महाभागवत – देवीपुराण – तेरहवाँ अध्याय 

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इस अध्याय में मेनका के गर्भ के अर्धांश से गंगा के प्राकट्य का आख्यान, देवर्षि नारद द्वारा हिमालय को गंगा का माहात्म्य सुनाना, ब्रह्मादि देवताओं द्वारा हिमालय से भगवती गंगा को ब्रह्मलोक ले जाने की याचना करना आदि है. 

श्रीमहादेवजी बोले – वत्स ! मैं वह कथा सुना रहा हूँ, जिस प्रकार सती ने दो रूप धारण कर मेनका के गर्भ से हिमवान के घर पुत्री रूप में जन्म लिया।।1।। मुने ! पहले वे अपने अंश से धवल कान्तियुक्त गंगा के रूप में प्रकट हुईं. भगवान शंकर के सिर पर स्थान पाने के लिये उन्होंने जलरूप धारण किया. उसके बाद गौरी के रूप में वे शंकरप्रिया पूर्णावतार धारण कर अतिशय प्रेम के कारण शिव के शरीरार्ध में स्थित होकर उनकी अर्धांगिनी बनी।।2-3।। 

महामते ! वे गंगा रूप में कैसे प्रकट हुईं, उस प्रकरण को सुनो, जिसका श्रवण करने से ब्रह्म-हत्या के पाप से लिप्त मनुष्य भी तत्क्षण मुक्त हो जाता है।।4।। सुमेरु की पुत्री मेना गिरिराज हिमवान की पत्नी थीं. जगदम्बा ने अपने अंशरूप से उनके यहाँ पुत्रीरूप में जन्म लिया।।5।। सती गंगा रूप से मेना के गर्भ में आयीं और गिरिश्रेष्ठ हिमवान की पत्नी ने एक सुमुखी सर्वांगसुन्दरी कन्या को जन्म दिया।।6।। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया (अक्षयतृतीया) के दिन मध्यान्ह में गौरवर्णा सुन्दर मुख कमल वाली गंगा प्रकट हुईं।।7।।

वे कृष्णकटाक्षयुक्त, तीन नेत्रों और चार भुजाओं से सुशोभित थीं. कन्या जन्म की बात सुनकर पर्वतराज बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर उन्हें प्रचुर दान-दक्षिणा दी. शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला तथा वर्षाकाल में नदी के जल के समान वह कन्या पिता के घर में बड़ी होने लगी।।8-9½।। एक दिन पर्वतराज हिमालय जब उस कन्या को गोद में लेकर अन्त:पुर में बैठे थे, उसी समय साक्षात् भगवती के अंश से गंगा को उत्पन्न हुआ जानकर ब्रह्मापुत्र देवर्षि नारद उनके दर्शनहेतु वहाँ पधारे, जिन परा प्रकृति की आराधना करके भगवान शंकर कामरूप क्षेत्र में स्थित रहते हैं।।10-11½।।

नारदजी बोले – प्रभो ! ब्रह्मन् ! सुनिए, मैं वह उपाय बताता हूँ, जिससे भगवान शिव का रोष हम लोगों के प्रति प्रसन्नता में बदल जाएगा. ऎश्वर्याशाली गिरिराज हिमालय धर्मज्ञ हैं और उदार भी हैं. इन्द्रादि देवताओं को साथ लेकर आप उनके पास जाकर गंगा को माँग लें. आपके अनुरोध से वे अवश्य भगवती गंगा को आपको प्रदान कर देंगे।।37-39।। तब उन्हें स्वर्ग में लाकर एक बड़े उत्सव का आयोजन करके भगवान शिव को उसमें आमन्त्रित कर आग्रहपूर्वक गंगा को उन्हें प्रदान कर दीजिए।।40।। जैसे छायासती उनके सिर पर स्थित रहीं वैसे ही ये जलरूप में उनके सिर पर निश्चित ही सुशोभित रहेंगी. इससे भगवान शंकर प्रसन्न हो जाएँगे।।41½।। 

ब्रह्माजी बोले – पुत्र ! तुम चिरंजीवी होओ. जैसा तुमने कहा वैसा करने से भगवान शंकर अवश्य प्रसन्न हो जाएँगे. अत: पुत्र ! तुम शीघ्रतापूर्वक इन्द्रादि देवों के पास जाकर उन्हें सारी बात बताकर मेरे पास आने का संदेश दे दो।।42-43½।। 

श्रीमहादेव जी बोले – महामते ! ब्रह्माजी के ऎसा कहने पर नारद मुनि प्रसन्न होकर वहाँ गये, जहाँ महामना इन्द्रादि देवगण विराजमान थे।।44½।। 

नारदजी बोले – प्रभो देवराज ! मैं ब्रह्मलोक से महात्मा पिताजी की आज्ञा से आपके पास आया हूँ. मृत्युलोक में हिमवान के गृह में साक्षात् देवी सती ने पुत्रीरूप से जन्म लिया है. अपने अर्धांश से महादेवी त्रैलोक्यपावनी गंगा के रूप में आयी हैं. उन्हें स्वर्ग में लाने के लिए ब्रह्माजी पृथ्वीतल पर जाएँगे. देवश्रेष्ठों ! आप लोग शीघ्र ही मृत्युलोक चलने के लिए ब्रह्मलोक आएँ।।45-47½।।       

देवगण बोले – मुनिवर ! आप क्या कह रहे हैं? क्या स्वयं सती ने मृत्युलोक में जन्म लिया है? मुने ! क्या भगवान शंकर को यह बात बता दी गयी है?।।48½।।

नारदजी बोले – उन गंगा को स्वर्गलोक में लाने के बाद मैं शिवजी के पास जाऊँगा, देवगणों ! आप लोग शीघ्र ब्रह्माजी के निकट पहुँचें।।49½।।

श्रीमहादेवजी बोले – तब देवगण “तथास्तु” कहकर ब्रह्मलोक पहुँचे. हर्ष से विकसित मुखकमल वाले उन इन्द्रादि देवगणों ने जगत्पति महात्मा ब्रह्माजी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर पूछा – प्रभो ! हमारे लिए क्या आज्ञा है?।।50-51½।। 

ब्रह्माजी बोले – महादेवी सती हिमवान के घर में अपने अर्धांश से गंगारूप से जन्मी हैं. इसी प्रकार उमा भी वहाँ अवतार लेंगी. उन ज्येष्ठपुत्री गंगा को स्वर्ग में लाने के लिए हम लोग वहाँ चलेंगे।।52-53।। इन्द्र, कुबेर, वरुण, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु और बुद्धिमान नारद – आप सब लोग अपने-अपने स्थानों से मेरे साथ चलने को शीघ्र तैयार हो जाएँ।।54½।।    

श्रीमहादेवजी बोले – मुनिपुंगव ! इन्द्रादि देवगण “ऎसा ही हो” कहकर गंगा को माँगने का विचार कर महर्षि नारद तथा ब्रह्माजी के साथ हिमालय के पास शीघ्र पहुँच गये।।55-56।। देवताओं की चेष्टा जानकर महादेवी गंगा ने उससे पिछली रात्रि को ही गिरिराज को स्वप्न में श्वेतवर्ण, त्रिनयना, मकरवाहना एक देवी दिखायी दीं. वे सामने आकर बोलीं – पिताजी ! मैं आपकी पुत्री हूँ. एकमात्र मैं ही आद्या प्रकृति हूँ, और मैं वही हूँ जिसका दक्षप्रजापति की पुत्री सती रूप से पिता के यज्ञ में शरीर त्यागकर अपने पति शिव से वियोग हो गया था. शिवजी भी मेरे वियोग में व्यथित होकर कामरूपक्षेत्र में रहने लगे. वे मुझे पत्नीरूप से पुन: प्राप्त करने के लिए तप कर रहे हैं. आपने भी पुत्रीरूप से मुझे पाने के लिए भक्तिपूर्वक मेरी आराधना की है. इसलिए मैं अपने अर्धांश से इस समय आपके घर में आयी हूँ. अपने दूसरे अर्धांश से भी मैं आपकी ही पुत्री बनूँगी।।58-62।। 

मुझे ले जाने के लिए ब्रह्मादि देवगण आपके पास प्रार्थना करने आएँगे. मैं उन देवताओं के साथ स्वर्ग चली जाऊँगी और उन महान देवताओं के द्वारा भगवान शंकर को दी जाने पर मैं पुन: उन्हें पतिरूप से प्राप्त कर लूँगी. पिताजी ! मेरे लिए आप मोहासक्त होकर कभी भी शोक न करें।।63-64।। 

पिताजी ! आपको ये बातें पहले ही इसलिए बता दी हैं, जिससे आप ऎसा होने पर दु:खी न हों. मुने ! गिरिराज से स्वप्न में ऎसा कह करके वे गंगाजी अन्तर्धान हो गयीं और तब हिमवान जग गये. उन्होंने गंगाजी की कही हुई सारी बातों पर विचार किया।।65-66।। गिरिराज को इस विषय में पहले जो मोह था, वह दूर हो गया. मुनिश्रेष्ठ ! तब महान तेजस्वी ब्रह्मादि देवगण हिमालय के यहाँ गंगा को ले जाने की इच्छा से आये. उन बुद्धिमान गिरिराज ने उन्हें प्रणाम करके कहा – देवगणों ! आप यहाँ कैसे आये? जो उचित हो, वैसा आप मुझे कहिए।।67-68½।।

देवगण बोले – पर्वतराज ! सभी लोकों में दानी के रूप में आपकी कीर्ति गायी जाती है. गिरे ! आज हम सभी आपके पास भिक्षा माँगने आये हैं।।69½।। उनका ऐसा वचन सुनकर गिरिरज को स्वप्न में देखा सारा वृत्तान्त याद आ गया कि नारदजी ने भी पूर्व में ऎसा ही कहा था, तब हिमालय ने कोई उत्तर नहीं दिया था. तदनन्तर मन में विचारकर गिरिराज ने देवताओं से यह कहा – ।।70-71।। देवगणों ! आप लोग तो त्रिलोक के स्वामी हैं. आप देवों को भिक्षा माँगने की क्या आवश्यकता हो गयी? आप बतायें कि मैं आपको क्या प्रदान करूँ?।।72।। 

ब्रह्माजी बोले – वत्स ! सुनो, मैं बताता हूँ जिस कारण सभी प्रकार के रत्नों से सुशोभित ये देवगण तुम्हारे पास आये हैं।।73।। परा प्रकृति ही स्वयं दक्षप्रजापति की कन्या सती बनकर जन्मी थीं. उन साध्वी ने त्रिभुवनपति भगवान शंकर का वरण किया था. गिरिश्रेष्ठ ! दक्षप्रजापति ने कुबुद्धि के कारण भगवान शंकर की निन्दा में लीन रहते हुए द्वेष-बुद्धि से एक महायज्ञ का आयोजन किया. उसने इन्द्र प्रभृति सभी देवताओं को आमन्त्रित किया. मुझे और विष्णु को भी बुलाया, किंतु महान मूर्खतावश सती और शिव को नहीं बुलाया।।74-76।।

गिरे ! इस कारण महादेवी सती कुपित होकर स्वयं दक्ष के नगर को जाने के लिए उद्यत हुईं, यद्यपि शिवजी ने उन्हें अनेक प्रकार से रोकना चाहा।।77।। अपने प्रभुत्व के अभिमान से शिवजी ने ऎसा किया है – यह सोचकर सती ने भगवान शिव को अपराधी समझा और क्रुद्ध होकर वे उन्हें छोड़कर दक्ष के घर को चली गयीं।।78।।  दक्षप्रजापति ने भी माया के वशीभूत होकर शिव की निन्दा की. इसलिए सती ने अपराधी दक्ष और शिव दोनों को विमोहित कर और छोड़कर अपनी माया से मृत छायाशरीर धारण कर लिया. स्वयं वे पूर्णा नित्या ब्रह्मस्वरुपा अन्तर्धान हो गयीं।।79-80।। त्रिभुवनपति भगवान शिव दु:ख से व्याकुल होकर उस छायासती को सिर पर लिए धरातल पर नृत्य करने लगे. उस ताण्डव से त्रिभुवन रसातल को जाने लगा. ऎसा देखकर देवताओं ने विष्णु से त्रिभुवन की रक्षा करने की प्रार्थना की।।81-82।। 

पर्वतराज ! परमपुरुष भगवान विष्णु ने चक्र से छायासती के उस शरीर को धीरे-धीरे काट दिया. परमेश्वर शिव उस देह के वियोग से दु:खी होकर आज भी हमसे रुष्ट हैं।।83-84।। वे ही भगवती दाक्षायणी सती अब तुम्हारे घर में अपने अंशभाग से त्रिलोकेश्वरी गंगा के रुप में आयी हैं. ये भगवान शिव की पूर्वपत्नी हैं और उन्हें ही पुन: प्राप्त करेंगी, परंतु भगवान शंकर हम लोगों से रुष्ट ही रह जाएँगे. अत: यदि आप इस कन्या को हमें दे दें और हम इसे स्वर्गलोक में ले जाकर एक महोत्सव का आयोजन कर भगवान शंकर को समर्पित कर दें तो इससे हमें परम आनन्द प्राप्त होगा।।85-87½।।

जो जगदम्बा अपने पूर्णांश से आपकी दूसरी पुत्री के रूप में जन्मेगी उन्हें आप स्वयं ही परमेश्वर सदाशिव को सादर समर्पित करेंगे. गिरे ! इस कन्या को हमें दे दीजिए. हम इसे ले जाकर भगवान शम्भु को समर्पित क देंगे।।88-89।।

हिमालय बोले – कन्या अपने पिता के घर में हमेशा के लिए तो रहती नहीं. वह तो दूसरे को देने के लिये ही होती है, अपनी नहीं होती. इस बात को मैं अच्छी तरह समझता हूँ, फिर भी गंगा के जाने का मेरे मन में असहनीय दु:ख होगा।।90-91।।

श्रीमहादेवजी बोले – ऎसा कहकर महामति गिरिराज हिमालय गंगा को गोद में बिठाकर अश्रु भरे नेत्रों से बहुविध रुदन करने लगे. तब गंगाजी बोलीं – पिताजी ! आप मेरे लिये दु:खी न हों. मुझे ब्रह्माजी को दे दें. अब मैं स्वर्ग जाऊँगी।।92-93।। मैं आपसे दूर नहीं हूँ और न आप ही मुझसे दूर हैं. आप भक्त हैं और मैं भक्ति से प्राप्य हूँ. अत: आप मुझे सदा अपने निकट ही पाएँगे।।94।। पिता से ऎसा कहकर तथा उन्हें प्रणाम करके गिरिसुता गंगा भूतपति सदाशिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए ब्रह्माजी के पास चली गयीं।।95।। 

।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “गंगागमन” नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।