वैशाख माह – माहात्म्य

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भगवद्भक्ति के लक्षण तथा वैशाख स्नान की महिमा

अम्बरीष बोले – मुनिश्रेष्ठ ! आपने बड़ी अच्छी बात बतायी, इसके लिए आपको धन्यवाद है। आप संपूर्ण लोकों पर अनुग्रह करने वाले हैं। आपने भगवान विष्णु के सगुण एवं निर्गुण ध्यान का वर्णन किया, अब आप भक्ति का लक्षण बतलाइए। साधुओं पर कृपा करने वाले महर्षे ! मुझे यह समझाइए कि किस प्रकार मनुष्य को कब, कहाँ, कैसी और किस प्रकार की भक्ति करनी चाहिए?

सूत जी बोले – राजाओं में श्रेष्ठ महाराज अम्बरीष के ये वचन सुनकर देवर्षि नारद जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उनसे बोले – राजन् ! सुनो, भगवान की भक्ति समस्त पापों का नाश करने वाली है, मैं तुमसे उस भक्ति का भली-भाँति वर्णन करता हूँ। भक्ति अनेकों प्रकार की बताई गई है – मानसी, वाचिकी, कायिकी, लौकिकी, वैदिकी तथा आध्यात्मिकी। ध्यान, धारणा, बुद्धि तथा वेदार्थ के चिन्तन द्वारा जो विष्णु को प्रसन्न करने वाली भक्ति की जाती है, उसे “मानसी” भक्ति कहते हैं। दिन-रात अविश्रान्त भाव से वेद मन्त्रों के उच्चारण, जप तथा आरण्यक आदि के पाठ द्वारा जो भगवान की प्रसन्नता का सम्पादन किया जाता है, उसका नाम ‘वाचिकी’ भक्ति है।

व्रत, उपवास और नियमों के पालन तथा पाँचों इन्द्रियों के संयम द्वारा की जाने वाली आराधना (शरीर से साध्य होने के कारण) ‘कायिकी’ भक्ति कही गई है, यह सब प्रकार की सिद्धियों का सम्पादन करने वाली है। पाद्य, अर्घ्य आदि उपचार, नृत्य, वाद्य, गीत, जागरण तथा पूजन आदि के द्वारा जो भगवान की सेवा की जाती है, उसे “लोकिकी” भक्ति कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के जप, संहिताओं के अध्ययन आदि तथा हविष्य की आहुति – यज्ञ-यागादि के द्वारा की जाने वाली उपासना का नाम ‘वैदिकी’ भक्ति है। विज्ञ पुरुषों ने अमावस्या, पूर्णिमा तथा विषुव (तुला तथा मेष की संक्रान्ति) आदि के दिन जो याग करने का आदेश दिया है, वह वैदिकी भक्ति का साधक है।

अब मैं योगजन्य आध्यात्मिकी भक्ति का वर्णन करता हूँ, सुनो ! योगज भक्ति का साधक सदा अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर प्राणायामपूर्वक ध्यान किया करता है, विषयों से अलग रहता है। वह ध्यान में देखता है – भगवान का मुख अनन्त तेज से उद्दीप्त हो रहा है, उनकी कटि के ऊपरी भाग तक लटका हुआ यज्ञोपवीत शोभा पा रहा है। उनका शुक्ल वर्ण है, चार भुजाएँ हैं। उनके हाथों में वरद और अभय की मुद्राएँ हैं। वे पीत वस्त्र धारण किये हुए हैं, उनके नेत्र अत्यन्त सुन्दर हैं। वे प्रसन्नता से परिपूर्ण दिखाई देते हैं। राजन् इस प्रकार योगयुक्त पुरुष अपने हृदय में परमेश्वर का ध्यान करता है।

जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठ को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार भगवान की भक्ति मनुष्य के पापों को तत्काल दग्ध कर देती है। भगवान श्रीविश्णु की भक्ति साक्षात सुधा का रस है, संपूर्ण रसों का एकमात्र सार है। इस पृथ्वी पर मनुष्य जब तक उस भक्ति का श्रवण नहीं करता – उसका आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे सैकड़ों बार जन्म, मृत्यु और जरा के आघात से होने वाले नाना प्रकार के दैहिक दु:ख प्राप्त होते हैं। यदि महान प्रभावशाली भगवान अनन्त का कीर्तन और स्मरण किया जाए तो वे समस्त पापों का नाश कर देते हैं, ठीक उसी तरह जैसे वायु मेघ का तथा सूर्यदेव अन्धकार का विनाश कर डालते हैं। राजन् ! देवपूजा, यज्ञ, तीर्थ-स्नान, व्रतानुष्ठान, तपस्या और नाना प्रकार कके कर्मों से भी अन्त:करण की वैसी शुद्धि नहीं होती जैसी भगवान अनन्त का ध्यान करने से होती है।

नरनाथ ! जिनमें पवित्र यश वाले तथा अपने भक्तों को भक्ति प्रदान करने वाले विशुद्ध स्वरुप भगवान श्रीविष्णु का कीर्तन होता है, वे ही कथाएँ शुद्ध हैं तथा वे ही यथार्थ, वे ही लाभ पहुँचाने वाली और वे ही हरिभक्तों के कहने-सुनने योग्य होती हैं। भूमण्डल के राज्य का भार संभालने वाले धीर चित्त महाराज अम्बरीष ! तुम धन्य हो क्योंकि तुम्हारा हृदय पुरुषोत्तम के ध्यान में एकतान हो रहा है तथा सौभाग्यलक्ष्मी से सुशोभित होने वाली तुम्हारी नैष्ठिक बुद्धि श्रीकृष्ण चन्द्र की पुण्यमयी लीलाओं के श्रवण में प्रवृत्त हो रही है। भूपते ! भक्तों को वरदान देने वाले अविनाशी भगवान श्रीविष्णु की भक्तिपूर्वक आराधना किये बिना अहंकारवश अपने को ही बड़ा मानने वाले पुरुष का कल्याण कैसे हहोगा। भगवान माया के जन्मदाता हैंं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता।

साधु पुरुष उन्हें भक्ति के द्वारा ही प्राप्त करते हैं, इस बात को तुम भी जानते हो। राजन् धर्म का कोई भी तत्त्व ऎसा नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो फिर भी जिनके चरण ही तीर्थ हैं, उन भगवान की चर्चा का प्रसंग उठाकर जो तुम उनकी सरस कथा को मुझसे विस्तार के साथ पूछ रहे हो – उसमें यही कारण है कि तुम वैष्णवों का गौरव बढ़ाना चाहते हो – मुझ जैसे लोगों को आदर दे रहे हो। साधु-संत जो एक-दूसरे से मिलने पर अधिक श्रद्धा के साथ भगवान अनन्त के कल्याणमय गुणों का कीर्तन और श्रवण करते हैं, इससे बढ़कर परम संतोष की बात तथा समुचित पुण्य मुझे और किसी कार्य में नहीं दिखायी देता।  

ब्राह्मण, गाय, सत्य, श्रद्धा, यज्ञ, तपस्या, श्रुति, स्मृति, दया, दीक्षा और संतोष – ये सब श्रीहरि के स्वरुप हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, पृथ्वी, जल, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा सम्पूर्ण प्राणी उस परमेश्वर के स्वरुप हैं। इस चराचर जगत को उत्पन्न करने की शक्ति रखने वाले वे विश्वरुप भगवान स्वयं ही ब्राह्मण के शरीर में प्रवेश करके सदा उन्हें खिलाया जाने वाला अन्न भोजन करते हैं इसलिए जिनकी चरण-रेणु तीर्थ के समान है, भगवान अनन्त ही जिनके आधार हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा तथा पुण्यमयी लक्ष्मी के सर्वस्व हैं, उन ब्राह्मणों का आदरपूर्वक पूजन करो। जो विद्वान ब्राह्मण को विष्णु बुद्धि से देखता है, वही सच्चा वैष्णव है तथा वही अपने धर्म में भली-भाँति स्थित माना जाता है। तुमने भक्ति के लक्षण सुनने के लिए प्रार्थना की थी, सो सब मैंने  तुम्हें सुना दिया, अब गंगा-स्नान करने के लिए जा रहा हूँ।

यह वैशाख का महीना उपस्थित है जो भगवान लक्ष्मीपति को अत्यन्त प्रिय है। इसकी भी आज शुक्ला सप्तमी हैं, इसमें गंगा का स्नान अत्यन्त दुर्लभ है। पूर्वकाल में राजा जह्नु ने वैशाख शुक्ला सप्तमी को क्रोध में आकर गंगा जी को पी लिया था और फिर अपने दाहिने कान के छिद्र से उन्हें बाहर निकाला था। अत: जह्नु की कन्या होने के कारण गंगा जी को “जाह्नवी” कहते हैं। इस तिथि को स्नान करके जो आकाश की मेखलाभूत गंगा देवी का उत्तम विधान के साथ पूजन करता है, वह मनुष्य धन्य एवं पुण्यात्मा है। जो वैशाख शुक्ला सप्तमी को विधिपूर्वक गंगा में देवताओं और पितरों का तर्पण करता है, उसे गंगा देवी कृपा-दृष्टि से देखती हैं तथा वह स्नान के पश्चात सब पापों से मुक्त हो जाता है। वैखाख के समान कोई मास नहीं है तथा गंगा के सदृश दूसरी कोई नदी नहीं हैं। इन दोनों का संयोग दुर्लभ है। भगवान की भक्ति से ही ऎसा सुयोग प्राप्त होता है।

गंगाजी का प्रादुर्भाव भगवान श्रीविष्णु के चरणों से हुआ है। वे ब्रह्मलोक से आकर भगवान शंकर के जटा-जूट में निवास करती हैं। गंगा समस्त दु:खों का नाश करने वाली हैं। वे अपने स्त्रोतों से निरन्तर प्रवाहित होकर तीनों लोकों को पवित्र करती रहती हैं। उन्हें स्वर्ग पर चढ़ने के लिए सीढ़ी माना गया है। वे सदा आनन्द देने वाली, नाना प्रकार के पापों को हरने वाली, संकट से तारने वाली, भक्तजनों के अन्त:करण में दिव्य प्रकाश फैलाने की लीला से सुशोभित होने वाली, सगर के पुत्रों को मोक्ष प्रदान करने वाली, धर्म मार्ग में लगाने वाली तथा तीन मार्गों से प्रवाहित होने वाली हैं।

गंगा देवी तीनों लोकों का श्रृंगार हैं। वे अपने दर्शन, स्पर्श, स्नान, कीर्तन, ध्यान और सेवन से हजारों पवित्र तथा अपवित्र पुरुषों को पावन बनाती रहती हैं। जो लोग दूर रहकर भी तीनों समय “गंगा, गंगा, गंगा” इस प्रकार उच्चारण करते हैं, उनके तीन जन्मों का पाप गंगाजी नष्ट कर देती हैं। जो मनुष्य हजार योजन दूर से भी गंगा का स्मरण करता है, वह पापी होने पर भी उत्तम गति को प्राप्त होता है।

राजन् ! वैशाख शुक्ला सप्तमी को गंगा जी का दर्शन विशेष दुर्लभ है। भगवान श्रीविष्णु और ब्राह्मणों की कृपा से ही उस दिन उनकी प्राप्ति होती है। माधव (वैशाख) – के समान महीना और माधव (विष्णु) – के समान कोई देवता नहीं है क्योंकि पाप के समुद्र में डूबते हुए मनुष्य के लिए माधव ही जहाज का काम देते हैं। माधव मास में जो भक्तिपूर्वक दान, जप, हवन और स्नान आदि शुभ कर्म किये जाते हैं, उनका पुण्य अक्षय तथा सौ करोड़ गुना अधिक होता है। जिस प्रकार देवताओं में विश्वात्मा भगवान नारायण देव श्रेष्ठ हैं, जैसे जप करने योग्य मन्त्रों में गायत्री सबसे उत्कृष्ट है, उसी प्रकार नदियों में गंगा जी का स्थान सबसे ऊँचा है। जैसे संपूर्ण स्त्रियों में पार्वती, तपने वालों में सूर्य, लाभों में आरोग्य लाभ, मनुष्यों में ब्राह्मण, पुण्यों में परोपकार, विद्याओं में वेद, मन्त्रों में प्रणव, ध्यानों में आत्मचिन्तन, तपस्याओं में सत्य और स्वधर्म-पालन, शुद्धियों में आत्मशुद्धि, दानों में अभयदान तथा गुणों में लोभ का त्याग ही सबसे प्रधान माना गया है, उसी प्रकार सब मासों में वैशाख मास अत्यन्त श्रेष्ठ है।

पापों का अन्त वैशााख मास में प्रात: स्नान करने से होता है। अन्धकार का अन्त सूर्य के उदय से तथा पुण्यों का अन्त दूसरों की बुराई और चुगली करने से होता है। राजन् ! कार्तिक मास में जब सूर्य तुला राशि पर स्थित हों, उस समय जो स्नान-दान आदि पुण्यकार्य किया जाता है, उसका पुण्य परार्धगुना अधिक होता है। माघ मास में जब मकर राशि पर सूर्य हो तो कार्तिक की अपेक्षा भी हजार गुना उत्तम फल प्राप्त होता है और वैशाख मास में मेष की संक्रान्ति होने पर माघ से भी सौ गुना अधिक पुण्य होता है। वे ही मनुष्य पुण्यात्मा और धन्य हैं जो वैशाख मास में प्रात:काल स्नान करके विधि-विधान से भगवान लक्ष्मीपति की पूजा करते हैं। वैशाख मास में सवेरे का स्नान, यज्ञ, दान, उपवास, हविष्य-भक्षण तथा ब्रह्मचर्य का पालन – ये महान पातकों का नाश करने वाले हैं।

राजन् ! कलियुग में वैशाख की महिमा गुप्त नहीं रहने पाएगी क्योंकि उस समय वैशाख-स्नान का माहात्म्य अश्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान से भी बढ़कर है। कलियुग में परम पावन अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान नहीं हो सकता। उस समय वैशाख मास का स्नान ही अश्वमेध-यज्ञ के समान विहित है। कलियुग के अधिकाँश मनुष्य पापी होगें। उनकी बुद्धि पाप में ही आसक्त होगी, अत: वे अश्वमेध के पुण्य को, जो स्वर्ग और मोक्षरुप फल प्रदान करने वाला है, नहीं जान सकेगें। उस समय के लोग अपने पापों के कारण ननरक में पड़ेगें। अतएव कलियुग के लिये अश्वमेध का प्रचार कम कर दिया गया और उसके स्थान पर वैशाख अमस के स्नान का विधान किया गया।