महाभागवत – देवीपुराण – दूसरा अध्याय 

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इस अध्याय में महामुनि जैमिनि द्वारा श्रीवेदव्यास जी से शिव-नारद-संवाद के रूप में वर्णित देवी के माहात्म्य वाले महाभागवत को सुनाने की प्रार्थना करना है.

सूतजी बोले – बहुत से पौराणिक आख्यानों का श्रवण (सुनना) कर लेने के बाद मुनिश्रेष्ठ जैमिनि ने भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर व्यास जी को प्रणाम करके उनसे आदरपूर्वक पूछा !!1।।

जैमिनि बोले – समस्त वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ मुनिवर ! आपको नमस्कार है. महामते ! इस लोक में आपसे बढ़कर वक्ता और कोई नहीं है।।2।। मुने ! आपके मुखारविन्द से पुण्यमयी कथा सुनकर मैं कृतार्थ हो गया हूँ, कृतार्थ हो गया हूँ, कृतार्थ हो गया हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं है।।3।। अब एक दूसरी बात जो मेरे मन में चिरकाल से स्थित है, उसके विषय में सुनना चाहता हूँ. जगत के आदि में उत्पन्न, भक्तों के दुर्गम कष्टों को दूर करने वाली, तीनों लोकों की माता, नित्यस्वरुपा, सच्चिदानन्दस्वरुपिणी जो भगवती दुर्गा हैं, ब्रह्मा आदि देवताओं के लिए भी दुर्लभ जिनके दोनों चरणाविन्दों को अपने हृदय कमल पर धारण करते हुए विश्वेश्वर शिव शवरूप से स्थित हैं, उनके अनुपम माहात्म्य का आपने जो संक्षेप में वर्णन किया है, उससे मेरी तृप्ति नहीं हुई है. अत: महाभाग ! अब आप उसका विस्तार से वर्णन करने की कृपा कीजिए. मुनिश्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है ।।4-7।।

यह मनुष्य शरीर अत्यन्त दुर्लभ है. अनेक सैकड़ों जन्मों के बाद इसे प्राप्त कर जिसने उस भगवाती माहात्म्य का श्रवण नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है।।8।। उनका वह वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र व्यासजी ने मुनिवर जैमिनि की प्रशंसा करके उनसे कहा ।।9।।

व्यासजी बोले – महामति ! जैमिनि ! आप परम भक्ति तथा ज्ञान से युक्त हैं. वत्स ! आपने इस समय बड़ी ही कल्याणप्रद बात पूछी है, इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।।10।। जिनका श्रवण करके भक्ति और धर्म से शून्य महान पापी मनुष्यों का भी इस लोक में पुनर्जन्म नहीं होता और जिसे सुनकर पापी मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकों से भी छूट जाता है, उस कथा को आप सुनना चाहते हैं, अत: आप परम भाग्यशाली हैं ।।11-12।।

मुने ! ब्रह्महत्या अदि समस्त पाप भी तभी तक मनुष्य को ग्रस्त किए रहते हैं, जब तक भगवती का चरित्र उसके कान में पड़ नहीं जाता है. यदि सैकड़ों पाप किया हुआ मनुष्य भी इस दुर्गा चरित्र का श्रवण करता है तो उसे देखकर यमराज भी अपना दण्ड छोड़कर उसके चरणों पर गिर पड़ते हैं।।13-14

मुने ! उन भगवती के अतुलनीय माहात्म्य को बता सकने में भला कौन समर्थ है? जिस माहात्म्य का अपने पाँच मुखों से भगवान शंकर भी वर्णन नहीं कर सके हैं।।15।। वाराणसी क्षेत्र में भगवान शिव स्वयं उन भगवती का ही ब्रह्मसंज्ञक तारक महामन्त्र जो गुरुकृपा से मुझे प्राप्त हुआ, उसे तत्परतापूर्वक आकर मुमुक्षुजनों के कान में कहते हुए उन्हें निर्वाण नामक महामोक्षपद प्रदान करते हैं. ब्रह्मर्षि जैमिनि ! मोक्ष तथा निर्वाणपद प्रदान करने वाली वे भगवती सभी मन्त्रों की एकमात्र बीजस्वरुपिणी हैं. महामते ! सभी वेद मोक्ष प्रदान करने वाली उन भगवती को वहाँ के समस्त मन्त्रों की अधिष्ठात्री देवता कहते हैं ।।16-19।।

शशक (खरगोश), मशक (मच्छर) आदि तथा और भी जो अन्य प्राणी इस पृथ्वी पर हैं, उन्हें मोक्ष देने के लिए भगवान शिव वाराणसीपुरी में “दुर्गा” – यह तारक मन्त्र कान में स्वयं प्रदान करते हैं. मुनिश्रेष्ठ जैमिनि ! एकाग्रचित्त होकर आप उसे सुनिए।।20-21।

मैं शिव-नारद-संवादरूप महान पापों का नाश करने वाले अतुलनीय दुर्गामाहात्म्य का विशेष विस्तार के साथ वर्णन करूँगा ।।22।। 

एक समय की बात है – सभी देवतागण मन्दर पर्वत पर एकत्र हुए थे. वहाँ पर गन्धर्वों सहित सभी ऋषिगण भी आये हुए थे. अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त, सुगन्धित और विकसित पुष्पों की गन्ध से दिशाओं को सुरभित करने वाले और सुमेरु शिखर के समान प्रतीत होने वाले उस रमणीक गिरिश्रेष्ठ मन्दराचल के पृष्ठ पर बैठे हुए भगवान कृष्ण और भगवान शिव को देखकर महर्षि नारद मुनि ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक भगवान शिव से पूछा ।।23-25½।।  

नारदजी बोले – भक्तों पर कृपा करने वाले तथा तीनों लोकों में वन्दनीय देवेश ! ज्ञानियों में श्रेष्ठ और विशुद्ध आत्मा वाले आप ही ब्रह्म नाम से जाने जाते हैं. परमेश्वर ! केवल आप ही वास्तविक तत्त्व को जानते हैं. आप तीनों लोकों को पवित्र करने वाली गंगा जी को आदरपूर्वक अपने सिर पर धारण करते हैं और चन्द्रमा को अत्यन्त सुन्दर देखकर आपने उन्हें अपने सिर का आभूषण बनाया है. सर्वज्ञ ! इस समय मैं आपसे जो पूछ रहा हूँ, उसे आप मुझे बताने की कृपा करें।।26-29।। 

महेश्वर ! स्वयं आप, भगवान विष्णु और जगत्पति ब्रह्मा – इन देवताओं की भक्तिपूर्वक उपासना करने से परम पद प्राप्त होता है तो फिर तप के द्वारा आप लोगों का उपास्य देवता कौन है? आपके समान इस बात को वाणी से बताने में इस भूमण्डल में और कोई भी समर्थ नहीं है. कृपामूर्ति महेश्वर ! इस प्रकार के प्रभाव वाले आप लोगों के जो उपास्य देवता हैं, उनके विषय में मुझे भी अवश्य जान लेना चाहिए. अत: कृपापूर्वक मुझे बताइए।।30-32।।

व्यासजी बोले – मुनिश्रेष्ठ जैमिनि ! इस प्रकार उन देवर्षि नारद का वचन सुनकर और उस पर बार-बार विचार करके महादेवजी ने उनसे यह कहा ।।33।।

श्रीमहादेवजी बोले – तात ! आपने जो बात पूछी है, वह तो परम गोपनीय है. वत्स ! ऎसी बात भला आपको बताने योग्य क्यों नहीं है? मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपको बताऊँगा।।34।।

व्यासजी बोले – देवाधिदेव शिव के ऎसा कहने पर देवर्षि नारदजी दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए और सर्वव्यापी जगन्नाथ नारायण से कहने लगे – भक्तों पर कृपा करने वाले देवाधिदेव भगवान महेश्वर अपने उपास्य इष्टदेव के विषय में बताने में कृपणता कर रहे हैं, अत: शरणागतों पर कृपा करने वाले देवेश ! आप उनसे कहने की कृपा करें।।35-36½ ।।

श्रीनारायण बोले – तात ! उस देवता से आपका क्या प्रयोजन? आप सबके देवता तो हम हैं ही. हमारी ही आराधना करके आप परम पद प्राप्त कर लेगें, अत: हम सबके देवता से आपका क्या प्रयोजन?।।37-38।।

व्यासजी बोले – इस प्रकार उन नारायण का भी वह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद हाथ जोड़कर स्तुति वचनों से शिव तथा विष्णु का स्तवन करने लगे ।।39।।

नारदजी बोले – विश्वेश्वर ! देवदेव ! प्रसन होइए. नारायण ! वासुदेव ! प्रसन्न होइए. अपने शुभ्र शरीर के अंगों में सर्वरूपी आभूषण धारण करने वाले शिव ! प्रसन्न होइए. कौस्तुभमणि से विभूषित शरीर वाले नारायण ! मुझ पर प्रसन होइए।।40।। शरण देने वाले गंगाधर ! मुझ पर प्रसन्न होइए. सुदर्शन चक्र को धारण करने वाले पूजनीय विष्णो ! मुझ पर प्रसन्न होइए. दिगम्बररूप विश्वेश्वर ! मुझ पर प्रसन्न होइए. गदा धारण करने वाले विश्वेश्वर ! मुझ पर प्रसन्न होइए।।41।।

त्रिपुर का वध करने वाले शिव को नमस्कार है. असुर कंस का वध करने वाले (कृष्णरूप) विष्णु को नमस्कार है. अन्धकासुर का विनाश करने वाले शिव को नमस्कार है और तृणावर्त का संहार करने वाले विष्णु को नमस्कार है. विष्णु को बार-बार नमस्कार है. गरुड आसन पर विराजमान आप विष्णु को तथा नन्दी पर आरुढ़ आप शिव को नमस्कार है।।42-43।। 

व्यासजी बोले – परमपूज्य उन देवर्षि नारद को इस प्रकार स्तुति करते हुए देखकर महादेव जी की ओर दृष्टि करके भगवान विष्णु ने कहा ।।44।।

विष्णु जी बोले – देव ! ये ब्रह्मापुत्र देवर्षि नारद परम भक्त, ज्ञानी एवं विनम्र स्वभाव वाले हैं. आप भक्तवत्सल हैं, इसलिए आपको इन पर अवश्य ही कृपा करनी चाहिए।।45।। 

व्यासजी बोले – भगवान शिव ने भी भगवान विष्णु द्वारा कही हुई बात को सुनकर कहा – आप शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं और आपने मेरे लिए अत्यन्त कल्याणकारी बात कही है।।46।। तत्पश्चात महान ज्ञानी और बुद्धिमान नारद ने कृपासिन्धु देवाधिदेव महादेव से पुन: पूछा।।47।।

नारदजी बोले – इन्द्र आदि समस्त लोकपालों ने आप (शिव), विष्णु तथा जगत्पति ब्रह्मा की उपासना करके श्रेष्ठ पद प्राप्त किया है. देवेश ! यदि मेरे ऊपर आपका अनुग्रह हो तो आप लोग जिस पूर्ण तथा अविनाशी देवता की आराधना करते हैं, उसके विषय में मुझे बताइए. देव ! जिसकी कृपा से आपने ऎसा महान ऎश्वर्य प्राप्त किया है, उस देवता के विषय में यदि आप मुझे बताते हैं तो मेरे ऊपर यह आपका अनुग्रह होगा।।48-50।।

व्यासजी बोले – योगीश्वर मुनिवर नारदजी द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर निर्मलपति भगवान शंकर पहले तो सतत समाधिस्थ हो गये. पुन: भगवती श्रीदुर्गा के चरण कमल का अपने हृदय में ध्यान करते हुए और उन्हें ही एकमात्र पूर्णब्रह्म जानकर उन्होंने आदरपूर्वक कहना प्रारम्भ किया।।51।।

।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीव्यास-जैमिनि-संवाद में “व्रतोपासनावर्णन” नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।

महाभागवत – देवीपुराण के तीसरे अध्याय के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:-

https://chanderprabha.com/2020/01/31/mahabhagwat-devi-puran-teesra-adhyay/