बृहस्पतिवार के दिन बृहस्पतिश्वर देव की पूजा व व्रत किया जाता है. स्नानादि से निवृत होकर सुबह पीले रंग के वस्त्र धारण कर के केले के पेड़ की पूजा की जाती है. हल्दी से तिलक कर के शुद्ध घी का दीया केले के पेड़ के नीचे जलाया जाता है. पीले फूल व थोड़ी सी चने की दाल लेकर पूजा की जाती है. शुद्ध जल में थोड़ा कच्चा दूध मिलाकर केले की जड़ में देते हैं. गुड़ तथा दक्षिणा भी चढ़ाई जाती है.
इस व्रत में एक समय का ही भोजन किया जाता है और यह भोजन पीला होना चाहिए जैसे चने की दाल या बेसन आदि से बना भोजन लेकिन यह भोजन मीठा होना चाहिए क्योंकि इस दिन व्रत में नमक का सेवन नहीं किया जाता है. इस दिन पीली वस्तुओं का दान भी करना चाहिए. बृहस्पतिवार के दिन केला नहीं खाना चाहिए क्योंकि इस दिन केले की पूजा होती है.
बृहस्पतिवार व्रत कथा – Fast Story Of Thursday
प्राचीन समय में एक साहूकार था जिसके घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी. घर में सभी सुख-सुविधाएं थी और अन्न-धन से भी घर भरा रहता था लेकिन घर में एक बड़ी कमी यह थी कि साहूकार की पत्नी बहुत ही कृपण थी. कभी किसी को भिक्षा नहीं देती थी और पूरे समय केवल घर के कामकाज में लगी रहती थी. एक समय की बात है कि उसके द्वार पर एक साधु महात्मा बृहस्पतिवार के दिन आए और भिक्षा माँगी. साहूकार की पत्नी उस समय घर के आँगन को लीप रही थी तो साधु से कहने लगी कि महाराज इस समय तो मैं अपना घर लीप रही हूँ आप फिर कभी आना.
साहूकारनी ने साधु को कुछ नहीं दिया और वह खाली लौट गए. कुछ समय बाद साधु महाराज दूसरी बार आए लेकिन साहूकारनी कहने लगी कि महाराज मैं लड़के को भोजन करा रही हूँ आप किसी अवकाश के समय आना. साधु बाबा खाली हाथ लौट गए. कुछ समय बाद साधु बाबा फिर आए और साहूकारनी ने उन्हें उसी तरह से टालना चाहा तो साधु तुरंत कहने लगे कि तुम्हें अगर सदा के लिए अवकाश मिल जाए तो क्या तब भिक्षा दोगी? साहूकारनी कहने लगी हाँ ! यदि ऎसा कुछ हो जाए तो मैं भिक्षा जरुर दूँगी.
साहूकारनी की बात सुन साधु कहने लगे कि मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ. तुम बृहस्पतिवार के दिन चढ़ने पर
उठना और सारे घर में झाड़ू लगाने के बाद कूड़ा इकठ्ठा कर घर के किसी कोने में जमा कर देना. घर में चौका मत लगाना. उसके बाद स्नान कर के घर के पुरुषों को कहना कि उस दिन हजामत जरुर बनाएँ. रसोई बनाकर घर में चूल्हे के पीछे रखना. सायंकाल को अंधेरा होने के बाद ही दीपक जलाना. बृहस्पतिवार को पीले वस्त्र कभी नहीं पहनना और ना ही पीली वस्तुओं का सेवन करना. साधु फिर आगे कहने लगे कि यदि तुम हर बृहस्पतिवार को ऎसा करोगी तो तुम्हें घर का कोई काम नहीं करना पड़ेगा, सदा अवकाश ही रहेगा.
साधु के कहे अनुसार साहूकारनी ने नियमित रुप से ऎसा ही किया और कुछ साल बाद ही उनके घर में खाने को अन्न का एक दाना भी नहीं बचा. थोड़े दिन बाद वहीं साधु महात्मा फिर आए और भिक्षा माँगी. साहूकारनी कहने लगी महाराज ! मेरे घर में खाने को एक दाना नहीं है तो मैं आपको क्या दे सकती हूँ. साधु बाबा कहने लगे कि जब तुम्हारे पास सब कुछ था तब भी तुम कुछ नहीं देती थी और अब पूरा अवकाश है तो अब भी कुछ नहीं दे रही हो? साधु बाबा बोले कि तुम क्या चाहती हो?
साधु की बात सुनकर साहूकारनी हाथ जोड़कर कहने लगी कि कोई ऎसा उपाय बताओ कि मेरे घर में पहले की तरह ही धन-धान्य हो जाए. मैं प्रण लेती हूँ कि जैसा आप कहेगें मैं ठीक वैसा ही करुंगी. सारी बातें सुन साधु महाराज कहने लगे कि बृहस्पतिवार के दिन प्रात:काल उठना और स्नानादि से निवृत होकर घर को गाय के गोबर से लीपना. घर के पुरुषों को कहना कि वे हजामत ना बनाएँ. भूखे व्यक्तियों को अन्न दान करना. सायंकाल होते ही घर में दीया जलाना. यदि तुम ऎसा करोगी तो बृहस्पतिवार की कृपा से तुम्हारी सभी मनोकामनाएँ पूरी होगी.
बृहस्पतिवार की दूसरी कहानी – Second Story Of Thursday
एक बार इन्द्र बहुत ही अहंकार के साथ अपने सिंहासन पर बैठा था. उसकी सभा में बहुत से देवता, ऋषि, गन्धर्व, किन्नार आदि भी मौजूद थे. जिस समय बृहस्पति जी वहाँ आए तो सभा में उपस्थित सभी उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन इन्द्र अपने अहंकार के कारण खड़ा नहीं हुआ जबकि वह उनका सदा आदर करता था. बृहस्पतिदेव अपना अपमान समझ वहाँ से चले गए. इसके बाद इन्द्र को अपनी गलती का अहसास हुआ कि मैने बहुत बड़ी गलती कर दी है. वह सोच में पड़ गया कि गुरु की कृपा से ही मुझे यह सब वैभव प्राप्त हुआ है और कहीं उनके क्रोध से यह सब नष्ट ना हो जाए.
इन्द्र के मन में जब पश्चाताप हुआ तो वह क्षमा माँगने के लिए बृहस्पति जी के पास गए लेकिन बृहस्पति ने अपने योगबल से यह जान लिया कि इन्द्र उनसे क्षमा माँगने आ रहा है तो वह अपने स्थान से अन्तर्ध्यान हो गए. इन्द्र को जब बृहस्पति देव नहीं मिले तो वह निराश हो वापिस लौट आए. दैत्यों के राजा वृषवर्मा को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा लेकर इन्द्रपुरी को चारों ओर से घेर लिया. गुरु की कृपा ना होने से देवता हारने लगे.
देवता अपनी हार देखकर ब्रह्मा जी के पास गए और उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया और कहने लगे कि आप हमें किसी भी तरह से दैत्यों से बचाइए. सारी बात जानकर ब्रह्मा जी कहने लगे कि तुमने गुरुदेव को नाराज कर बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया है. अब तुम्हारा कल्याण इसी में होगा कि तुम त्वष्टा ब्राह्मण के पुत्र विश्वरूप के पास जाओ. वह बहुत बड़ा ज्ञानी व तपस्वी है. उसे अपना पुरोहित बना लो तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है. यह सुनते ही इन्द्र त्वष्टा के पास गए और बड़ी विनती से कहने लगे कि आप हमारे पुरोहित बन जाइए जिससे हमारा उद्धार हो जाए.
इन्द्र की बात सुनकर त्वष्टा कहने लगे कि पुरोहित बनने से तपोबल कम हो जाता है लेकिन आप सब इतनी विनती कर रहे हो तो मेरा पुत्र विश्वरुप आपका पुरोहित बनकर आपकी रक्षा करेगा. विश्वरुप ने पिता की आज्ञा से पुरोहित बनकर ऎसा यत्न किया कि हरि इच्छा से इन्द्र वृषवर्मा को युद्ध में हरा देता है और जीत हासिल कर अपने सिंहासन को पुन: प्राप्त कर लेता है. विश्वरुप के तीन मुख थे जिनमें एक से वह सोमपल्ली लता का रस निकालकर पीते थे. दूसरे मुख से वह मदिरा पीते तो तीसरे मुख से वह अन्नादि भोजन करते थे.
कुछ दिन बाद इन्द्र, विश्वरुप से कहते हैं कि मैं आपकी कृपा से यज्ञ करना चाहता हूँ. इन्द्र ने विश्वरुप की आज्ञा से यज्ञ आरंभ कर दिया. जब यज्ञ आरंभ हुआ तो एक दैत्य ने विश्वरुप से कहा कि तुम्हारी माता एक दैत्य कन्या थी तो दैत्यों के कल्याण के लिए इस यज्ञ में एक आहुति दैत्यों के नाम की भी दे दोगे तो यह अति उत्तम रहेगा. विश्वरुप भी दैत्य की बात में आ गया और आहुति देते समय धीरे से वह दैत्य का नाम भी लेने लगा. अब इस यज्ञ के पूरा होने पर भी देवताओं का तेज नहीं बढ़ा. देवताओं के तेज ना बढ़ने का कारण जैसे ही इन्द्र को पता चला तो क्रोधित होकर वह विश्वरुप के तीनों सिर काट देता है.
विश्वरुप जिस मुख से मदिरापान करता था उससे भंवरा बना, जिस मुख से वह सोमपल्ली लता का रस निकालकर पीता था उस मुख से कबूतर बन गया और अन्न खाने वाले मुख से तीतर बन गया. इन्द्र ने ब्रह्म हत्या की थी जिसके प्रभाव से उसका स्वरुप ही बदल गया. देवताओं ने एक वर्ष तक ब्रह्महत्या का पश्चाताप किया लेकिन ब्रह्महत्या का यह पाप उनके सिर से नहीं उतरा तो सब देवताओं की प्रार्थना सुन ब्रह्माजी सहित बृहस्पति जी वहाँ आए. इस ब्रह्महत्या को चार भागों में विभाजित किया गया.
ब्रह्महत्या का पहला भाग पृथ्वी को दिया गया इस कारण पृथ्वी कहीं-कहीं ऊँची-नीची व बीज बोने लायक भी नहीं होती है. साथ ही ब्रह्माजी ने यह वरदान भी दिया कि पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गढ्ढा होगा तो कुछ समय बाद वह स्वयं ही भर जाएगा. ब्रह्महत्या का दूसरा भाग वृक्षों को दिया गया जिससे उनमें से गोंद बनकर बहता है. इस कारण गूगल के वृक्ष के अलावा बाकी सभी गोंद अशुद्ध समझे जाते हैं. साथ ही वृक्षों को यह वरदान मिला कि ऊपर से सूख जाने पर भी फिर से जड़ फूट जाएगी.
तीसरा भाग स्त्रियों को दिया इसीलिए स्त्रियाँ हर महीने रजस्वला होकर पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी, तीसरे दिन धोबिन के समान रहकर चौथे दिन शुद्ध होती हैं. साथ ही संतान प्राप्ति का वरदान भी दिया. ब्रह्महत्या का चौथा भाग जल को दिया जिससे जल के ऊपर फेन तथा सिवाल आदि जल के ऊपर आ जाते हैं. जल को यह वरदान मिला कि उसे जिस चीज में डाला जाएगा उसका वजन बढ़ जाएगा.
इस प्रकार इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली. जो मनुष्य इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है उसके सभी पाप बृहस्पति देव की कृपा से नष्ट हो जाएंगे.
बृहस्पतिवार की आरती – Brihaspativaar Ki Arti
जय वृहस्पति देवा, ऊँ जय वृहस्पति देवा.
छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा..
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी.
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी..
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता.
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ..
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े.
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्घार खड़े..
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी.
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी..
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारो.
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी..
जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे.
जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे..