शुक्रवार का व्रत

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शुक्रवार के व्रत में कथा कहते हुए अथवा कथा सुनते हुए हाथ में थोड़ा गुड़ व भुना हुआ चना रखते हैं और कथा सुनते हुए सभी लोग बीच-बीच में संतोषी माँ की जय बोलते रहें. कथा खतम होने पर हाथ में लिया गुड़-चना गाय को खिला दिया जाता है. संतोषी माता के व्रत में एक समय का भोजन किया जाता है लेकिन भोजन में खटाई का उपयोग वर्जित है अर्थात इस दिन व्रती को खट्टी चीजें नहीं खानी चाहिए.

जिस दिन संतोषी माता के व्रत का उद्यापन किया जाता है उस दिन जीमने वाली औरतों को भी पूरा दिन खट्टा नहीं खाना चाहिए अन्यथा जिसने व्रत का उद्यापन किया है उसका उद्यापन व संतोषी माता के लिए रखे गए सभी व्रत निष्फल हो जाएंगे. साथ ही खट्टा खाने वाले को भी दोष लगता है.

 

शुक्रवार व्रत कथा – Friday Fast Story

एक बुढ़िया थी जिसके सात बेटे थे जिनमें छ: बेटे कमाने वाले थे और एक बेटा कुछ भी नहीं करता था. बुढ़िया माँ अपने छहो बेटे के लिए भोजन बनाती और जो बाद में भोजन बचता उसे अपने सातवें बेटे को खिला देती थी. उसका सातवाँ बेटा भोला व सीधा था उसने माँ की इस बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया. एक दिन वह अपनी पत्नी को कहता है कि देखो मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है. पत्नी कहती है कि हाँ बहुत प्यार करती है तभी सभी का जूठा खाना तुम्हें खिलाती है. लड़का कहता है कि नहीं, ऎसा कभी नहीं हो सकता है. मैं जब तक अपनी आँखों से नहीं देख लेता मुझे विश्वास नहीं होगा. पत्नी भी कहती है कि जब देख लोगे तब मान जाओगे ना?

कुछ समय बीतने पर एक बड़ा त्यौहार आया तो घर में सात प्रकार के पकवान और चूरमा बना. लड़का जान-बूझकर सिर दर्द का बहाना बना रसोईघर में एक पतला कपड़ा मुँह पर डाल सोने का बहाना कर लेट गया. पतले कपड़े में से वह सब देखने लगा और तभी उसके छहो भाई भोजन करने आए. वह देखता है कि उसकी माँ ने उन सभी के लिए सुंदर आसन बिछाए और सात प्रकार की रसोई बनाई है. उसकी माँ उन सभी को आग्रह कर के भोजन कराती है, वह सब देखता रहा.

जब छहो भाई भोजन कर चले गए तब उसकी माँ ने उन सभी की थालियों में से लड्डू के बचे सभी भागों को मिलाकर उसके लिए एक लड्डू बना दिया. जूठन साफ करने के बाद उसकी माँ ने उसे आवाज लगाई कि बेटा तेरे भाईयों ने भोजन कर लिया है अब तू ही बचा है. चल उठ जा और भोजन कर ले. माँ की आवाज सुन वह बोला कि मुझे आज भोजन नहीं करना है और आज ही मैं परदेश जा रहा हूँ. उसकी बात सुन माँ ने कहा कि कल जाता आज चला जा तो वह बोला कि हाँ ! मैं आज ही और अभी जा रहा हूँ और यह कहकर वह घर से निकल गया. चलते समय उसे पत्नी का ध्यान आया जो गौशाला में गोबर के कण्डे थाप रही थी. वह बोलता है :-

 

दोहा –

हम जावें परदेश का, आवेंगे कुछ काल ।

तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल ।

 

वह बोली –

जाओ पिया आनन्द से हमरो सोच हटाय ।

राम भरोसे हम रहें, ईश्वर तुम्हें सहाय ।

देवो निशानी आपनी देख धरुँ मैं धीर ।

सुधि हमरी न बिसारियो रखियो मन गंभीर ।

फिर वह पत्नी से कहता है कि मेरे पास तुम्हें देने को कुछ नहीं है केवल एक अंगूठी है तो उसे तुम ले लो और अपनी कोई निशानी तुम मुझे दे दो. वह कहती है कि मेरे पास कुछ नहीं है देने को केवल गोबर से भरा यह हाथ ही है और यह कहकर वह गोबर से भरे हाथ की छाप उसकी पीठ पर मार देती है. उसके बाद वह चल देता है और चलते हुए दूर परदेश में पहुंच जाता है. उस परदेश में एक साहूकार की दुकान थी तो वह उस साहूकार से विनती करता है कि मुझे अपनी दुकान में कोई काम दे दो. साहूकार को भी एक लड़के की जरुरत थी तो वह उसे काम पर रख लेता है.

लड़का साहूकार से पूछता है कि मुझे कितनी तनख्वाह दोगे? तो साहूकार कहता है कि तुम्हारा काम देखकर दाम तय करुंगा. लड़का सुबह सात बजे से रात तक नौकरी करता और कुछ ही दिनों में दुकान के सारे लेन-देन का हिसाब और ग्राहकों को माल बेचने कासभी कुछ वह करने लगा. साहूकार के बाकी नौकर यह देखकर चकित थे कि यह तो बहुत होशियार बन गया है.

साहूकार भी उसके काम से खुश था तो तीन महीने के काम के बाद साहूकार ने उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया. बारह वर्ष काम करने पर वह एक नामी सेठ बन गया. साहूकार अपना सारा काम उसके भरोसे छोड़ बाहर चला गया.

इधर लड़के की पत्नी पर सास-ससुर ने बहुत अत्याचार किए. सारे घर का काम उसके कंधों पर डाल दिया. उसे लकड़िया लेने जंगल भेजते और जब भोजन करने की बारी आते तो आटे में से निकली भूसी की रोटी बना उसे खिलाते और नारियल की कटोरी में उसे पानी देते. इस तरह वह दिन काटती रही.

एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी तो रास्ते में बहुत सी स्त्रियाँ दिखाई दी जो संतोषी माता का व्रत कर रही थी. वहीं खड़ी होकर वह कथा सुनने लगी और फिर बोली कि तुम किस देवता का व्रत कर रही हो और इस व्रत के करने पर क्या फल मिलेगा? मुझे भी इस व्रत के करने की विधि बताओ. यदि आप इस व्रत को करने का विधान बताएंगी तो मुख पर आपका बड़ा अहसान होगा.

सारी बाते सुनने के बाद एक स्त्री कहती है – यह संतोषी माता का व्रत है. जो इस व्रत को करता है उसकी दरिद्रता व निर्धनता का नाश होता है और उसके घर में ल़क्ष्मी का वास सदा के लिए रहता है. मन की सारी चिन्ताएँ दूर होती हैं. घर में सुख-संपन्नता बढ़ती है और मन को प्रसन्नता व सुकून मिलता है. सारी बात सुनकर वह वहाँ से चल दी और जो लकड़ियाँ वह लाई थी वो सब रास्ते में ही बेच दी. जो पैसे मिले उसने उन पैसों का थोड़ा भुना चना व गुड़ खरीदा और व्रत की तैयारी कर आगे बढ़ गई.

आगे बढ़ने पर एक मंदिर दिखाई तो उसने पूछा कि यह किसका मंदिर है? वहाँ खड़े लोगों ने कहा कि यह संतोषी माँ का मंदिर है. यह सुनते ही वह मंदिर के अंदर गई और माता के चरणों में लेट गई. माता से विनती करने लगी कि मैं दीन हूँ, मैं निपट मूरख हूँ, मैं बहुत दुखी हूँ और मैं व्रत के नियम नहीं जानती हूँ. हे माता ! जगतजननी ! मेरा दुख भी आप दूर करें. माता ! मैं आपकी शरण में आई हूँ. सारी बातें सुन माता को उस पर दया आ गई.

पहले शुक्रवार उसने व्रत रखा और दूसरे शुक्रवार आते ही उसके पति का पत्र आ गया. तीसरे शुक्रवार आते ही उसके पति द्वारा भेजा पैसा भी आ गया. पैसा आया देख जेठानी ने ताना मारा कि इतने दिन बीतने पर पैसा आया तो इसमें कौन सी बड़ी बात है! घर के लड़के भी ताना मारने लगी कि काकी के पास अब पैसा आ गया है तो अब उनकी खातिर भी लोग करेगें और काकी तो अब हमारे बुलाने पर नहीं आया करेगी. उनकी बातें सुन वह सहजता से उत्तर देती कि पत्र आए या पैसा आए तो वह हम सभी के लिए है.

घर-परिवार के तानों से परेशान हो वह माता के मंदिर जाती और उनके चरणों में गिरकर रोने लगती और कहती कि माँ ! मैने आपसे पैसा या धन नहीं मांगा है? मुझे पैसे से क्या काम? मुझे तो मेरा सुहाग चाहिए. मैं आपसे अपने स्वामी की सेवा और उनके दर्शन माँगती हूँ. उसकी बातें सुन माता ने आशीर्वाद दिया कि जा बेटी तेरा सुहाग जरुर आएगा. यह सुनते ही वह खुशी के मारे बावली सी हो गई और घर जाकर काम काज में फिर से जुट गई.

बहू के जाने पर संतोषी माता सोचने लगी कि इसे तो मैंने कह दिया कि तेरा पति आएगा लेकिन वह तो इसे सपने में भी याद नहीं करता है. इसके पति को उसकी पत्नी की याद दिलाने मुझे ही जाना पड़ेगा. माँ संतोषी उसके पति के सपने में आकर कहती हैं कि साहूकार के बेटे तू सो रहा है या जाग रहा है? वह बोला कि हे माता ! मैं ना तो सो रहा हूँ और ना ही जाग रहा हूँ. आप कहें कि क्या आज्ञा है? माता ने कहा कि तेरा घर बार कुछ है कि नहीं? लड़के ने जवाब दिया कि सभी कुछ है. माँ, बाप, भाई, बहन और पत्नी सभी हैं. माँ बोली कि हे भोले पुत्र ! तेरी पत्नी घोर कष्ट उठा रही है क्योंकि तेरे माता-पिता उसे परेशान कर रहे हैं. वह तुझसे मिलने को तरस रही है तू उसकी खोज खबर ले.

लड़का कहता है कि मैं जाऊँ कैसे़? परदेश की बात है और लेन-देन का कोई हिसाब नहीं है तो जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा फिर कैसे चला जाऊँ? माता कहने लगी कि मेरी बात सुन ! सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीया जलाना और दंडवत प्रणाम कर दुकान पर बैठ जाना तब देखना कि तुम्हारा लेन-देन कैसे निबट जाता है. सारा माल बिक जाएगा और शाम होते-होते धन का ढेर लग जाएगा.

माता की बातें सुन लड़का अगले दिन सुबह जल्दी उठा, नहा-धोकर संतोषी माँ को प्रणाम कर घी का दीपक जलाया और दुकान पर बैठ गया. कुछ ही समय में देनदार रुपये लेकर आ गए और लेनदार अपना हिसाब कर चले गए. कोठे में रखे सामान के खरीददार नगद में सामान ले गए. शाम तक सारा सामान बिक गया और धन का ढेर लग गया. यह देख लड़का बहुत खुश हुआ और जो धन मिला था उससे वह घर ले जाने के लिए गहने व कपड़े खरीदने लगा. सारी खरीददारी कर वह तुरंत घर की ओर चल दिया.

इधर उसकी पत्नी रोज की तरह जंगल में लकड़ी लेने जाती है और जब थक जाती है तो रोज माँ के मंदिर में विश्राम करती है. आज जब वह विश्राम करने बैठी तो सामने से धूल उड़ती दिखाई दी. धूल देख वह माता से कहती है कि यह धूल कैसी उड़ रही हैं माँ! माता कहती है कि तेरा पति आ रहा है और अब तू ऎसा कर कि इन लकड़ियों के तीन ढेर बना ले. एक ढेर नदी किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर में और तीसरा अपने सिर पर रख ले.

तेरा पति जब तेरे सिर पर लकड़ी का बोझ देखेगा तो तुझसे उसे मोह होगा. वह वहाँ रुकेगा, खाना खा पीकर वह अपनी माँ से मिलने जाएगा. इसके बाद तू लकड़ी का बोझा लेकर अपने घर जाना और आँगन के बीचों बीच उस बोझे को डाल देना फिर तीन आवाजें लगाना – लो सासूजी लकड़ियों का ढेर ले आई, भूसी की रोटी दो और नारियल के खोपड़े में पानी दो. आज मेहमान कौन आया है? संतोषी माता की बात सुन “बहुत अच्छा माता” कह वह बहुत प्रसन्न होती है और लकड़ी के तीन ढेर ले आती है.

एक ढेर नदी के तट पर, एक माता के मंदिर में रखती है. इतने में ही मुसाफिर वहाँ आ पहुंचता है तो सूखी लकड़ी देख उसके मन में भोजन की इच्छा होती है कि यहीं निवास करे और भोजन बनाकर व खा पीकर ही गाँव की ओर चले. इस प्रकार लड़का भोजन बनाकर व खा-पीकर तथा थोड़ा विश्राम कर गाँव की ओर चला. वहाँ जाकर सभी से प्रेम के साथ मिला. कुछ ही देर में उसकी बहू सिर पर लकड़ियों का बोझ ले आई.

लकड़ी का भारी बोझ आँगन में गिराकर वह सासू जी को तीन आवाजें देती हैं – लो सासूजी लकड़ी का ढेर ले लो, भूसी की रोटी मुझे दे दो, नारियल के खोपरे में पानी दे दो. आज मेहमान कौन आया है? उसकी बात सुन सास अपने दिए कष्टों को छिपाने के लिए कहती है कि बहू! ऎसा क्यों कह रही हो? तेरा मालिक ही तो घर आया है. आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े गहने पहन ले. इतनी बाते सुन उसका स्वामी बाहर आता है और अंगूठी देख व्याकुल होकर माँ से पूछता है – माँ ! यह कौन है? माँ कहती है कि बेटा ! ये तेरी पत्नी है, आज बारह वर्ष बीत गए हैं, जब से तू गया है तब से सारे गाँव में जानवरों की तरह भटकती रहती है. घर का कामकाज कुछ करती नहीं है. चार समय आकर खाना खा जाती है. अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी माँग रही है.

लड़का बहुत लज्जित होकर बोलता है कि माँ ! मैने इसे भी देखा है और तुझे भी देखा है. अब तुम मुझे दूसरे घर की चाबी दो मैं उसी में रहूँगा. माँ गुस्से में चाबी पटकती है और जैसे तेरी मर्जी कहकर चली जाती है. लड़का चाबी लेकर घर की तीसरी मंजिल पर जाकर अपना सामान जमाता है. एक ही दिन में वहाँ राजा जैसे ठाट बाट हो जाते हैं. वे दोनों पति-पत्नी सुखपूर्वक रहने लगते हैं. अब अगला शुक्रवार आता है तब बहू अपने पति से कहती है कि मुझे संतोषी माता का उद्यापन करना है. पति ने भी कहा कि बहुत अच्छा है तुम उद्यापन करो. वह उद्यापन की तैयारी में लग जाती है. वह जेठ के बच्चों को उद्यापन में भोजन को कहती है. वह आने के लिए मान जाते हैं लेकिन उनकी माँ कहती है कि देखो बच्चों जब सब लोग भोजन करने लगे तब तुम खटाई माँगना जिससे कि उद्यापन पूरा ना हो सके.

लड़के जीमने आए और पेट भरकर खीर खाई लेकिन याद आने पर वह बोले कि हमें कुछ खटाई दो, हमें खीर खाना अच्छा नही लगता है. बहू ने कहा कि खटाई किसी को भी नहीं मिलेगी. यह संतोषी माता का प्रसाद है. बच्चे उसकी बात सुन उठ खड़े हुए और पैसे माँगने लगे. बहू भोली थी वह कुछ नहीं जानती थी इसलिए उसने बच्चों को पैसे दे दिए. बच्चे बाहर आए और पैसों की खटाई खरीद खा ली. यह देखकर माँ संतोषी ने बहू पर कोप प्रकट किया. उसी समय राजा के दूत आए और लड़के को पकड़ ले गए. जेठानी जलन के मारे कहने लगी कि अब सब मालूम हो जाएगा जब जेल की हवा खाएगा.

बहू जेठानी के कटु वचनों को सहन नही कर पाई और रोते हुए माता के मंदिर में गई. जाकर कहने लगी कि हे माता ! तुमने ये क्या किया? पहले हंसाया और अब रुला रही हो! माता ने कहा कि पुत्री ! तूने उद्यापन में मेरा व्रत भंग किया है. इतनी जल्दी सारी बाते भुला दी हैं. वह कहने लगी कि हे माता ! मैं कुछ नहीं भूली हूँ और ना ही कुछ अपराध किया है. मुझे तो उन बच्चों ने भूल में डाल दिया है. मैने भूलवश उन्हें पैसे दे दिए इसलिए मुझे क्षमा करो माँ.

माता कहती है कि ऎसी भी कोई भूल होती है! वह फिर कहती है कि मुझे माफ कर दो माता ! मुझसे भूल हो गई है. अपनी भूल सुधारने के लिए मैं फिर से आपका उद्यापन करुँगी. मां कहती है कि ठीक है लेकिन अब कोई भूल नही करना. वह कहती है कि अब भूल नहीं होगी, माँ ये तो बताओ कि मेरे स्वामी वापिस कैसे आएंगे? माँ ने कहा कि तू जा वह तुझे रास्ते में ही मिल जाएगा. वह घर की ओर चली तो राह में ही उसका पति उसे मिल गया.

उसने पूछा कि तुम कहां चले गए थे? वह कहने लगा कि इतना धन कमाया है तो उसका कर राजा ने माँगा था बस वही भरने गया था. वह प्रसन्न होते हुए कहती है भला हुआ अब घर चलो. कुछ समय बाद फिर शुक्रवार आया. वह फिर कहती है कि मुझे माता का उद्यापन करना है. पति ने कहा कि ठीक है कर लो. वह फिर से जेठ के बच्चों को भोजन के लिए कहने गई. जेठानी ने उन्हें दो बातें और सिखा दी कि इस बार भोजन करने से पहले ही तुम खटाई माँग लेना. जब लड़के भोजन करने गए तो भोजन के पहले ही वह कहने लगे कि हमें खीर नहीं खानी, ये हमें अच्छी नहीं लगती है, हमारा जी खराब होता है. कुछ खटाई खाने को दो.

बहू लड़को को कहती है कि खटाई नहीं मिलेगी तुम्हें खाना है तो खाओ नही तो वापिस चले जाओ. वह ब्राह्मण के बच्चों को लाई और उन्हें भोजन कराने लगी. अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन ब्राह्मण के बच्चों को दे दिया. इससे मां संतोषी भी प्रसन्न हुई और माता की कृपा से नवें महीने चन्द्र के समान मुख वाला पुत्र प्राप्त हुआ. पुत्र होने पर वह उसे ले रोज माता के मंदिर में जाने लगी. एक दिन माता ने सोचा कि यह रोज मंदिर आती हैं तब क्यूँ ना आज मैं इसके घर चलूँ! इसका आसरा देखूँ तो सही कैसा है? यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया – गुड़ और चने से सना मुँह, ऊपर से सूँड के समान होंठ, जिन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी.

माता ने जैसे ही बहू के घर की दहलीज पर पैर रखा तो उसकी सास चिल्लाई कि देखो रे! कौन चुड़ैल घर में चली आ रही है. अरे लड़को इसे भगाओ, नहीं तो यह किसी ना किसी को खा जाएगी. लड़के उसे देख डरकर खिड़की बंद करने लगे. बहू रोशनदान से सब देख रही थी. माता को देख प्रसन्नता से चिल्लाने लगी कि आज माता मेरे घर आई है. यह कहकर बच्चे को दूध पीने से हटा दिया. यह देख सास का गुस्सा और फूट पड़ा. वह बोली कि कुलछनी ! इसे देखकर कैसी उतावली हो रही है तू जो दूध पीते बच्चे को बीच में ही छोड़ आई. इतनी ही देर में माता के प्रताप से हर जगह लड़के ही लड़के नजर आने लगे. बहू कहती है कि माँ जी, मैं जिनका व्रत करती हूँ यह वही संतोषी माता है.

बहू अपनी बात कहते ही घर के सारे किवाड़ खोल देती है. सभी माता के चरण पकड़कर विनती करते हैं कि हे माता ! हम मूर्ख व पापी हैं, हम अज्ञानी हैं. तुम्हारे व्रत की विधि हम जान नही पाए. तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत बड़ा पाप किया है. हे माता ! आप हमारे अपराधों को क्षमा करें. इस प्रकार से विनती सुन माता प्रसन्न होती है. जैसा फल माता ने बहू को दिया था वैसा ही फल माता रानी सभी को दे. जो इस कथा को पढ़े अथवा सुनें उन सबका भला हो.

कहानी कहने के बाद माता की जय करनी चाहिए – बोलो संतोषी माता की जय !!

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