हिन्दु कैलेण्डर के अनुसार यह व्रत चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है. इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ व्रत रखती हैं. गणगौर शब्द में “गण” का अर्थ शिव से हैं और गौर का अर्थ पार्वती है. इस प्रकार दो शब्दों से मिलकर गणगौर शब्द बना है. भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती को और पार्वती जी ने तमाम स्त्रियों को सौभाग्यवर दिया था.
गणगौर की पूजा में मिट्टी की गौरी माँ अर्थात गौर बनाकर उस पर चूड़ी, महावर, सिन्दूर चढ़ाने का महत्व है. चन्दन, अक्षत, धूप-दीप तथा नैवेद्य से पूजा की जाती है और सुहाग सामग्री चढ़ाई जाती है. इसके बाद भोग लगाने का नियम है. जो भी स्त्री इस व्रत को करती है उसे गौर पर चढ़े सिन्दूर को अपनी माँग में लगाना चाहिए क्योंकि ऎसा करना बहुत ही शुभ माना जाता है.
इस व्रत में एक समय ही भोजन किया जाता है. गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित कहा गया है.
गणगौर व्रत की कथा – Story of Gangaur Fast
एक बार भगवान शंकर, नारद और पार्वती जी के साथ पृथ्वी का भ्रमण करने निकले. भ्रमण करते हुए वह तीनों एक गाँव में जा पहुंचे और उस दिन चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया थी. जब गाँव के लोगों को शंकर जी के आने की सूचना मिली तो धनी स्त्रियाँ उनके लिए नाना प्रकार के रुचिकर खाद्य पदार्थ बनाने में लग गई. दूसरी ओर निर्धन स्त्रियाँ जैसी बैठी थी वैसे ही थाल में हल्दी, चावल, जल ले जाकर शिव व पार्वती जी की पूजा-अर्चना में लग गई. इनकी अपार श्रद्धा-भक्ति देखकर पार्वती जी ने उन्हें पहचाना और भक्तिपूर्वक दी गई उनकी वस्तुओं को स्वीकार भी किया. इसके बाद पार्वती जी ने उन सबके ऊपर सुहागरूपी हल्दी छिड़क दी. मातेश्वरी गौरी माँ से आशीर्वाद तथा मंगल कामनाएँ लेकर वे सभी स्त्रियाँ अपने-अपने घर चली आई.
उनके जाने के बाद धनी स्त्रियाँ सोलह श्रृंगार, छप्पनों प्रकार के व्यंजन सोने के थाल में सजाकर आई. भगवान शंकर ने शंका व्यक्त करते हुए कहा – “पार्वती जी! तुमने सारा सुहाग प्रसाद तो साधारण स्त्रियों में बांट दिया, अब इन्हें क्या दोगी?” इस पर पार्वती जी ने कहा – आप कृपया ये बात छोड़ दें. उन साधारण स्त्रियों को ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है इसलिए उनका सुहाग धोती से रहेगा, लेकिन इन स्त्रियों को मैं अपनी अंगुली चीरकर रक्त सुहाग रस दूँगी जो मेरे समान ही सौभाग्यशाली बन जाएगी.
अस्तु, जब धनी स्त्रियाँ शिव और पार्वती जी का पूजन कर चुकी तो पार्वती जी ने अपनी अंगुली चीरकर उससे निकले रक्त को उनके ऊपर छिड़क दिया और कहा – तुम सभी वस्त्राभरणों का परित्याग कर मोह-माया से रहित होकर तन, मन, धन से पति सेवा करना. इस तरह से पार्वती जी को प्रणाम कर कुलीण स्त्रियाँ भी अपने घर लौट आईं और पति परायणा बन गई. पार्वती जी के द्वारा छिड़का हुआ खून जिसके ऊपर जैसा पड़ा था उसने वैसा ही सौभाग्य प्राप्त किया.
इसके पश्चात पार्वती जी ने पति की आज्ञा से नदी में जाकर स्नान किया और स्नान के पश्चात बालू के महादेव बनाकर उनका पूजन किया. भोग लगाया और प्रदक्षिणा की. प्रदक्षिणा कर दो कणों का प्रसाद खाया और मस्तक पर टीका लगाया. उसी समय उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती जी को वरदान दिया – आज के दिन जो भी स्त्री मेरी पूजा और तुम्हारा व्रत करेगी, उनके पति चिरंजीव रहेगें और अंत में उन्हें मोक्ष मिलेगा. भगवान शिव यह वरदान देकर अन्तर्धान हो गए.
इसके बाद पार्वती जी नदी तट से चलकर उस स्थान पर आई जहाँ वह पतिदेव शंकर तथा ऋषि नारद को छोड़कर गई थी. शिव जी ने देरी से आने का कारण पूछा तो इस पर पार्वती जी ने कहा – मेरे भाई-भाभी नदी के किनारे मिल गए थे और उन्होंने मुझे दूध-भात खाने का और ठहरने का आग्रह किया, इसी कारण मुझे देरी हो गई. ऎसा सुनकर अन्तर्यामी भगवान शिव खुद भी दूध-भात खाने चल दिए. पार्वती जी ने देखा कि पोल खुलने वाली है तब वह अधीर होकर पति से प्रार्थना करती हुई पीछे-पीछे चल दी. पार्वती जी ने जब नदी की ओर देखा तो एक सुंदर सा महल बना पाया. उसके अंदर प्[अर्वती जी के भाई-भाभी भी मौजूद थे. जब शंकर जी वहाँ पहुंचे तो उन लोगों ने सभी का बहुत आदर-सत्कार किया. दो दिन तक वह तीनों वहीं ठहरे रहे लेकिन तीसरे दिन देवी पार्वती सुबह ही वापिस चलने का आग्रह करने लगी लेकिन भगवान शंकर ने इसे ठुकरा दिया जिससे वह नाराज होकर अकेले ही जाने लगी. इस पर भगवान शंकर को भी उनका अनुसरण करना पड़ा. नारद जी भी साथ में ही थे.
तीनों लोग चलते-चलते काफी दूर निकल आए. शाम होने पर भगवान शिव ने बहाना बनाया कि मैं तो तुम्हारे मायके में अपनी माला ही भूल आया हूँ. पार्वती जी माला लाने को तैयार हुई लेकिन शिवजी ने आज्ञा नहीं दी. नारद जी माला लेने गए लेकिन वह देखते हैं कि उस स्थान पर तो कोई महल नहीं है और ना ही पार्वती जी के भाई-भाभी तथा अन्य किसी वस्तु का नामो निशान ही है. माला भी उन्हें कहीं नहीं दिखाई दी बल्कि घना अंधकार छाया हुआ था और नरसंहार करने वाले हिंसक पशु घूम रहे थे. यह भयानक वातावरण देखकर नारद बहुत चकित हुए. अचानक बिजली चमकने से वृक्ष पर टंगी माला उन्हें दिखाई दी. उसे ले भयभीत हुए वह जल्दी शंकर जी के पास पहुंच गए.
भगवान शंकर को नारद जी ने सारा वृतांत कह सुनाया. सब जानकर हंसते हुए भगवान शंकर ने इसका कारण नारद जी को बताया – हे मुनि! आपने जो कुछ भी देखा वह सब पार्वती की अनोखी माया का प्रतिफल है. वे अपने पार्थिव पूजन की बात को आपसे गुप्त रखना चाहती थी, इसलिए उन्होंने झूठा बहाना बनाया था. असत्य को सत्य बनाने के लिए उन्होंने अपने पतिव्रत धर्म की शक्ति से झूठे महल की रचना की. इस सच्चाई को सामने लाने के लिए ही मैने माला लाने के लिए तुम्हें दुबारा उसी स्थान पर भेजा. सभी कुछ जानकर नारद जी ने मुक्त कंठ से पार्वती जी की प्रशंसा की. पूजन को छिपाने का जहाँ तक सवाल है तो पूजा गुप्त रुप से ही करनी चाहिए.
पार्वती जी के अनुसार जो स्त्रियाँ इस दिन को गुप्त रुप से पति का पूजन कार्य संपादित करेगी उनकी कृपा से समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होगी. उनके पति भी चिरंजीवी रहेगें. जिस प्रकार पार्वती जी ने व्रत को छिपाकर किया था उसी परंपरा के अनुसार आज भी पूजन के अवसर पर पुरुष उपस्थित नहीं रहते हैं.
गणगौर पूजन का गीत – Song For Gangaur Worship
गौर-गौर गोमती, ईसर पूजे पार्वती।
पार्वती का आला-गीला, गौर का सोना का टीका,
टीका दे टमका दे रानी, व्रत करयो गौरा दे रानी।
करता-करता आस आयो, मास आयो।
खोरे-खाण्डे लाडू ल्यायो, लाडू ले वीरा न दीयो,
वीरो मने पाल दी, पाल को मैं बरत करयो।
सन-सन सोला कचौला, ईसर गौरा दोन्यू जोड़ा।
जोड़ जवारो गेहूँ ग्यारह, रानी पूजे राज ने।
मैं म्हाके सवाग ने, रानी को राज बढ़ते जाय, म्हाको सवाग बढ़तो जाय।
कीड़ी-कीड़ी कीड़ी ले, कीड़ी थारी जात है।
जात है गुजरात है गुजरात्यां रो पाणी, देदे थाम्बा ताणी,
ताणी में सिंघाड़ा, बाड़ी में भी जोड़ा।
म्हारो बाई एमल्यो, खेमल्यो, लाडू ल्यो पेड़ा ल्यो सेव ल्यो
सिंघाड़ाल्यो, झर झरती जलेबी ल्यो, हरी-हरी दोब ल्यो गणगौर पूजल्यो
(यह आठ बार या सोलह बार बोलना है)
अंत में – एक ल्यो, दो ल्यो, तीन ल्यो, चार ल्यो, पांच ल्यो, छ्: ल्यो, सात ल्यो, आठ ल्यो।
फिर हाथ में गेहूँ के आखे व जवारे लेकर गणगौर की कहानी कहनी या सुननी है.