इस अध्याय में शिव-पार्वती का एकान्त-विहार है, पृथ्वी देवी का गोरूप धारण कर देवताओं के साथ ब्रह्माजी के पास जाना, ब्रह्माजी का उन्हें आश्वस्त करना और कुमार कार्तिकेय के प्रादुर्भाव होने की बात बताने का वर्णन है.
श्रीमहादेव जी बोले – [मुने !] पार्वती को प्राप्त करने के उद्देश्य से की गई तपस्या के क्लेश का दिन-रात स्मरण करके महादेवजी उन पार्वती में प्रेमासक्त हो गये।।1।। भगवती के वचन को सुनने में ही अपने कानों को निरन्तर नियुक्त कर दिया था. आँखें उनके रूप्-दर्शन में समर्पित थीं, उनके मन को प्रसन्न करने के लिए उनके चित्त की सारी चेष्टाएँ निरन्तर नियोज्य थीं. इस प्रकार पार्वती में प्रेमासक्त भगवान ने उनमें प्रीति उत्पन्न की।।2½।।
एक समय की बात है – महेश्वर ने वन से पुष्प लाकर एक सुन्दर माला बनायी और उसे कपूर तथा अगरु से विलेपित करके पार्वती के गले में डाल दी. पुन: प्रेमपूर्वक भगवान महादेव ने पुत्र प्राप्ति की कामना से पार्वती के प्रति अपने मन में आदरपूर्वक सहधर्मिता की भावना धारण की।।3-4½।।
भगवान शिव ने नन्दी से कहा – “तुम सभी प्रमथगणों के साथ पुर की इस प्रकार रखवाली करो कि मेरी आज्ञा के बिना यहाँ कोई भी प्राणी न आ सके, चाहे वह कोई देवता हो अथवा देववन्द्य ही क्यों न हो”।।5-6।।
यह सुनकर देवाधिदेव की आज्ञा से वे नन्दी समस्त प्रमथगणों के साथ उस पुर के द्वार की रक्षा में तत्पर हो गये।।7।।
तदनन्तर भगवान शिव पार्वती के साथ दीर्घकाल तक विहार करते रहे. उस समय स्नेहयुक्त मनवाले शिव को प्रेम के आनन्द में निमग्न रहने के कारण न तो दिन अथवा रात का भान ही रहा और न शान्ति ही मिली।।810।।
मुनिश्रेष्ठ ! उनके पैर के प्रहार से पीड़ित हुई पृथ्वी गाय का रूप धारण करके सूर्य के पास गई और आँखों में आँसू भरकर रोते हुए उसने महेश के पादप्रहार से उत्पन्न हुए अपने प्रति किये गये उपद्रव के विषय में सूर्य से इस प्रकार निवेदन किया -।।11-12।।
दिवाकर ! जगत के स्वामी भगवान शिव हिमालय के शिखर पर पार्वती के साथ दीर्घकाल से लीला-विहार में स्थित हैं. शिव तथा शक्ति के भार से दिन-रात व्यथित मैं अब उसे सहन करने में असमर्थ हूँ, अत: आप मेरे कष्ट के निवारणार्थ शीघ्र ही कोई उपाय बताइये. पार्वती को प्राप्त करके उन जगत्पति महादेव को न तो रात का ज्ञान रह गया है और न दिन का. वे महेश क्षण भर के लिये भी पार्वती से विरत नहीं हो रहे हैं, तथापि उन्हें शान्ति नहीं मिल रही है।।13-16।।
श्रीमहादेवजी बोले – इस प्रकार पृथ्वी का वचन सुनकर भगवान सूर्य उस पृथ्वी के साथ वहाँ गये, जहाँ इन्द्र आदि प्रधान देवता विद्यमान थे. वहाँ पर उन्होंने उनसे वह सब घटना बतायी, जैसा पृथ्वी ने उनसे निवेदन किया था. महामुने ! उसे सुनकर सभी देवतागण पृथ्वी को साथ लेकर तत्काल ब्रह्माजी के पास पहुँचे।।17-18½।।
मुनिश्रेष्ठ ! तत्पश्चात उन देवताओं ने गोरूप धारण की हुई पृथ्वी को आगे करके जगत के पति उन ब्रह्माजी से कहा – ब्रह्मन् ! सुनिए, महादेव हिमालय के शिखर पर जगद्धात्री पार्वती के साथ दीर्घकाल से विहार कर रहे हैं फिर भी उन्हें शान्ति नहीं मिल रही है. इस प्रकार वे महेश्वर किसी भी प्रकार धैर्य धारण नहीं कर पा रहे हैं।।19-22।। शिव तथा शक्ति के भार से पीड़ित यह वसुन्धरा रसातल जाने की स्थिति बनने पर हम लोगों के पास आयी है. त्रिजगत्पते ! इस स्थिति में क्या किया जाए, वह हमें बताइये।।23-24।।
उनका यह वचन सुनकर लोकपितामाह ब्रह्मा ने देवताओं को बार-बार सान्त्वना देकर उनसे कहा – वे महेश्वर देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए ही लीला-विहार में संलग्न हैं. इससे स्खलित तेज के प्रभाव से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही तारकासुर का संहारक होगा, इसमें संशय नहीं है. किंतु यदि पार्वती के गर्भ से शम्भु का पुत्र उत्पन्न होगा तो वह देवता तथा असुर – इन दोनों का विनाश कर देगा. उसके इस पराक्रम को संसार भी सहन नहीं कर पाएगा. अत: देवतागण ! जिस किसी भी तरह से सम्भव हो, शम्भु के इस रेत से किसी अन्य स्थान में एक पुत्र उत्पन्न हो – वैसी चेष्टा आप लोग करें।।25-28½।।
मैं वहीं चल रहा हूँ, जहाँ वे महेश्वर विराजमान हैं और पार्वती के साथ स्थित हैं. शम्भु के संसर्ग से विलग रहने के लिए महेश्वरी पार्वती से प्रार्थना करते हुए आप सभी लोग भी मेरे साथ वहाँ तत्काल चलिए।।29-31।।
नारद ! देवताओं से ऎसा कहकर ब्रह्माजी तत्काल वहाँ के लिए प्रस्थित हो गये, जहाँ देवेश्वर शिव उमा के साथ विहार कर रहे थे।।32।। महामते ! तत्पश्चात सभी देवता भी वहाँ पहुँच गये और उन्होंने पार्वती तथा शिवजी को आनन्द में निमग्न देखा।।33।।
उनके आ जाने पर भी भगवान शिव विरत नहीं हुए, पार्वती देवी भी संकुचित नहीं हुई और उन्होंने भगवान महेश्वर का परित्याग नहीं किया।।34-35।।
।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “श्रीशिवपार्वतीविहारवर्णन” नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।29।।