इस अध्याय में ब्रह्माजी का गंगा जी को कमण्डलु में लेकर स्वर्ग में आना है, माता से मिले बिना गंगा के स्वर्गलोक चले जाने पर क्रुद्ध मेना द्वारा उन्हें जलरूप होकर पुन: पृथ्वीलोक आने का शाप देना है, स्वर्गलोक में देवी गंगा से भगवान शंकर का विवाह होना आदि बातें हैं.
श्रीमहादेवजी बोले – महामुने ! तब ब्रह्माजी गिरिराज की अनुमति से गंगाजी को अपने कमण्डलु में लेकर शीघ्र ही स्वर्गलोक आ गये।।1।। इधर मेना जब गिरिराज के पास आयीं, तब बेटी को वहाँ न देखकर गिरिश्रेष्ठ हिमालय से कहने लगीं।।2।।
मेनका बोलीं – राजन् ! प्रभो ! मेरी प्राणप्यारी पुत्री गंगा कहाँ गयी? वह तो आपकी गोद में बैठी थीं, उसे कौन ले गया? प्रभो ! मुझे बताइये।।3।।
श्रीमहादेवजी बोले – तब गिरिराज हिमालय ने आँसू भरी आँखों से मेना को देखकर ब्रह्माजी की याचना तथा गंगा के स्वर्ग जाने की बात बता दी।।4।। मुनिश्रेष्ठ ! ऎसा सुनकर गंगा के विरह से दु:खी गिरिराज पत्नी मेना अनेक प्रकार से रुदन करने लगीँ. ज्ञानियों में श्रेष्ठ गिरिराज ने मेना को सान्त्वना दी और उन्हें वह सारी बात भी बतायी, जो गंगा ने स्वयं उनसे कही थी।।5-6।।
अपनी माँ से बिना कोई बात किये ही स्वर्ग चले जाने के कारण गिरिराज पत्नी मेना ने अपनी प्राणप्रिया पुत्री गंगा को कुपित होकर (इस प्रकार का) शाप दे दिया।।7।। “मुझ माता से बिना बात किये तुम स्वर्ग चली गई, इसीलिए तुम्हें जलरूप में पुन: पृथ्वीलोक में आना होगा”।।8।। नारद ! इस प्रकार हिमवान की पत्नी मेना शाप देकर भवन में चली गयीं और गिरिराज हिमवान भी उनके साथ चले गये।।9।।
महामते ! इधर स्वर्गलोक में गंगा को लाकर देवगण अत्यंत उल्लासपूर्वक उनकी विवाह संबंधी मांगलिक क्रियाएँ करने लगे।।10।। तदनन्तर प्रसन्न मन ब्रह्माजी ने शिवजी को आदरपूर्वक बुलाने हेतु नारदजी को कामरूप महापीठ भेजा।।11।। नारदजी ने कामरूप में जाकर भगवान शिव को योगाभ्यास में संलग्न एवं ध्यानमग्न देखा।।12।। इन्द्रियों की वृत्तियों को समेटकर योग की गहन साधना में लीन, मध्यान्हकाल के सहस्त्रों सूर्यों के समान तेजस्वी और चन्द्रमा के समान प्रकाशित नेत्रवाले भगवान शिव को देखकर नारदजी वहीं खड़े रहे और सदाशिव के ध्यान को भंग करने के भय से विचार करने लगे कि यदि देवी सती के हिमालय के घर में जन्म की बात इनसे कहूँ तो इनका ध्यान भंग हो जाएगा।।13-15।।
यदि कुछ ना कहूँ तो मुझे प्रतिज्ञाभंग का पाप लगेगा.यह भी तो हो सकता है कि देवी सती के पुनर्जन्म की बात सुनकर भगवान शिव परम सन्तुष्ट होकर मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ. यह सब सोचकर धीरे-धीरे नारदजी भगवान शंकर के समीप पहुँचे और योग में लीन सदाशिव से बोले – ।।16-17½।।
नारदजी बोले – जगद्गुरु महादेव ! आपको नमस्कार करता हूँ. आप मुझ पर प्रसन्न हों. मैं आपके पास से आपके लिए सती को लाने हेतु गया था. प्रभो ! आपकी प्रिया सती पुन: आपको पतिरुप में पाने की इच्छा से जन्म ले चुकी हैं. उन्हें प्राप्त करने हेतु मेरे साथ चलिए. अब योगचिन्तन छोड़िए।।18-19½।।
श्रीमहादेवजी बोले – नारदजी की बातें सुनकर भगवान शंकर उसी समय ध्यान छोड़कर “वह मेरी सती कहाँ है” ऎसा कहते हुए स्थित हो गये. तब नारदजी ने उन्हें बताया – प्रभो ! भगवती सती अपने अंशरूप से हिमालय की सुन्दर नेत्रों वाली बेटी के रूप में गंगा के नाम से जन्मी हैं. उन्हें सभी देवताओं के साथ ब्रह्माजी स्वर्ग ले आये हैं और आपको प्रदान करना चाहते हैं. इसी निमित्त मुझे भेजा गया है. अत: आप मेरे साथ चलें और अपनी रमणीया पत्नी को प्राप्त करें. तब तक ब्रह्माजी अपने कमण्डलु में स्थित परा प्रकृति के अंश से उत्पन्न, तीनों लोकों को पवित्र करने वाली, सुन्दर रूपवाली उन शिवप्रिया की देखभाल करते रहे. महामते ! तब शिवजी उन्हें लेकर प्रसन्नचित्त से अपने प्रमथगणों के साथ कैलासपर्वत पर चले गये।।20-24½।। जो जगदम्बा ब्रह्मा के कमण्डलु में रही थीं, वे ही भगवान शिव को प्राप्त करने के बाद जलरूप में अवतीर्ण होकर पृथ्वीलोक में मायापुर आयीं.
नारद ! स्वर्ग से ब्रह्मनदी ने पृथ्वीलोक में आकर सगरपुत्रों का उद्धार किया और जलनिधि सागर में मिलकर वे पाताललोक तक प्राणियों का कल्याण करती रहती हैं।।25-27।। मुने ! इस प्रकार सती ने अंशरूप से हिमालय की पुत्री होकर भगवान शंकर को पतिरुप में पुन: प्राप्त किया. मुनिवर ! भगवती सती ने ही अपने दूसरे रूप पूर्णावतार में पार्वतीरूप से जन्म लेकर भगवान शंकर को पतिरूप से प्राप्त किया।।28-29।।
।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “गंगाविवाहवर्णन” नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।