुई.

एक दिन राजा का बेटा पालने में सो रहा था तभी तेज आँधी आई और लड़के को पालने सहित उड़ा ले गई. पालने को गाज माता ने आँधी से एक भील-भीलनी के घर पहुंचा दिया. भील-भीलनी जब जंगल से घर लौटे तो पालने में एक लड़के को सोता हुआ पाया. भील-भीलनी भी संतानहीन थे. उन्होंने लड़के को भगवान का प्रसाद समझकर गोद में ले लिया और उनकी प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा. एक धोबी था जो राजा तथा भील दोनों के यहाँ ही कपड़े धोने का काम करता था. धोबी राजा के महल पहुंचा तो चारों ओर शोर था कि गाज माता लड़के को उठाकर ले गई.

यह सब सुनकर धोबी ने कहा कि आज ही एक लड़के को भील-भीलनी के घर सोता देखकर आया है. राजा ने भील को बुलाकर काह कि हम गाज माता का व्रत करते हैं जिससे गाज माता ने ही यह पुत्र दिया है. यह सुनकर रानी को अपनी भूल का अहसास हो जाता है. रानी गाज माता से प्रार्थना करती है कि मेरी भूल से ही यह सब हुआ है और वह पश्चाताप करने लगती है. वह कहती है कि हे गाज माता ! मेरी भूल को क्षमा करें, मैं आपकी कड़ाही अवश्य ही करुंगी. आप मेरे पुत्र को लौटा दीजिए. गाज माता प्रसन्न होकर रानी के पुत्र को लौटा देती है.

इसके बाद भील दंपत्ति का घर भी संपन्न हो जाता है और गाज माता की कृपा से वह भी एक पुत्र को पाते हैं. उसके बाद रानी गाज माता का श्रृंगार करती है और शुद्ध घी के हलवे की कड़ाही करती है. हे गाज माता ! जिस तरह से आपने रानी के पुत्र को लौटाया और भील-भीलनी को भी पुत्र दिया उसी तरह से माता सभी को धन-दौलत तथा पुत्र देना.

बिन्दायक जी की कथा – Story Of Bindayak Ji

गाज माता की कहानी के बाद बिन्दायक जी की कथा भी कहते हैं. एक मेंढ़क और एक मेंढ़की थे. मेंढ़की रोज बिन्दायक जी की कहानी कहती थी. इस पर एक दिन मेंढ़क ने कहा कि तू हर रोज पराये पुरुष का नाम क्यूँ लेती है. अब अगर दुबारा तूने ऎसा किया तो मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा.

एक दिन राजा की दासी आई तो उसने मेंढक-मेंढकी को पतीले में डालकर आग पर चढ़ा दिया. जब दोनों जलने लगे तब मेंढ़क ने मेंढ़की से कहा कि “यदि तुझे कष्ट हो रहा है तब अपने बिन्दायक जी से कह नहीं तो हम दोनों मर जाएंगे.” इस पर मेंढ़की ने सात बार बिन्दायक-बिन्दायक कहा और दो साँड लड़ते हुए वहाँ आए और पतीले को गिरा दिया. मेंढ़क व मेंढ़की दोनो बहते हुए तालाब में चले गए. हे गणपति महाराज जैसे आपने मेंढ़क और मेंढ़की का कष्ट काटा उसी तरह सभी के संकट काटना. कथा सुनने वाले के भी और कथा कहने वाले के कष्टों को भी काटना.   

भाद्रपद माह के व्रत व त्यौहार – भाग एक के लिए यहाँ क्लिक करें.

https://chanderprabha.com/2016/06/19/fasts-and-festivals-of-bhadrapad-month-part-1/