महाभागवत – देवी पुराण – बाईसवाँ अध्याय 

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इस अध्याय में ब्रह्माजी का तारकासुर से पीड़ित देवताओं को भगवान शंकर के पुत्र द्वारा उसके वध की बात बतलाना है, इन्द्र द्वारा भगवान शंकर की तपस्या को भंग करने के लिए कामदेव को हिमालय पर भेजना है और भगवान शंकर की नेत्राग्नि से उसका भस्म होना है. 

श्रीमहादेवजी बोले – महामुने ! तदनन्तर अति बुद्धिमान गिरिराज ने भगवान शंकर के समक्ष दण्डवत प्रणाम करके विनयपूर्वक कहा – ।।1।। 

हिमालय बोले – भगवन् शिव ! सेवा-सुश्रुषा करने वाली मेरी यह पुत्री आपके समीप में रहकर अपनी सखियों के साथ नित्य फल, पुष्प, जल आदि से आपके इच्छानुसार सेवा करेगी।।2-3।।

श्रीमहादेवजी बोले – तदनन्तर बुद्धिमान महायोगी प्रसन्नचित्त भगवान शम्भु ने अपने ज्ञान चक्षु से उनको तत्त्वत: जानकर गिरिराज से स्वीकृतिसूचक कल्याण वचन कहा।।4।। मुने ! इस प्रकार अपनी पुत्री को महायोगी भगवान शंकर के समीप छोड़कर गिरिराज पुन: अपने उत्तम स्थान को चले गये।।5।। इस प्रकार भगवान शंकर के द्वारा तपस्यापूर्वक जिन देवी की स्वयं प्रार्थना की गयी थी, भक्तों पर कृपा करने वाली वे देवी उस वन में स्थित हो गयीं।।6।। भगवान शंकर ने ध्यान करते हुए अपने हृदय में स्थित उन महेश्वरी को उसुकतापूर्वक सहसा भार्या के रूप में मन से स्वीकार नहीं किया।।7।। 

महामुने ! महादेवी भगवती के मन में भगवान शंकर को मोहित करने की इच्छा हुई. इसके निमित्त देवताओं के द्वारा जो उपाय किया गया, उसे सुनिये।।8।। तारकासुर से पीड़ित होकर सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और प्रणिपातपूर्वक प्रणाम करके जगत के स्वामी उन ब्रह्माजी से बोले – ।।9।। त्रिलोकेश ब्रह्मन् ! सुनिए, असुरों में श्रेष्ठ तारकासुर नामक राक्षस युद्ध में हम सभी देवताओं को परास्त करके स्वयं इन्द्र बन गया है. आपका दिया हुआ वरदान पाकर गर्वित उस राक्षस तारकासुर ने सभी देवों को राज्यविहीन एवं भार्याविहीन कर दिया है. इन्द्र, चन्द्रमा, वरुण, यम, अग्नि, निऋति, वायुदेव और कुबेर – ये सभी उसके आज्ञाकारी बने हुए हैं. हम लोग जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ वह पहुँच जाता है. यहाँ तक कि पाताललोक में भी जाकर वह प्रजाओं को निरन्तर पीड़ित करता रहता है. इस प्रकार उस बलवान के द्वारा तीनों लोकों में सब कुछ हरण कर लिया गया है. आपके बिना हम लोग इसका कोई उपाय नहीं देख रहे हैं. त्रिजगत्पते ! आप उसके वध का उपाय सोचिए अथवा हम लोगों के रहने के लिए कोई स्थान बनाइए. त्रिजगत्पते ! आप ही सृष्टि के कर्त्ता हैं, जो उचित लगे वही कीजिए।।10-15।। 

ब्रह्माजी बोले – मेरे ही वरदान से तारकासुर बलवान हुआ है. इसलिए युद्ध में उसको अमरने का मेरा प्रयत्न उचित नहीं है. आप लोगों का संरक्षण भी मेरा कर्त्तव्य ही है, किंतु मैं समुचित रूप से उसे रोकने में समर्थ नहीं हूँ, क्योंकि उसने मुझे अपनी तपस्या द्वारा प्रसन्न कर रखा है. देव श्रेष्ठों मैं एक उपाय बतलाता हूँ, आप लोग ध्यान से सुनें. उस तारकासुर को न भगवान विष्णु मार सकते हैं, न भगवान शंकर, न मैं और न ही आप लोग. भगवान शंकर के पुत्र को छोड़कर उसे मारने वाला अन्य कोई नहीं है. आप लोग शीघ्र वैसा उपाय सोचिए जिससे कि भगवान शंकर तपस्या को छोड़कर शीघ्र विवाह कर लें।।16-19½।। 

प्रकृति स्वयं अपनी लीला से गिरिराज के घर में उत्पन्न हुई हैं. वे भी वन में भगवान शंकर के सामने विद्यमान हैं. वे भगवान शंकर उनको पत्नी रूप में अवश्य ही स्वीकार कर लेंगे. इसलिए देवगणों ! जिस प्रकार शीघ्र ही भगवान शंकर का ध्यान भंग हो जाए, आप सभी भगवान शंकर को मोहित करने के लिए उस प्रकार का ही प्रयत्न करें ।।20-22।। 

श्रीमहादेवजी बोले – महामुने ! उस परमात्मा ब्रह्मा की इस प्रकार की बात को सुनकर सभी देवता अपने-अपने स्थान को चले गये. पितामह ब्रह्मा भी सभी देवताओं से इस प्रकार की बात कहकर अचानक उस तारकासुर के घर पहुँचे और उससे इस प्रकार बोले – ।।23-24।। 

ब्रह्माजी बोले – तारक ! तुम समस्त लोकों का शासन करो. उसके लिए तुमने तपस्या की थी और मैंने भी वही वरदान दिया था. तुमने स्वर्ग में निवास करने के लिए प्रार्थना नहीं की थी और मैंने भी नहीं कहा था कि तुम अधिक दिनों तक स्वर्ग में निवास करो. इसलिए महासुर ! तुम स्वर्ग छोड़कर मृत्युलोक में रहकर समस्त लोकों पर शासन करो. मेरी आज्ञा का उल्लंघन मत करो।।25-27।। 

महादेवजी बोले – पितामह ब्रह्मा के द्वारा इस प्रकार कहने पर महान बल एवं पराक्रमशाली वह देवशत्रु तारकासुर स्वर्गलोक छोड़कर मृत्युलोक में पहुँच गया. महामुने ! तब उससे पीड़ित इन्द्रादि प्रमुख देवता वहीं आकर प्रतिदिन उसको उपहारद्रव्य देते रहे. इस प्रकार पृथ्वी पर रहते हुए अत्याचारी, महान बल एवं पराक्रमशाली वह दुर्धर्ष दैत्य सभी देवताओं को संत्रस्त करने लगा।।28-30।। तदनन्तर वे सभी देवता भगवान शंकर को मोहित करने के लिए एकान्त स्थान पर विचार करने हेतु बैठे. इन्द्र ने विनयपूर्वक बुद्धिमान देवगुरु बृहस्पति को सम्बोधित करते हुए देवताओं की सभा में उनसे सभी के कल्याण का उपाय पूछा।।31-32।।

इन्द्र बोले – भगवन् गुरुदेव ! दानवों में श्रेष्ठ दुरात्मा तारकासुर की मृत्यु ब्रह्माजी ने भगवान शंकर के पुत्र द्वारा निर्धारित की है. वे भगवान विश्वेश्वर स्वयं संसार से विमुख होकर योग में रत हैं, फिर कौन उनके सामने जाकर बोलेगा कि परमेश्वर ! भार्या ग्रहण कीजिए. पितामह ब्रह्माजी ने उनको मोहित करने के लिए यत्न करने को कहा है. मुझे उसका कोई उपाय नहीं दीखता फिर कौन उन्हें सम्मोहित करेगा?।।33-35।।

बृहस्पतिजी बोले – महाराज ! महादेवजी को मोहित करने के लिए एक उपाय है, जिससे भगवान शंकर का ध्यान शीघ्र ही भंग हो जाएगा. प्रजापति दक्ष की पुत्री जो स्वयं भगवान शंकर की गृहिणी रह चुकी हैं, वे ही इस समय मेनका के गर्भ से गिरिराज की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई हैं. महामते ! उनके ही परम रूप का ध्यान करके उनको पत्नी रूप में प्राप्त करने के लिए भगवान विश्वनाथ तपस्या कर रहे हैं, नहीं तो योगियों के द्वारा ध्यानगम्य उन सर्वथा विजितात्मा देवाधिदेव के लिए इस उग्र तपस्या का और क्या प्रयोजन है?।।36-39।। 

भक्तों का कल्याण करने वाली वे देवी भी प्रसन्न होकर भगवान विश्वनाथ के निकट चली आयी हैं और निरन्तर वहीं रह रही हैं. चिरकाल तक योगचिन्तन करने से भगवान विश्वनाथ के काम आदि भाव नष्ट हो गये हैं. इसी कारण वे शम्भु उन पार्वती को कभी भी ग्रहण नहीं करते हैं. इसलिए सभी लोकों को मोहित करने वाले पुष्पधन्वा कामदेव को बुलाकर भगवान विश्वनाथ का ध्यान भंग करने के लिए नियुक्त कीजिए. उसके बाण से बिद्ध होकर भगवान शंकर तपस्या से विमुख होकर पुन: पार्वती जी को शीघ्र ही पत्नी रूप में स्वीकार कर लेंगे।।40-43।।

श्रीमहादेवजी बोले – देवगुरु बृहस्पति के ऎसा कहने पर अति बुद्धिमान देवराज इन्द्र ने पुष्पधन्वा कामदेव को बुलाकर यह वचन कहा – ।।44।।

इन्द्र बोले – कामदेव ! आप देवता, गन्धर्व, मनुष्य, किन्नर, राक्षस तथा अन्य सभी जन्तुओं के हृदय में प्रेमात्मक वृत्ति को बढ़ाने वाले हैं. आप मेरी आज्ञा से तीनों लोकों में प्रीतिविवर्धक मेरा एक महान कार्य करके इस सम्पूर्ण संसार की रक्षा कीजिए।।45-46।।

कामदेव बोले – देवराज ! हम सभी आपकी आज्ञा का पालन करने वाले हैं. कहिए, आपका कौन-सा कार्य है? भयानक तथा अत्यन्त कठिन होने पर भी मैं उसे करूँगा. आपका वज्र तथा भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र भी जिस वक्ष:स्थल को वेध नहीं पाता, उसको मेरे पाँच पुष्पबाण पल भर में छिन्न-भिन्न कर देते हैं. इस प्रकार के मेरे ये पाँच बाण सार्थक नाम वाले हैं तथा मेरा पुष्पमय धनुष भी समस्त ब्रह्माण्ड को क्षुब्ध करने में समर्थ हैं. वसन्त-ऋतु मेरा मन्त्री, मलय पर्वत से चलने वाला पवन मेरा सारथि, चन्द्रमा मित्र और तीनों लोकों को मोहित करने वाली रति मेरी पत्नी हैं. इन सहायकों को पाकर मैं किसका क्या नहीं कर सकता? यहाँ तक कि यदि आप चाहें तो तपस्या में लगे हुए जितेन्द्रिय भगवान विश्वनाथ को भी आधे क्षण में मोहित कर दूँ।।47-52।।

इन्द्र बोले – जिस उद्देश्य से आपको बुलाया गया है, उसे आपने स्वयं ही कह दिया. प्राय: बुद्धिमान व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के कहने की अपेक्षा नहीं रखते. तारकासुर अपने पराक्रम से सम्पूर्ण देवताओं को दिन-रात पीड़ित कर रहा है. ये बात आप भी जानते हैं, फिर आपसे मैं क्या कहूँ? उसकी मृत्यु ब्रह्माजी ने भगवान शिव के महापराक्रमी पुत्र के हाथ से ही सुनिश्चित की है, अन्य किसी के हाथ से नहीं।।53-55।।

सुना जाता है कि हमेशा संसार से विमुख रहने वाले महायोगी, जितेन्द्रिय भगवान शंकर हिमालय के शिखर पर तपस्या कर रहे हैं. सनातनी आदिशक्ति जो पहले प्रजापति दक्ष की पुत्री तथा भगवान शंकर की पत्नी थीं वे ही हिमालय की पुत्री के रूप में अवतरित हुई हैं. स्त्रीरत्नस्वरूपा अति सुन्दरी, नवयौवना वे देवी भी हिमालय के उसी शिखर पर भगवान शंकर के समीप ही आजकल स्थित हैं. भगवान विश्वनाथ उनको कभी मन से नहीं चाहते. इसलिए आप तपोनिष्ठ भगवान शंकर को मेरी आज्ञा से शीघ्र ही मोहित करें।।56-59।। 

जिस प्रकार वे भगवान वृषध्वज सती के साथ प्रीतिपूर्वक रमण करते थे, उसी प्रकार तपस्या को छोड़कर हिमालय पुत्री गिरिजा के साथ रमण करें. कुसुमायुध ! आप संसार की भलाई के लिए वही उपाय करें ताकि आपकी कृपा से सभी देव पीड़ामुक्त हो जाएँ और संसार के चर-अचर प्राणी शान्तिपूर्वक रह सकें।।60-62।।

महादेवजी बोले – देवराज इन्द्र की इस प्रकार की बात सुनकर कामदेव ने पितामह ब्रह्मा द्वारा दिया हुआ घोर शाप जिसे वह भूल गया था, उसका पुन: स्मरण किया. जब ब्रह्माजी अपनी पुत्री संध्या का अनुगमन कर रहे थे उसी समय मैंने अपनी शस्त्र परीक्षा के लिए अपने पुष्प बाणों से उन पर प्रहार किया था, तब उन्होंने मुझे यह शाप दिया था – मनोभव ! जब आप देवताओं के कार्य के लिए उन लोगों के अनुरोध पर बाणों से भगवान शंकर के शरीर पर प्रहार करेंगे, तब उनके नेत्र से निकली अग्नि आपको जला डालेगी. मेरे शाप का वही समय आ गया है, जिसका निवारण करना कठिन है. कोई भी व्यक्ति प्रारब्ध का उल्लंघन करने में समर्थ नहीं है।।63-66।। 

मुने ! ब्रह्माजी के इस शाप को याद कर दु:खी होते हुए भी कामदेव इन्द्र की बात को पूर्व में अंगीकार कर लेने के कारण अन्यथा कुछ नहीं कह सके. उन्होंने कहा – देवराज ! जो आपने कहा है, उसे मैं करूँगा और यतात्मा परम योगी भगवान शंकर को मोहित करूँगा. किंतु प्रभो ! क्रुद्ध होकर यदि भगवान महादेव मुझे नष्ट कर दें, तब सम्पूर्ण देवताओं के साथ मेरे लिए प्रयत्न कीजिएगा।।67-69।। देवराज इन्द्र ने भी उनको बार-बार आश्वासन देते हुए कहा कि मैं सभी देवताओं के साथ आपके लिए प्रयत्न करूँगा।।70।। तदनन्तर देवराज की आज्ञा से रति और वसन्त के साथ कामदेव शीघ्र ही भगवान शंकर के तपोवन में पहुँच गये।।71।। 

इन्द्र ने सभी देवताओं को भी आदेश दिया कि मेरी आज्ञा से आप लोग भी शीघ्र ही वहाँ चले जाएँ।।72।। मेरी बात मानकर ये कामदेव देवताओं का कार्य संपन्न करने हेतु भगवान शिव को मोहित करने का कठिन कार्य करेंगे।।73।। ये (कामदेव) जिस-जिस स्थान पर जाएँगे, आप लोग इनकी सहायता करें और वहाँ-वहाँ इनका अनुगमन करते हुए मुझे उस समय सावधान कर दें जिससे कि जब ये कामदेव अति तेजस्वी भगवान महारुद्र को अपने सम्मोहन नामक बाण से मोहित करना आरम्भ करें, तब मैं इनकी रक्षा करने के लिए वहाँ आ जाऊँगा।।74-75½।। 

देवराज इन्द्र के इस प्रकार कहने पर वे सभी देवता कामदेव की रक्षा करने के लिए एक सातह उनके पीछे-पीछे चल दिए।।76½।। मुने ! कामदेव वसन्त ऋतु और अपनी पत्नी रति के साथ महादेव भगवान शिव के आश्रम में प्रवेश कर कुछ समय के लिए स्थित हो गये, किंतु सबको मोहित करने वाले कामदेव ने ऎसा कोई अवसर नहीं पाया, जिससे कि वे उनके शरीर में प्रवेश कर सकें।।77-79।। 

मुनिश्रेष्ठ ! वसन्त-ऋतु के आगमन से पलाश, केसर आदि तथा अन्य भी बहुत-से वृक्ष पुष्पित हो उठे. इस ऋतु के आने से मल्लिका, जाती (जूही) और मालती-लताओं में फूल खिल उठे और सरोवरों में कमल खिलने लगे. पुष्पों पर मंडराते हुए भौंरों के झुण्ड मधुर स्वर से गुंजार करते हुए काम के प्रभाव से परस्पर विहार करते हुए मत्त हो उठे. मलय पर्वत से उत्पन्न शीतल, मन्द और सुगन्धित हवा बहने लगी तथा चन्द्रमा कान्तियुक्त हो गया और सभी प्राणी प्रफुल्लित हो उठे. तपस्या में संलग्न सिद्धगण काम से मोहित हो गये तथा किन्नर आदि भी उसी प्रकार श्रृंगार रस में डूब गये. मुनिश्रेष्ठ इस वन में निवास करने वाले जो अन्य प्राणी थे, वे सभी काम-वासना से मोहित होकर बेचैन हो गये. महेश्वर भगवान शंकर के गण भी विकारयुक्त हो गये, लेकिन भगवान शंकर का ध्यान किंचित भी भंग नहीं हुआ।।80-86।। 

निश्चल भगवान शंकर को देखकर खिन्नचित्त कामदेव धनुष उठाए हुए जैसे ही आगे बढ़े कि रति ने उन्हें रोक लिया और कहा कि जलते हुए कालाग्नि के समान, करोड़ों सूर्य की तरह कान्तिमान योगनिष्ठ भगवान विश्वेश्वर कि सम्मुख जाने में कौन समर्थ है !।।87-88।। कामदेव ने ऎसा सुनकर इन्द्र की कही बात को स्वयं स्वीकार करने का स्मरण करके भगवान शिव को सम्मोहित करने हेतु बाण को धनुष पर चढ़ाया. उसी समय उन रुद्रावतार भगवान शंकर को देखकर वह पुन: पीछे हट गया।।89-90।। 

इस प्रकार भगवान शंकर को सम्मोहित करने में विफल उस कामदेव को देखकर जगन्माता महेश्वरी मुसकराकर भगवान शिव को मोहित करने के लिए उपस्थित हुईं।।91।। जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत मोहित किया जाता है, वे महामाया अपनी सखियों के साथ उठकर भगवान रुद्र के सामने जाकर जब स्थित हो गयीं, तब भगवान त्रिलोचन महादेव ने ध्यान छोड़कर अपने सुन्दर नेत्रों को खोलकर उन पार्वती को देखा।।92-93।। प्रसन्नात्मा, महामना भगवान शंकर सुन्दर नयनों से सुशोभित उनके मुख कमल को निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए स्थित हो गये।।94।।

उसी समय निश्चल नयनों वाले भगवान चन्द्रशेखर को देखकर पुष्पधन्वा कामदेव पुष्पबाण का संधान करते हुए भगवान शंकर के समीप पहुँच गये।।95।। इन्द्र भी देवताओं के मुख से उचित अवसर उपस्थित होने की बात सुनकर वहाँ आ गये और सभी देवताओं के साथ अपने रथ पर गगनमण्डल में स्थित हो गये।।96।। कामदेव ने अपने हर्षण नामक प्रथम बाण से भगवान शंकर के वक्ष:स्थल पर प्रहार किया, तब प्रफुल्लचित्त होकर उन्होंने जगन्माता पार्वती को देखा. उसी समय कामदेव की सहायता करने के लिए मनमोहक हवा बहने लगी और भगवान शंकर के हृदय में श्रृंगार रस का प्रादुर्भाव हुआ।।97-98।।

तब पुन: कामदेव ने फूल माला से सुसज्जित सम्मोहन नामक बाण को पुष्प धनुष पर चढ़ाकर संधान किया. उस समय उनकी परम सुन्दरी पत्नी रति उनके दाहिने भाग में, प्रीति नामक पत्नी वान भाग में तथा सुखदायक ऋतुराज वसन्त पृष्ठ भाग में स्थित हो गया।।99-100।। सभी देवताओं के देखते-देखते हर्षित कामदेव ने जगत को मोहित करने वाले बाण से भगवान महेश्वर के हृ्दय में प्रहार किया. सम्पूर्ण विश्व को मोहित करने वाले बाण से भगवान महेश्वर के हृदय में प्रहार किया. सम्पूर्ण विश्व को मोहित करने वाले उस बाण से आविद्ध जितेन्द्रिय अविकारी भगवान शंकर भी समागम करने के लिए उत्सुक हो गये।।101-102।। तब सभी देवताओं ने कामदेव की बार-बार प्रशंसा की कि तीनों लोकों में इन कामदेव के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।।103।। तब विश्वेश्वर भगवान शंकर स्मरणपूर्वक इन्द्रियनिग्रह करके सोचने लगे कि इस इस विकार का कारण क्या है?।।104।। 

इस बीच पितामह ब्रह्मा ने वहाँ आकर कामदेव, उनके पुण्यमय धनुष-बाण, उनकी चेनतशक्ति और ऋतुराज वसन्त को हटा दिया तथा वे पुन: अपने स्थान पर लौट आये।।105½।। कामदेव ने ही मेरा अतिक्रमण किया है – ऎसा मन में विचार करके कालानल के समान नेत्रों वाले भगवान रुद्र क्रोध से जल उठे. तदनन्तर क्रोध से दहकते हुए इनके तीसरे नेत्र से भीषण अग्नि प्रकट हुई, मानो वह सम्पूर्ण संसार को जला डालेगी।।106-107½।। 

उस अग्नि को प्रकट हुआ देखकर डरे हुए सभी देवता कामदेव की रक्षा के लिए महादेव के प्रति जोर-जोर से चिल्लाने लगे – प्रभो ! शिव ! जगन्नाथ ! इस कामदेव की रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए. जिस प्रकार आपने इनको नियुक्त किया है, इन्होंने वैसा ही किया है. महादेव ! आप प्रसन्न हों और हमारे हितैषी कामदेव की रक्षा करें।।108-110।। मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार उन देवताओं के कहते रहने पर भी भगवान शंकर के तृतीय नेत्र से निकली अग्नि ने सहसा ही कामदेव को भस्मसात् कर दिया।।111।। 

।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत शिव-नारद-संवाद में “कामदेवभस्मीभवन” नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।