महाभागवत – देवी पुराण – तीसवाँ अध्याय 

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इस अध्याय में देवताओं द्वारा देवी पार्वती की स्तुति, भगवान शंकर के तेज से षण्मुख कार्तिकेय का प्रादुर्भाव, देवताओं के हर्षोल्लास का वर्णन है. 

श्रीमहादेवजी बोले – मुने ! तदनन्तर देवतागण अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर जगत के प्राणियों में लज्जारूप से विराजमान जगदम्बा पार्वती का स्तवन करते हुए इस प्रकार कहने लगे – ।।1।।

ब्रह्मादि देवताओं ने कहा – माता ! शिवसुन्दरी ! आप तीनों लोकों की माता हैं और शिवजी पिता हैं तथा ये सभी देवतागण आपके बालक हैं. अपने को आपका शिशु मानने के कारण देवताओं को आपसे कोई भी भय नहीं है. देवि ! आपकी जय हो. गौरि ! आप तीनों लोकों में लज्जारूप से व्याप्त हैं, अत: पृथ्वी की रक्षा करें और हम लोगों पर प्रसन्न हों।।2।। विश्वजननी ! आप सर्वात्मा हैं और आप तीनों गुणों से रहित ब्रह्म हैं. अहो, अपने गुणों के वशीभूत होकर आप ही स्त्री तथा पुरुष का स्वरूप धारण करके संसार में इस प्रकार की क्रीडा करती हैं और लोग आप जगज्जननी को कामदेव के विनाशक परमेश्वर शिव की रमणी कहते हैं।।3।। तीनों लोकों को सम्मोहित करने वाली शिवे ! आप अपनी इच्छा के अनुसार अपने अंश से कभी पुरूषरूप में शिव बन जाती हैं और स्वयं स्त्रीरूप में विद्यमान रहकर उनके साथ विहार करती हैं. अम्बिके ! वे ही आप अपनी लीला से कभी पुरुष रूप में कृष्ण का रूप धारण कर लेती हैं और उनमें शिव की परिभावना कर स्वयं कृष्ण की पटरानी राधा बनकर उनके साथ रमण करती हैं।।4।।

जगत की रक्षा करने वाली देवेश्वरी ! माता ! प्रसन्न होइए और पृथ्वी की रक्षा के लिए अब इस लीला विलास से विरत हो जाइए।।5।।

श्रीमहादेवजी बोले – मुने ! इस प्रकार देवताओं के स्तुति करने पर भगवती पार्वती उठ खड़ी हुई।।6।। इसके बाद उनके अपने तेज से भयंकर, महान बल तथा पराक्रमशाली भैरव के रूप में एक परम पुरूष उत्पन्न हुआ. तब भगवती पार्वती ने उत्पन्न हुए उस पुरूष से कहा – पुत्र ! तुम मेरे पुर के दरवाजे पर विराजमान रहो और निरन्तर द्वार की रखवाली करो।।7-8।।

ऎसा कहकर तीनों लोकों की माता पार्वती जी ने रत्नों से निर्मित प्राकार (परकोटे) एवं प्रवेश द्वार वाले एक सुरम्य मन्दिर में प्रवेश किया।।9।। मुनिश्रेष्ठ ! शम्भु ने भी जगत तथा देवताओं के कल्याण के लिए अपने उत्तम तेज को छोड़ने का मन बनाया।।10।।  तब पद्मयोनि ब्रह्माजी ने उन महेश्वर को अपना तेज छोड़ने की इच्छावाला जानकर देवताओं का कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से वायुदेव से कहा – ।।11।।

ब्रह्माजी बोले – पवनदेव ! तुम तारकासुर के वध के लिए शिव के पुत्र के जन्म के उद्देश्य से एक कार्य सम्पादित करके जगत का परम कल्याण करो. जब भगवान शिव पृथ्वीतल पर अपने रेत का त्याग करेंगे, तब तुम उसे वेगपूर्वक कमलिनी के गर्भ में पहुँचा देना।।12-13।।

श्रीमहादेवजी बोले – मुनिश्रेष्ठ ! उनका (ब्रह्मा का) यह वचन सुनकर वेगशालियों में श्रेष्ठ पवनदेव तेज ध्वनि के साथ अत्यन्त वेगपूर्वक प्रवाहित होने लगे।।14।।

तदनन्तर भगवान शम्भु ने रजताद्रि के समान अपने रेत को अग्नि के सिर पर छोड़ दिया और वह अग्नि के लिये भी असह्य हो गया. तत्पश्चात उन अग्निदेव ने महान ओजस्वी उस तेजोराशि को देवाधिदेव शिव के शरकानन में सहसा छोड़ दिया. उसके आधे भाग को वायुदेव ने बलपूर्वक छ: भागों में विभक्त करके उसे अलग-अलग छ: कृत्तिकाओं में स्थापित कर दिया।।15-17।।

मुनिश्रेष्ठ ! उस तेज ने उन कृत्तिकाओं के शोणित-संसर्ग को प्राप्त किया और उसके बाद उनके गर्भाशय में प्रवेश किया. जो रेत अग्नि में छोड़ा गया था, वह स्वर्ण हो गया और जो शरकानन में पड़ा था, वह आज भी दिखायी देता है. मुनिश्रेष्ठ ! वायु के द्वारा ले जाकर कृत्तिकाओं में स्थापित किये गये रेत को जब वे धारण करने में समर्थ न हो सकीं तब मुनिश्रेष्ठ ! उन सबने उस रेत का त्याग कर दिया. तब उन भयंकर चित्तवाली कृत्तिकाओं ने उस शोणित (रजस) – मिश्रित रेत को एकत्र कर काष्ठकोश में रख करके गंगाजी में छोड़ दिया और उसे प्रजापति ने देखा।।18-22।।

तदनन्तर प्रफुल्लित हृदय तथा प्रसन्न मन वाले पितामह ब्रह्माजी उस काष्ठकोश को लेकर पुन: अपने स्थान को चले गये।।23।। 

उस काष्ठकोश के मध्य भाग में बारह भुजाओं, बारह नेत्रों और छ: मुखों से युक्त एक परम पुरूष उत्पन्न हुआ. उस ऎश्वर्य संपन्न परम पुरुष का शरीर स्वर्ण के समान कान्तियुक्त था, मुख विकसित कमल के समान थीं।।24-25।।

मुनिश्रेष्ठ ! उस काष्ठकोश के मध्य से पार्वती पुत्र देवी के उस महान ओजस्वी पुत्र की उत्पत्ति जानकर ब्रह्माजी ने उसका भेदन किया और वहाँ उस पुत्र को देखा. इस प्रकार आश्विन माह की पूर्णिमा तिथि को ब्रह्मलोक में तारकासुर के शत्रु महाबली शिवपुत्र का जन्म हुआ. उस शिवपुत्र के उत्पन्न होने पर लोकपितामह ब्रह्मा ने परम प्रसन्न होकर महान उत्सव कराया।।26-28½।। उस समय तारक नामक असुर के मस्तक से उसका उज्जवल मुकुट और कुण्डल पृथ्वीतल पर गिर पड़ा एवं उसका शरीर काँप गया. महान बल तथा पराक्रम वाले पार्वती पुत्र के उत्पन्न होने पर सभी दिशाएँ प्रकाश से भर गयीं और देवता प्रसन्न मन वाले हो गये।।29-30½।। 

ब्रह्मलोक में पार्वती के पुत्र को उत्पन्न हुआ जानकर भगवान नारायण वहाँ आकर आदरपूर्वक उसे देखा. इसी तरह इन्द्र आदि अन्य प्रधान देवता तथा सभी ऋषिगण भी उमापुत्र का जन्म सुनकर वहाँ आ गये. महामुने ! तब प्रसन्नचित्त ब्रह्माजी ने समस्त देवताओं के साथ मिलकर इस पार्वती पुत्र के नाम रखे।।31-34।।

ब्रह्माजी बोले – शिवजी का यह कृत्तिकाओं के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण तीनों लोकों में “कार्तिकेय” इस नाम से विख्यात होगा. चूँकि वे कृत्तिकाएँ संख्या में छ: कही गई हैं, अत: संसार में इसका नाम “षाण्मातुर” भी होगा. उन कृत्तिकाओं में क्षरित रेत संघ से इसकी उत्पत्ति हुई है. इसलिए यह लोक में “स्कन्द” नाम से भी विख्यात होगा. युद्धक्षेत्र में यह तारकासुर का संहार करेगा, इसलिए लोक में इसका “तारकवैरी” यह नाम प्रसिद्ध होगा।।35-38।। 

श्रीमहादेवजी बोले – इस प्रकार उन लोकपितामह ब्रह्माजी ने बालक के ये नाम रखकर सभी देवतागणों को साथ लेकर महान उत्सव किया।।39।। मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर तारकासुर के द्वारा पीड़ित सभी देवता अपने-अपने कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से पद्मयोनि ब्रह्माजी से कहने लगे – ।।40।।

देवताओं ने कहा – प्रभो ! तीनों लोकों के नाथ ! ये शिवपुत्र कार्तिकेय जब तक स्वयं संग्राम में तारकासुर का वध नहीं कर देते तब तक आप इनके माता-पिता से इनका परिचय मत कराइये, क्योंकि यदि पुत्र स्नेह के वशीभूत होकर भगवती पार्वती अथवा भगवान सदाशिव अपने पुत्र को रमण वन में भेजना नहीं चाहेंगे तब हम लोग क्या करेंगे? अत: प्रभो ! संग्राम में तारक नामक दैत्य का शीघ्र संहार हो जाने के उपरान्त आप इस पुत्र के जन्म के विषय में उन दोनों से बता दीजिएगा।।41-44।। 

श्रीमहादेवजी बोले – [मुने !] इस प्रकार भगवती पार्वती से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र षडानन ब्रह्मपुर में रहने लगे और सभी देवता अपने-अपने स्थान को चले गये।।45।। मुनिश्रेष्ठ ! तारकासुर का वध करने वाले महाबाहु भगवती पुत्र कार्तिकेय का जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ – यह सब मैंने आपसे कह दिया।।46।।

जो लोग गिरिजापुत्र के जन्म के प्रसंग से युक्त इस अध्याय को भक्तिपूर्वक पढ़ाते हैं, पढ़ते हैं तथा सुनते हैं, उन्हें पाप से कोई भय नहीं रह जाता है. जिसके पास पुत्र नहीं है, वह गिरिजा पुत्र की उत्पत्ति के प्रसँग वाले इस अध्याय को समाहित चित्त से सुनकर उसी गिरिजापुत्र कार्तिकेय के तुल्य सभी सद्गुणों से युक्त सदाचारी पुत्र उत्पन्न करने में समर्थ होता है।।47-48।।

।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “कार्तिकेयजन्मवर्णन” नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।30।।