महाभागवत देवीपुराण – सातवाँ अध्याय 

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इस अध्याय में भगवती सती तथा भगवान शिव का आनन्द विहार, दक्ष द्वारा यज्ञ करने और उसमें शंकर को न बुलाने का निश्चय करना, महर्षि दधीचि द्वारा दक्ष की निन्दा, नारद जी द्वारा सती को पिता के यज्ञ में जाने के लिए प्रेरित करना आदि बातें हैं. 

श्रीमहादेव जी बोले – नारद! भगवान शंकर भगवती सती को प्राप्त कर अत्यन्त कामार्त हो गये और उन्होंने प्रमथगणों तथा महान बलशाली नन्दी से कहा – ।।1।। प्रमथगण ! मेरी आज्ञा से यहाँ से शीघ्र कुछ दूर जाकर तुम लोग देर तक स्थित हो जाओ. जब तुम लोगों को याद करुंगा, तब तुम लोग मेरे पास आ जाना. मेरी आज्ञा के बिना कोई भी यहाँ कदापि नहीं आएगा।।2-3।। भगवान शंकर का यह वचन सुनकर वे सभी प्रमथगण उनका सांनिध्य त्याग कर कुछ दूरी पर स्थित हो गये.।।4।। महामुने ! उसके बाद भगवान शंकर सती के साथ उस निर्जन वन में दिन-रात यथारुचि रमण करने लगे।।5।। 

एक बार उन्होंने वन के फूलों को लाकर उनकी सुन्दर माला बनाई तथा सती को समर्पित कर वे कौतूहलपूर्वक उन्हें देखने लगे. कभी वे प्रेमवश खिले हुए कमल की तरह सती के सुन्दर मुख को आदरपूर्वक हाथ से सहलाते थे और कभी इच्छानुसार पर्वत की कन्दराओं में, कभी पुष्प वाटिका में तथा कभी सरोवर के किनारे रमण करते थे. इस प्रकार भगवान शंकर सती के अतिरिक्त तथा भगवती सती शिव के अतिरिक्त एक पल भी दूसरी ओर दृष्टि नहीं डालते थे।।6-9।।

नारद! भगवान शंकर भगवती सती के साथ कभी कैलास पर्वत पर चले जाते थे तो कभी उस श्रेष्ठ हिमालय पर्वत के जिस किसी शिखर पर सती के साथ फिर पहुँच जाते थे. महामते ! इस प्रकार सती के साथ विहार करते हुए भगवान शंकर को दस हजार वर्ष व्यतीत हो गये तथा उन्हें दिन-रात का भी भान न रहा. इस प्रकार अपनी माया से महादेव को मोहित करके त्रैलोक्य-मोहिनी भगवती सती हिमालय के शिखर पर विराजती रहीं।।10-12½।।

मेनका भगवती सती के पास नित्य जाकर उचित समय जानकर भक्तिपूर्वक निरन्तर उन्हें पुत्रीरूप में पाने की प्रार्थना करती थीं. हिमवान की पत्नी मेनका ने शुक्ल पक्ष की महाष्टमी के दिन उपवासपूर्वक व्रत का आरम्भ किया. पुन: एक वर्ष तक शुक्ल पक्ष की महाष्टमी के दिन विधिपूर्वक भगवती सती की पूजा करके पुन: महाष्टमी को उपवास करके व्रत का समापन किया।।13-15½।। तब शंकर की भार्या सती ने प्रसन्न होकर यह अंगीकार कर लिया कि “मैं आपकी पुत्री के रूप में आविर्भूत होऊँगी, इसमें संदेह नहीं है”।।16½।।

सती का यह वचन सुनकर मेनका का चित्त प्रसन्न हो गया. वे दिन-रात सती का ध्यान करके हिमालय के भवन में रहने लगी थीं।।17½।। नारद ! वे दक्ष अज्ञानवश प्रतिदिन शंकर की निन्दा करते थे और शंकरजी भी उन प्रजापति दक्ष को सम्मान का पात्र नहीं मानते थे. मुनिश्रेष्ठ ! शिव तथा प्रजापति दक्ष के बीच एक-दूसरे के प्रति इस प्रकार का महान अद्भुत वैमनस्य हो गया।।18-19½।।

मुने ! एक बार ब्रह्मापुत्र नारद ने दक्ष प्रजापति के यहाँ आकर उनसे यह बात कहीं – प्रजापते! आप जिन महेश्वर की प्रतिदिन निन्दा करते हैं, वे उससे कुपित होकर जो करना चाहते हैं, उसे आप सुन लीजिए – वे शिव अपने भूतगणों के साथ आपके नगर में आकर भस्म तथा हड्डियों की वर्षा करके निश्चय ही कुलसहित आपका नाश कर देंगे. आपसे स्नेह के कारण ही मैंने आपसे यह बताया है, इसे आप कभी प्रकाशित ना करें. अब आप अपने विद्वान मन्त्रियों के साथ इसके उपाय के लिए विचार-विमर्श कीजिए. ऎसा कहकर वे नारद आकाश मार्ग से अपने स्थान को चले गये।।20-24।।

इधर दक्ष प्रजापति ने सभी मन्त्रियों को बुलाकर यह कहा – “मन्त्रिगण ! आप लोग तो सदा से मेरा हित करने वाले रहे हैं, किंतु मेरे शत्रु के क्रियाकलाप का किसी ने ध्यान नहीं रखा”. महर्षि नारद ने मेरे पास आकर ऎसा कहा है – शिव अपने समस्त भूतगणों के साथ मेरे पुर में आकर भस्म, हड्डी और रक्त की वृष्टि करेगा, इसमें संदेह नहीं है. तो फिर इस संबंध में मुझे इस समय जो करना हो उसे आप लोग बतलाइए।।25-27।। महामुने ! दक्ष की यह बात सुनकर वे सभी मन्त्री भय से व्याकुल हो उठे और उनसे यह वचन कहने लगे – ।।28½।।

मन्त्रियों ने कहा – देवाधिदेव शिव ऎसा क्यों करेंगे? हम लोग उनकी इस अनीति का कारण नहीं समझ पा रहे हैं. आप तो बुद्धिमानों में श्रेष्ठ तथा सभी शास्त्रों के ज्ञाता हैं. आप यथोचित आज्ञा दीजिए. इसके बाद हम लोगों के द्वारा कल्याणकारी साधनानुष्ठान किए जाएँगे।।29-30½।।

दक्ष बोले – श्मशान में निवास करने वाले तथा भूतगणों के अधिपति शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं को बुलाकर मैं यज्ञ का आयोजन करुँगा और समस्त विघ्नों का नाश करने वाले यज्ञेश्वर भगवान विष्णु को संरक्षक 

बनाकर मैं प्रयत्नपूर्वक यज्ञ संपन्न करूँगा. इस प्रकार पुण्य यज्ञ का आरंभ हो जाने पर वह भूतपति शिव मेरे पुण्यकर्मयुक्त नगर में कैसे आ पाएगा?।।31-33½।।

श्रीमहादेवजी बोले – [नारद!] तब दक्ष प्रजापति के ऎसा कहने पर भय के कारण उन मन्त्रियों ने दक्ष प्रजापति से कहा – महाराज! यह ठीक ही है. तत्पश्चात क्षीरसागर के तट पर पहुँचकर दक्ष प्रजापति ने भगवान विष्णु से यज्ञ की रक्षा के लिए प्रार्थना की. तब परम पुरुष भगवान विष्णु प्रसन्न होकर यज्ञ की रक्षा करने के लिए उन दक्ष के पुर में स्वयं पहुँच गये।।34-36½।।

उसके बाद दक्ष ने इन्द्र आदि प्रधान देवताओं, ब्रह्मा, देवर्षियों, प्रधान ब्रह्मर्षियों, प्रधान यक्षों, गन्धर्वों, पितरों, दैत्यों, किन्नरों तथा पर्वतों को निमन्त्रित किया. मुने ! दक्ष ने उस यज्ञमहोत्सव में सभी को तो बुलाया था, किंतु विद्वेष के कारण शिव को तथा उनकी पत्नी सती को छोड़ दिया था।।37-39।।

दक्ष प्रजापति ने उन सभी लोगों से कहा – मैंने अपने यज्ञमहोत्सव में शिव तथा उनकी प्रिय पत्नी सती को नहीं बुलाया है. जो लोग इस यज्ञ में नहीं आयेंगे वे यज्ञभाग से वंचित हो जाएँगे. स्वयं सनातन परम पुरुष भगवान विष्णु मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए यहाँ आए हुए हैं. इसलिए आप सभी लोग भयमुक्त होकर मेरे यज्ञ में आइए।।40-42।। 

इस प्रकार उन दक्ष का वचन सुनकर भयभीत हुए देवता आदि सभी शिवविहीन होने पर भी उस यज्ञ सभा में आ गये।।43।। यज्ञ की रक्षा करने में तत्पर भगवान विष्णु को आया हुआ सुनकर सभी देवता तथा अन्य भी शिवकोप से भयरहित हो गये।।44।।

दक्ष ने सती को छोड़कर अदिति आदि सभी पुत्रियों को आदरपूर्वक बुलाकर उन्हें पुष्कल वस्त्र और आभूषणों से संतुष्ट किया।।45।। मुने! उन्होंने यज्ञ के निमित्त महान पर्वत के समान अन्नों का संचय किया एवं दूध, दही, घी आदि की बड़ी-बड़ी नदियाँ बहा दीं. इस प्रकार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ के लिए जो-जो वस्तु तथा द्रव्य अपेक्षित थे, उनका संचय कर डाला. उन्होंने रससामग्रियों का सागर सदृश तथा अन्य पदार्थों का पर्वत सदृश संचय कर दिया. उसके बाद यज्ञ आरंभ हुआ।।46-47 ।।½।।   

मुनिश्रेष्ठ ! उस यज्ञ में स्वयं पृथ्वी वेदी बनीं और यज्ञकुण्ड में ऊर्ध्व तथा निर्मल शिखावाले धूमरहित अग्निदेव स्वयं प्रज्वलित हुए।।48½।। जो लोग उस यज्ञ में वेद पाठ के लिए नियुक्त किए गये थे, वे सब के सब आसन पर विराजमान हो गये. महामते ! यज्ञ की रक्षा करने वालों के स्वामी, जगत के रक्षक, आदि, परम पुरुष तथा यज्ञस्वरुप साक्षात भगवान नारायण यज्ञवेदी पर प्रतिष्ठित हो गये।।49-50½।।

इस प्रकार यज्ञ आरंभ हो जाने पर ज्ञानियों में श्रेष्ठ महामति दधीचि ने वहाँ एकमात्र शिव को न देखकर दक्ष से ऎसा कहा – ।।51½।।

दधीचि बोले – महान बुद्धिवाले प्रजापति ! आप जिस प्रकार का यह यज्ञ कर रहे हैं, वैसा न तो कभी हुआ है और न कभी होगा. ये सभी देवता इस यज्ञ में स्वयं ही साक्षात प्रकट होकर अपने-अपने यज्ञ-भाग से आहुति ग्रहण कर रहे हैं. इस यज्ञ में सभी प्राणी तो आए हुए दिखाई दे रहे हैं, किंतु देवताओं के अधिपति शम्भु क्यों नहीं दिख रहे हैं?।।52-54½।।

दक्ष बोले – मुनिश्रेष्ठ ! मैंने उन महेश्वरों को इस यज्ञ में बुलाया नहीं था. अत: वे इस पुण्य यज्ञ में नहीं दिखाई दे रहे हैं।।55½।। 

दधीचि बोले – प्रजापति ! जैसे विविध रत्नों से भली-भाँति विभूषित होने पर भी प्राणविहीन शरीर बिलकुल सुशोभित नहीं होता, वैसे ही महेश्वर के बिना आपका यह यज्ञ श्मशान की भाँति दिखाई दे रहा है।।56-57।। 

दक्ष बोले – दुष्ट ब्राह्मण ! तुम्हें यहाँ किसने बुलाया है और तुम यहाँ क्यों आये हो? तुमसे किसने पूछा है, जो तुम इस प्रकार बोल रहे हो?।।58।।

दधीचि बोले – मैं तुम्हारे इस अनिष्टकारी यज्ञ में तुम्हारे द्वारा बुलाया जाऊँ या ना बुलाया जाऊँ, किंतु यदि मेरी बात मानो तो सदाशिव महादेव को बुला लो; क्योंकि शिवविहीन किया गया यज्ञ फलदायक नहीं होता है. जिस प्रकार अर्थ से रहित वाक्य, वेदज्ञान से शून्य ब्राह्मण तथा गंगा से रहित देश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार शिव के बिना यज्ञ निष्फल होता है. जैसे पति के बिना स्त्री का और पुत्र के बिना गृहस्थ का जीवन व्यर्थ है और जैसे निर्धनों की आकाँक्षा व्यर्थ है, वैसे ही शिव के बिना यज्ञ व्यर्थ है. जिस प्रकार कुशविहीन संध्या-वंदन, तिलविहीन तर्पण और हवि से रहित होम निष्फल होता है, उसी प्रकार शम्भुविहीन यज्ञ भी निष्फल होता है, उसी प्रकार शम्भुविहीन यज्ञ भी निष्फल होता है।।59-62½।।

जो विष्णु हैं वे ही महादेव हैं और जो महादेव हैं, वे ही स्वयं नारायण विष्णु हैं. इन दोनों में से कभी भी कहीं कोई भेद नहीं है. इस प्रकार जो इनकी निन्दा करता है, वह स्वयं ही निन्दित होता है. इनमें किसी एक की निन्दा करने वाले से दूसरा कभी प्रसन्न नहीं होता. शिव को अपमानित करने की कामना से युक्त होकर तुम जो यह यज्ञ कर रहे हो, इससे अत्यन्त कुपित होकर वे शम्भु तुम्हारा यज्ञ नष्ट कर देंगे।।63-65½।।

दक्ष बोले – संपूर्ण जगत की रक्षा करने वाले भगवान विष्णु जिस यज्ञ के रक्षक हैं, उस यज्ञ में वह श्मशानवासी शम्भु मेरा क्या कर लेगा? प्रेतभूमि(श्मशान)- से प्रेम रखने वाला वह शिव यदि मेरे यज्ञ में आएगा तो भगवान विष्णु अपने चक्र से तुम्हारे शिव को रोक लेंगे।।66-67½।।

दधीचि बोले – ये अविनाशी पुरुष भगवान विष्णु तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हैं, जो कि विमोहित होकर तुम्हारे लिए स्वयं युद्ध करेंगे. जिन विष्णु को तुम भगवान शिव से यज्ञ की रक्षा के लिए यहाँ आया हुआ देख रहे हो, वे जिस प्रकार यज्ञ की रक्षा करेंगे उसे तुम अपनी आँखों से शीघ्र ही देखोगे।।68-69½।।

श्रीमहादेवजी बोले – उन दधीचि की यह बात सुनकर क्रोध से अत्यन्त लाल नेत्रों वाले दक्ष ने अपने अनुचरों से यह कहा – “इस ब्राह्मण को यहाँ से दूर ले जाओ”. मुनिश्रेष्ठ दधीचि भी उस दक्ष की बात पर हँस पड़े और बोले – “अरे मूढ ! तुम मुझे क्या दूर करोगे, तुम तो स्वयं ही अपने कल्याण से दूर हो गये हो. दुर्मति ! भगवान शिव के क्रोध से उत्पन्न दण्ड तुम्हारे सिर पर शीघ्र ही गिरेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।।70-72½।।

ऎसा कहकर मध्याह्नकालीन सूर्य के समान तेज संपन्न तथा क्रोध से लाल नेत्रों वाले मुनिश्रेष्ठ दधीचि सभा के मध्य से निकल गये. तत्पश्चात शिव तत्त्व को जानने वाले दुर्वासा, वामदेव, च्यवन, गौतम आदि समस्त ऋषिगण भी वहाँ से उठकर चल दिए. उन सभी ऋषियों के चले जाने पर दक्ष ने शेष ब्राह्मणों को दूनी दक्षिणा देकर महान यज्ञ आरंभ किया।।73-75½।।

नारद ! सभी बन्धु-बांधवों के कहने पर भी उस दक्ष ने सती को यज्ञ में किसी प्रकार नहीं बुलाया. उससे अत्यन्त क्षीणपुण्य वाले दक्ष ने उस परा प्रकृति का घोर अपमान किया. दक्ष प्रजापति तो उसी समय महामायास्वरूपिणी जगदम्बा के द्वारा ठग लिए गये।।76-77½।। इसके बाद गिरिराज हिमालय पर भगवान शिव के पास विराजमान सर्वज्ञा जगदम्बिका वह सब बातें जान गईं और वे विचार करने लगीं।।78½।।

मुझे पुत्री रूप में प्राप्त करने के लिए गिरिराज हिमालय की पत्नी मेना ने विनम्रतापूर्वक प्रेम भाव से सच्ची भक्ति के साथ मेरी प्रार्थना की थी. मैंने उसे स्वीकार कर लिया था कि “मैं उनकी पुत्री के रूप में निस्संदेह जन्म लूँगी.” उसी प्रकार पूर्वकाल में जब दक्ष प्रजापति ने मुझे पुत्री रूप में पाने के लिए मुझसे प्रार्थना की थी, तब मैंने उनसे कहा था कि “जब मेरे प्रति आपका आदरभाव कम हो जाएगा, तब आपका पुण्य क्षीण हो जाएगा. उस समय अपनी माया से आपको मोहित करके मैं निश्चित रूप से आपका त्याग कर दूँगी”. तो अब वह समय आ गया है. इस समय मेरे प्रति अनादरभाव वाले दक्ष प्रजापति का पुण्य नष्ट हो चुका है, अत: अपनी लीला से उनका परित्याग कर मैं अपने स्थान को चली जाऊँगी. तदनन्तर हिमालय के घर में जन्म लेकर एकमात्र प्राणवल्लभ देवेश महेश्वर शिव को पतिरूप में पुन: प्राप्त करूँगी।।79-84।।

इस प्रकार अपने मन में विचार करके दक्षपुत्री महेश्वरी सती उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी जब दक्ष के यज्ञ का विनाश होगा।।85।। उसी समय ब्रह्मापुत्र नारद दक्ष के घर से वहीं पर आ गये, जहाँ भगवान शिव विराजमान थे।।86।। तीन नेत्रों वाले देवाधिदेव शिव की तीन बार परिक्रमा करके नारद ने कहा – “उस दक्ष ने अपने उस महायज्ञ में सभी को बुलाया है, देवता, मनुष्य, गन्धर्व, किन्नर, नाग, पर्वत तथा अन्य जो भी प्राणी स्वर्ग-मृत्युलोक और रसातल में हैं – उन सभी को उसने बुलाया है, केवल आप दोनों (शिव-सती) को ही छोड़ दिया है. उस प्रजापति दक्ष की पुरी को आप दोनों से रहित देखकर उसका परित्याग करके दु:खी मन से मैं आपके पास आया हूँ. आप दोनों का वहाँ जाना उचित है. अत: अब आप विलम्ब मत कीजिए”।।87-90।।

शिवजी बोले – [देवर्षे ! ] हम दोनों के वहाँ जाने का प्रयोजन ही क्या है? जैसी उनकी रुचि हो, उसके अनुसार वे प्रजापति दक्ष अपना यज्ञ करें।।91।।

नारदजी बोले – यदि वे दक्ष आपके अपमान की इच्छा करते हुए वह महान यज्ञ संपन्न करते हैं तो इससे आपके प्रति लोगों में अनादर का भाव उत्पन्न हो जाएगा. परमेश्वर ! यह जान करके आप या तो अपना यज्ञ भाग ग्रहण कीजिए अथवा सुरेश्वर ! उस यज्ञ में ऎसा विघ्न डालिए ताकि वह संपन्न न हो सके।।92-93।।

शिवजी बोले – वहाँ न मैं जाऊँगा और न तो मेरी प्राणप्रिया यह सती ही जाएगी. वहाँ पहुँचने पर भी वे दक्ष मुझे यज्ञ भाग नहीं देंगे।।94।।

श्रीमहादेवजी बोले – तब शिवजी के ऎसा कहने पर महर्षि नारद ने सती से कहा – जगज्जननी ! उस यज्ञ में आपका जाना तो उचित है. अपने पिता के घर में यज्ञमहोत्सव होने का समाचार सुनकर कोई कन्या धैर्य धारण कर घर में भला कैसे रह सकती है ! जो आपकी सभी दिव्य बहनें हैं, वे यज्ञ में आयी हुई हैं और दक्ष ने उन सभी को स्वर्ण आदि के अनेकविध आभूषण प्रदान किए हैं. सुरेश्वरि ! जगदम्बिके ! अभिमान के कारण जिस प्रकार उन्होंने एकमात्र आपको नहीं बुलाया है, उसी प्रकार आप भी उनके घमण्ड को नष्ट करने का प्रयत्न कीजिए. मान तथा अपमान के प्रति समभाव वाले परम योगी शिव न तो उनके यज्ञ में जाएँगे और न तो विघ्न ही पैदा करेंगे।।95-99।। तदनन्तर दक्ष पुत्री सती से ऎसा कहकर महर्षि नारद ने शिवजी को प्रणाम करके पुन: दक्ष-प्रजापति के घर के लिए प्रस्थान किया ।।100।।

।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीशिव-नारद-संवाद में “दक्षप्रजापतियज्ञारम्भवर्णन” नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।