चैत्र माह के व्रत व त्योहार

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चैत्र माह में कई त्योहार मनाए जाते हैं जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है. इनमें से कुछ तो नाम मात्र के रह गए हैं. फिर भी कहीं ना कहीं इनका अस्तित्व अभी बचा हुआ है.

चैत्र माह की गणेश जी की कथा – Story Of Lord Ganesha In Chaitra Month

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सतयुग में एक समय में राजा मकरध्वज का राज था और यह बहुत ही धर्म-कर्म करने वाला राजा था. यह अपनी प्रजा को संतान की तरह पालते थे जिससे प्रजा सुखी व संपन्न थी. राजा पर मुनि याज्ञवल्क्य का अथाह स्नेह बरसता था और उन्ही के आशीर्वाद से राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई. मकरध्वज कहने को तो राजा थे लेकिन उनके राज्य का सारा कार्य उनका विश्वासपात्र मंत्री धर्मपाल संभालता था. धर्मपाल के पाँच पुत्र हुए और सभी का विवाह भी हो चुका था. उनकी सबसे छोटी पुत्रवधु गणेश जी का व्रत किया करती थी.

धर्मपाल की पत्नी को अपनी बहू का पूजा-पाठ करना और गणेश जी व्रत करना नहीं सुहाता था क्योंकि वह सोचती कि पूजा के बहाने उनकी पुत्रवधु जादू टोना करती है. सास ने अपनी बहू की पूजा व गणेश व्रत को रोकने के कई उपाय किए लेकिन बहू ने गणेश जी का व्रत रखना बंद नहीं किया, बहू की गणेश जी पर अत्यधिक आस्था बनी हुई थी इसलिए वह बहुत विश्वास व श्रद्धा से उनका व्रत रखती.

गणेश जी जानते थे कि बहू को सास द्वारा परेशान किया जा रहा है इसलिए उन्होने सास को सबक सिखाने की सोची और राजा के पुत्र को गायब कर दिया. ऎसा होने से पूरे राज्य में हाहाकार मच गया और गणेश जी की चालाकी से सास पर ही अपने बेटे को गायब करने का आरोप लग गया. सास चिन्ता में पड़ गई कि अब क्या होगा. उसकी चिन्ता को देख बहू ने सास के पैर पकड़ते हुए कहा कि आप गणेश जी का पूजन करें. वह विघ्न विनाशक है जो सारे विघ्नों को जड़ से दूर करते हैं. आपका भी सारा दुख दूर हो जाएगा.

बहू के काफी कहने से सास को विश्वास हुआ और उसने गणेश जी का व्रत व पूजन किया जिससे गणेश जी प्रसन्न हुए और राजा का पुत्र सकुशल घर लौट आया. अब सास अपनी बहू को कुछ नहीं कहती थी और दोनों ही प्रसन्न रहने लगी. अब गणेश जी का व्रत व पूजन दोनो मिलकर करने लगी.

गणगौर व्रत – Gangaur Fast

हिन्दु कैलेण्डर के अनुसार यह व्रत चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है. इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ व्रत रखती हैं. गणगौर शब्द मेंगणका अर्थ शिव से हैं और गौर का अर्थ पार्वती है. इस प्रकार दो शब्दों से मिलकर गणगौर शब्द बना है. भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती को और पार्वती जी ने तमाम स्त्रियों को सौभाग्यवर दिया था.

गणगौर की पूजा में मिट्टी की गौरी माँ अर्थात गौर बनाकर उस पर चूड़ी, महावर, सिन्दूर चढ़ाने का महत्व है. चन्दन, अक्षत, धूप-दीप तथा नैवेद्य से पूजा की जाती है और सुहाग सामग्री चढ़ाई जाती है. इसके बाद भोग लगाने का नियम है. जो भी स्त्री इस व्रत को करती है उसे गौर पर चढ़े सिन्दूर को अपनी माँग में लगाना चाहिए क्योंकि ऎसा करना बहुत ही शुभ माना जाता है.

इस व्रत में एक समय ही भोजन किया जाता है. गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित कहा गया है.

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गणगौर व्रत की कथा – Story Of Gangaur Fast

एक बार भगवान शंकर, नारद और पार्वती जी के साथ पृथ्वी का भ्रमण करने निकले. भ्रमण करते हुए वह तीनों एक गाँव में जा पहुंचे और उस दिन चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया थी. जब गाँव के लोगों को शंकर जी के आने की सूचना मिली तो धनी स्त्रियाँ उनके लिए नाना प्रकार के रुचिकर खाद्य पदार्थ बनाने में लग गई. दूसरी ओर निर्धन स्त्रियाँ जैसी बैठी थी वैसे ही थाल में हल्दी, चावल, जल ले जाकर शिव व पार्वती जी की पूजा-अर्चना में लग गई. इनकी अपार श्रद्धा-भक्ति देखकर पार्वती जी ने उन्हें पहचाना और भक्तिपूर्वक दी गई उनकी वस्तुओं को स्वीकार भी किया. इसके बाद पार्वती जी ने उन सबके ऊपर सुहागरूपी हल्दी छिड़क दी. मातेश्वरी गौरी माँ से आशीर्वाद तथा मंगल कामनाएँ लेकर वे सभी स्त्रियाँ अपने-अपने घर चली आई.

उनके जाने के बाद धनी स्त्रियाँ सोलह श्रृंगार, छप्पनों प्रकार के व्यंजन सोने के थाल में सजाकर आई. भगवान शंकर ने शंका व्यक्त करते हुए कहा – “पार्वती जी! तुमने सारा सुहाग प्रसाद तो साधारण स्त्रियों में बांट दिया, अब इन्हें क्या दोगी?” इस पर पार्वती जी ने कहा – आप कृपया ये बात छोड़ दें. उन साधारण स्त्रियों को ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है इसलिए उनका सुहाग धोती से रहेगा, लेकिन इन स्त्रियों को मैं अपनी अंगुली चीरकर रक्त सुहाग रस दूँगी जो मेरे समान ही सौभाग्यशाली बन जाएगी.

अस्तु, जब धनी स्त्रियाँ शिव और पार्वती जी का पूजन कर चुकी तो पार्वती जी ने अपनी अंगुली चीरकर उससे निकले रक्त को उनके ऊपर छिड़क दिया और कहा – तुम सभी वस्त्राभरणों का परित्याग कर मोह-माया से रहित होकर तन, मन, धन से पति सेवा करना. इस तरह से पार्वती जी को प्रणाम कर कुलीण स्त्रियाँ भी अपने घर लौट आईं और पति परायणा बन गई. पार्वती जी के द्वारा छिड़का हुआ खून जिसके ऊपर जैसा पड़ा था उसने वैसा ही सौभाग्य प्राप्त किया.

इसके पश्चात पार्वती जी ने पति की आज्ञा से नदी में जाकर स्नान किया और स्नान के पश्चात बालू के महादेव बनाकर उनका पूजन किया. भोग लगाया और प्रदक्षिणा की. प्रदक्षिणा कर दो कणों का प्रसाद खाया और मस्तक पर टीका लगाया. उसी समय उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती जी को वरदान दिया – आज के दिन जो भी स्त्री मेरी पूजा और तुम्हारा व्रत करेगी, उनके पति चिरंजीव रहेगें और अंत में उन्हें मोक्ष मिलेगा. भगवान शिव यह वरदान देकर अन्तर्धान हो गए.

इसके बाद पार्वती जी नदी तट से चलकर उस स्थान पर आई जहाँ वह पतिदेव शंकर तथा ऋषि नारद को छोड़कर गई थी. शिव जी ने देरी से आने का कारण पूछा तो इस पर पार्वती जी ने कहा – मेरे भाई-भाभी नदी के किनारे मिल गए थे और उन्होंने मुझे दूध-भात खाने का और ठहरने का आग्रह किया, इसी कारण मुझे देरी हो गई. ऎसा सुनकर अन्तर्यामी भगवान शिव खुद भी दूध-भात खाने चल दिए. पार्वती जी ने देखा कि पोल खुलने वाली है तब वह अधीर होकर पति से प्रार्थना करती हुई पीछे-पीछे चल दी. पार्वती जी ने जब नदी की ओर देखा तो एक सुंदर सा महल बना पाया. उसके अंदर प्[अर्वती जी के भाई-भाभी भी मौजूद थे. जब शंकर जी वहाँ पहुंचे तो उन लोगों ने सभी का बहुत आदर-सत्कार किया. दो दिन तक वह तीनों वहीं ठहरे रहे लेकिन तीसरे दिन देवी पार्वती सुबह ही वापिस चलने का आग्रह करने लगी लेकिन भगवान शंकर ने इसे ठुकरा दिया जिससे वह नाराज होकर अकेले ही जाने लगी. इस पर भगवान शंकर को भी उनका अनुसरण करना पड़ा. नारद जी भी साथ में ही थे.

तीनों लोग चलते-चलते काफी दूर निकल आए. शाम होने पर भगवान शिव ने बहाना बनाया कि मैं तो तुम्हारे मायके में अपनी माला ही भूल आया हूँ. पार्वती जी माला लाने को तैयार हुई लेकिन शिवजी ने आज्ञा नहीं दी. नारद जी माला लेने गए लेकिन वह देखते हैं कि उस स्थान पर तो कोई महल नहीं है और ना ही पार्वती जी के भाई-भाभी तथा अन्य किसी वस्तु का नामो निशान ही है. माला भी उन्हें कहीं नहीं दिखाई दी बल्कि घना अंधकार छाया हुआ था और नरसंहार करने वाले हिंसक पशु घूम रहे थे. यह भयानक वातावरण देखकर नारद बहुत चकित हुए. अचानक बिजली चमकने से वृक्ष पर टंगी माला उन्हें दिखाई दी. उसे ले भयभीत हुए वह जल्दी शंकर जी के पास पहुंच गए.

भगवान शंकर को नारद जी ने सारा वृतांत कह सुनाया. सब जानकर हंसते हुए भगवान शंकर ने इसका कारण नारद जी को बताया – हे मुनि! आपने जो कुछ भी देखा वह सब पार्वती की अनोखी माया का प्रतिफल है. वे अपने पार्थिव पूजन की बात को आपसे गुप्त रखना चाहती थी, इसलिए उन्होंने झूठा बहाना बनाया था. असत्य को सत्य बनाने के लिए उन्होंने अपने पतिव्रत धर्म की शक्ति से झूठे महल की रचना की. इस सच्चाई को सामने लाने के लिए ही मैने माला लाने के लिए तुम्हें दुबारा उसी स्थान पर भेजा. सभी कुछ जानकर नारद जी ने मुक्त कंठ से पार्वती जी की प्रशंसा की. पूजन को छिपाने का जहाँ तक सवाल है तो पूजा गुप्त रुप से ही करनी चाहिए.

पार्वती जी के अनुसार जो स्त्रियाँ इस दिन को गुप्त रुप से पति का पूजन कार्य संपादित करेगी उनकी कृपा से समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होगी. उनके पति भी चिरंजीवी रहेगें. जिस प्रकार पार्वती जी ने व्रत को छिपाकर किया था उसी परंपरा के अनुसार आज भी पूजन के अवसर पर पुरुष उपस्थित नहीं रहते हैं.

 

गणगौर पूजन का गीत – Song For Gangaur

गौर-गौर गोमती, ईसर पूजे पार्वती।

पार्वती का आला-गीला, गौर का सोना का टीका,

टीका दे टमका दे रानी, व्रत करयो गौरा दे रानी।

करता-करता आस आयो, मास आयो।

खोरे-खाण्डे लाडू ल्यायो, लाडू ले वीरा न दीयो,

वीरो मने पाल दी, पाल को मैं बरत करयो।

सन-सन सोला कचौला, ईसर गौरा दोन्यू जोड़ा।

जोड़ जवारो गेहूँ ग्यारह, रानी पूजे राज ने।

मैं म्हाके सवाग ने, रानी को राज बढ़ते जाय, म्हाको सवाग बढ़तो जाय।

 

कीड़ी-कीड़ी कीड़ी ले, कीड़ी थारी जात है।

जात है गुजरात है गुजरात्यां रो पाणी, देदे थाम्बा ताणी,

ताणी में सिंघाड़ा, बाड़ी में भी जोड़ा।

म्हारो बाई एमल्यो, खेमल्यो, लाडू ल्यो पेड़ा ल्यो सेव ल्यो

सिंघाड़ाल्यो, झर झरती जलेबी ल्यो, हरी-हरी दोब ल्यो गणगौर पूजल्यो

(यह आठ बार या सोलह बार बोलना है)

अंत में – एक ल्यो, दो ल्यो, तीन ल्यो, चार ल्यो, पांच ल्यो, छ्: ल्यो, सात ल्यो, आठ ल्यो।

फिर हाथ में गेहूँ के आखे व जवारे लेकर गणगौर की कहानी कहनी या सुननी है.

संकष्ट श्री गणेश चतुर्थी व्रत/दमनक चतुर्थी व्रत – Sankasht Shri Ganesha Vrat/Damnak Chaturthi Vrat

भविष्य पुराण के अनुसार जब-जब मनुष्य को भारी कष्टों का सामना करना पड़े, मुसीबतों से घिरा हुआ महसूस करें या किसी मुसीबत के आने की आशंका हो तब उस स्थिति में संकष्ट चतुर्थी का व्रत करना चाहिए. इस व्रत के प्रभाव से लोक व परलोक दोनों में सुख मिलता है. व्रती के सभी दुखों का अंत होता है. धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस व्रत को करने से मनुष्य मनोवांछित फल पाकर गणपति को पाता है.

इस व्रत को करने से विद्यार्थी को विद्या, धनार्थी को धन, पुत्रार्थी को पुत्र और रोगी को आरोग्य मिलता है. महाराज युधिष्ठिर ने जब इस व्रत को किया तो उन्होंने युद्ध में अपने शत्रुओं को मारकर राज्य प्राप्त किया. जब रावण को बालि ने बंदी बनाया तो इसी व्रत को रावण ने किया जिसके प्रभाव से उसने अपनी लंका को फिर से पा लिया था. हनुमान जी ने इस व्रत को किया तो उन्हें सीता माता का पता लगा कि वे कहां है.

त्रिपुर को मारने के लिए शिवजी ने भी इस व्रत को किया था. दमयंती ने इस व्रत को अपने पति नल को पाने के लिए किया और उन्हें राजा नल का पता लग गया. तीनों लोकों की विभूति पाने के लिए इन्द्र ने भी इस व्रत को किया था. माता पार्वती ने शिवजी को पति रुप में पाने के लिए इस व्रत को किया.

इस व्रत को दिन भर रखने के पश्चात रात्रि में चंद्रमा को अर्ध्य देते हैं और साथ में गणेश जी का ध्यान रखते हुए उनसे सभी विघ्नों को हरने की प्रार्थना भी करते हैं. अर्ध्य देते हुए नमस्कार कर के कहें कि हे देव ! सब संकटों का हरण करें.

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संकष्ट चतुर्थी की पौराणिक कथा – Old Story Of Sankasht Chaturthi

इस पौराणिक कथा का उल्लेख श्रीस्कंद पुराण में मिलता है. भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन अपने खोये राजपाट को पुन: पाने का उपाय पूछते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें संकष्ट चतुर्थी का व्रत रखने का परामर्श देते हैं. वह कहते हैं कि इस व्रत की अत्यधिक महिमा है. इस व्रत को करने से राजा नल अपने खोये राज्य को दुबारा पा लेते हैं. श्रीकृष्ण आगे कहानी कहते हैं :-

सतयुग में नल नामक एक राजा था और दमयंती उनकी पत्नी थी जो रुपवान थी. राजा नल पर जब विकट समय आया तो उनके महल को आग ने अपने भीतर समा लिया. चोर उनके बचे खुचे धन व हाथी-घोड़ो को चुरा ले गए. जो अंतिम धनराशि थी वह भी राजा जुए में हार गया और मंत्रीगण भी धोखा देकर चले गए थे. अब राजा नल अपनी पत्नी दमयंती के साथ वन में भटकने लगा और भारी कष्टों का सामना करना पड़ा लेकिन इस व्रत के प्रभाव से राजा नल ने अपना खोया साम्राज्य पुन: प्राप्त कर लिया.

 

अशोकाष्टमी – Ashokashtami

चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को अशोकाष्टमी का त्योहार मनाया जाता है. इस दिन अशोक के वृक्ष की पूजा की जाती है.

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अशोकाष्टमी व्रत कथा – Story Of Ashokashtami Fast

अशोकाष्टमी के माहात्म्य के पीछे यही कहा गया है कि रावण की लंका में सीता जी अशोक वृक्ष के नीचे बैठी थी और इसी वृक्ष के नीचे सीता जी को हनुमान द्वारा संदेश व अंगूठी मिली थी जो श्रीराम जी ने भिजवाया था. इस प्रकार इस दिन अशोक के वृक्ष के नीचे भगवती जानकी तथा हनुमान जी का पहला संपर्क हुआ. इस दिन अशोक वृक्ष के नीचे सीता जी तथा हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित कर विधिवत रुप से पूजा करनी चाहिए और रामचरित मानस से हनुमान जी द्वारा सीता जी की खोज कथा सुननी चाहिए. ऎसा करने से विवाहित स्त्रियों का सौभाग्य अचल रहता है.

इस दिन अशोक वृक्ष की कलिकाओं का रस निकालकर पीना चाहिए इससे शरीर के सभी रोग-विकार समाप्त हो जाते हैं.

दुर्गाष्टमी – Durgashtami

चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को ही दुर्गाष्टमी भी मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन पर्वतराज की पुत्री पार्वती जी ने अवतार लिया था. इस दिन कुंवारी कन्याएँ तथा सुहागिनें पार्वती जी की गोबर से बनी प्रतिमा का पूजन करती है. नवरात्रों के बाद इस दिन दुर्गा जी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है. इसलिए इसे दुर्गाष्टमी कहते हैं.

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रामनवमी – Ram Navami

चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र तथा कर्क लग्न में भगवान राम का जन्म हुआ था. भारतीय परंपरा में यह पर्व महान पर्व के रुप में मनाया जाता है. इस दिन लोग सरयू नदी में स्नान कर के पुण्य लाभ कमाते हैं. इस दिन रामचरित मानस का पाठ करना अथवा सुनना चाहिए. इससे अगले दिन भगवान राम का विधिवत पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें सामर्थ्यानुसार दान-दक्षिणा देनी चाहिए.

इस व्रत को करने के साथ ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र के आदर्शों को सह्रदय अपनाना चाहिए. भगवान राम की गुरु सेवा, मातृ प्रेम, भ्रातृ प्रेम आदि को जीवन में अपनाना चाहिए. भगवान जाति-पांति का भेद भी नहीं करते थे और शरणागत की रक्षा भी करते थे, एक पत्नीव्रता थे. इस दिन हरेक मनुष्य को प्रण करना चाहिए कि वह श्रीराम के बताए सन्मार्ग पर चले.

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कामदा एकादशी – Kamda Ekadashi

चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को कामदा एकादशी कहते हैं. इस व्रत को करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट होते हैं और उसके सभी काम सफल होते जाते हैं जिससे वह सुख समृद्धि पाता है.

कामदा एकादशी व्रत कथा – Kamda Ekadashi Fast Story

एक समय की बात है पुण्डरीक नामक राजा नागलोक में राज्य करता था. राजा अत्यधिक विलासी था और उसकी सभा में अनेकों अप्सराएँ, गंधर्व व किन्नर नृत्य करते थे. एक बार की बात है कि उसकी सभा में ललित नाम का एक गंधर्व नृत्य कर रहा था और अचानक नृत्य करते हुए उसे अपनी पत्नी का ध्यान हो गया जिससे उसका नृत्य अरुचिकर लगने लगा. उसी सभा में कर्कट नाम का भांड था जिसने ललित की बात को जान लिया और राजा को जाकर कह दिया.

पुण्डरीक नागराज को यह बात सुनकर बहुत क्रोध आया और उसने ललित को राक्षस बन जाने का शाप दे दिया. ललित नाम का गंधर्व सहस्त्रों वर्षों तक राक्षस योनि में अनेकों लोकों में भटकता रहा. ललित की पत्नी ललिता भी अपने पति का अनुसरण कर उसी के साथ भटकती रही. एक बार घूमते-घूमते दोनों शापित दंपत्ति विन्ध्याचल पर्वत के शिखर तक पहुंच गए जहाँ उन्हें श्रृंगी नामक मुनि का आश्रम मिला.

दोनों की करुणाजनक हालत देखकर मुनि को उन पर दया आ गई. श्रृंगी मुनि दोनो को चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत रखने की सलाह देते हैं. मुनि की बात सुन दोनों उनके बताए नियमों का पालन करते हैं और कामदा एकादशी का व्रत रखते हैं. व्रत रखने के प्रभाव से इन दोनों का श्राप खतम हो जाता है. दोनो दिव्य शरीर को प्राप्त कर स्वर्गलोक में जाते हैं.

वारुणी व्रत – Varuni Fast

इस पूजा को चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को किया जाता है. इस दिन गंगा जी में स्नान करने का माहात्म्य है. सब जगह की सामग्री से गंगाजी की पूजा की जानी चाहिए. इस दिन कच्ची कैरी तथा श्रीफल का दान करना चाहिए.

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हनुमान जयन्ती (चैत्र पूर्णिमा) – Hanuman Jayanti (Chaitra Poornima)

चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन माता अंजनी के गर्भ से रामभक्त हनुमान जी का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन को हनुमान जयन्ती के रुप में मनाया जाता है. इस दिन हनुमान जी की प्रतिमा को सजाया जाना चाहिए. पूजा कर के आरती की जानी चाहिए. उसके बाद हनुमान जी को भोग लगाकर सबको प्रसाद बांटना चाहिए. अगर किसी घर में लड़की झै तो उसे अपने हाथ से जिमा दें, इससे लड़की की उम्र बढ़ेगी और उसके कष्ट कटेंगे. भगवान की पूजा कर के सामर्थ्यानुसार दान देना चाहिए.  

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धूलैंडी अथवा छारेड़ी अथवा धूलिका पर्व – Dhulaindi Or Dhulika Festival

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चैत्र माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को धूलि का त्यौहार मनाया जाता है. इसे होलिका दहन के अगले दिन मनाया जाता है. इस दिन होलिका दहन की जो राख होती है उसकी वंदना की जाती है. वैदिक मंत्रों से अभिषिक्त उस राख को लोग मस्तक पर लगाते हुए एक-दूसरे से प्रेम से मिलन करते हैं. दिन की दूसरी बेला में रंग, गुलाल, अबीर, कुमकुम, केसर की बौछार लगाई जाती है.

वर्तमान समय में होलिका की राख को लगाने की परंपरा लुप्त हो रही है और सुबह से दोपहर तक रंग, गुलाल तथा पानी एक-दूसरे पर डालने की परंपरा जोर पकड़ रही है.

 

सांपदा का डोरा – Sampada Ka Dora

सांपदा का डोरा होली के अगले दिन धुलैंडी के दिन मनाया जाता है. धुलैंडी से एक दिन पहले कच्चे सूत के सोलह तार लेके उसे जलती होली को दिखाकर रख लेते हैं. उसके बाद उसमें सोलह गाँठ लगाकर हल्दी से पीला कर लेते हैं. फिर जल का एक लोटा, रोली व चावल रखते हैं और लोटे पर सतिया(स्वस्तिक)बनाते हैं. चावल चढ़ाने के बाद नए जौ के सोलह दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है. जो डोरा बनाया है उसे गले में पहन लेते हैं. उसके बाद जब वैशाख का महीना आता है तब उसे डोरे को खोलते हैं.

जिस दिन डोरा खोलते हैं उस दिन साँपदा माता का व्रत कर के व कहानी सुनकर डोरा खोल देते हैं. जिस दिन डोरा पहनते हैं उस दिन हाथ में जो दाने कहानी सुनने के लिए लेते हैं उन दानों को संभालकर रख देते हैं. फिर जिस दिन डोरा खोलते हैं तब वही दाने लेकर सूर्य को अर्ध्य देते हैं. उसके बाद भोजन करते हैं.  

किसी घर में लड़के का जन्म हुआ हो अथवा लड़के का विवाह हुआ है तो उसी साल सांपदा माता का उद्यापन भी होता है. चार-चार पूड़ी व हलवा सोलह जगह रखकर अपने सामर्थ्यानुसार कपड़े व रुपए भी रखकर सास को देते हैं. सोलह ब्राह्मणियों को जिमाकर दक्षिणा देते हैं.

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साँपदा माता की कथा – Story Of Sampada Mata

एक राजा था जिसका नाम नल था जिसकी रानी का नाम दमयन्ती था. एक दिन महल के नीचे एक बुढ़िया आई जो साँपदा माता का डोरा दे रही थी और कहानी सुना रही थी. वहाँ बहुत भीड़ जमा हो गई थी. सभी स्त्रियाँ बुढ़िया से डोरा ले जा रही थी. रानी ने देखा तो अपनी दासी से कहा कि नीचे जा और देख कि किस बात के लिए इतनी भीड़ जमा है. वह नीचे देखकर आई और वापिस आकर बोली कि एक बुढ़िया साँपदा का डोरा बाँट रही है इससे धन लक्ष्मी आती है. दासी ने बताया कि साँपदा का डोरा कच्चे सूत के सोलह तारों से बनाकर हल्दी में रखकर गले में पहनते हैं और सोलह दाने नई जौ के हाथ में ले कहानी सुनते हैं.

दासी की सारी बातें सुनकर रानी ने भी साँपदा माता के डोरे की पूजा कर अपने हार के साथ बाँध लिया. राजा नल बाहर गए हुए थे जब वह वापिस आए तो उन्होंने रानी के हार के साथ बंधे डोरे को देख पूछा की यह क्या है? रानी ने बताया कि यह साँपदा माता का डोरा है और इससे धन लक्ष्मी आती है. राजा ने कहा कि हमारे पास तो बहुत लक्ष्मी है तो फिर यह किसलिए और रानी के मना करने पर भी राजा ने डोरा तोड़ कर फेंक दिया. साँपदा माता ने यह देख राजा के सारे धन को कोयला बना दिया.

धन का अभाव होने पर किसी ने राजा की सहायता नहीं की और वह अपना राज्य छोड़ दूसरे राज्य में आ गये लेकिन वहाँ उन पर रानी का हार चुराने का आरोप लग गया. राजा बहन के घर गया तो बहन ने भी उनको नहीं पूछा और भगा दिया. भटकते हुए वे एक सरोवर के किनारे बैठ गए और तीतर पकड़ उसे भूनकर खाने लगे लेकिन वह तीतर भी उड़ गए. अपनी इस गरीबी को दूर करने के राजा नल व दमयन्ती ने एक मालिन के घर काम करना शुरु किया. रानी फूलों की माला बना उन्हें बेचने जाती थी. एक बार वह माल बेचने गई तो वहाँ साँपदा माता की कहानी सुन रही थी.

रानी ने औरतों से पूछा कि तुम क्या कर रही हो वे बोली कि हम साँपदा माता की कहानी सुन रही है. उन्हें देख रानी ने भी साँपदा माता का डोरा बनाया और कहानी सुनी. साँपदा माता ने प्रसन्न होकर राजा को सपने में कहा कि मैं तेरे पास आऊँगी तब राजा बोला कि मुझे कैसे पता चलेगा कि तुम मेरे पास आओगी. साँपदा माता ने कहा कि जब्न तुम कुएँ से पानी भरने जाओगे तो पहली बार जौ निकलेगें और दूसरी बार हल्दी की गाँठ निकलेगी और तीसरी बार में कचा सूत निकलेगा. उसके बाद रानी साँपदा माता का डोरा लेकर घर गई और साँपदा माता ने उन्हें बहुत सा धन दिया.

अब राजा रानी कहने लगे कि हमें अपना राज्य छोड़े बारह साल हो गए हैं अब हमें वापिस जाना चाहिए. सांपदा माता का दिया धन लेकर वह वापिस जाने लगे तब मालिन ने भी बहुत सा धन दिया. रास्ते में उन्हे वह राजा मिला जिसने हार चोरी का इलजाम लगाया था तो अब वह राजा नल को नए महल में ठहराने गया लेकिन नल ने कहा कि हमें तो उसी महल में ठहरना है जहाँ हार चोरी हो गया था. राजा वहाँ गया तो देखा कि जो हार मोर ले गया था वह अब खूँटी पर टंगा है. अब उनका यह कलंक उतर गया था.

बहन के घर गया तो बहन ने भी नए महल में ठहरने को कहा तो राजा ने कहा कि जहाँ पहले रुके थे वहीं रहेगें और वहाँ जाकर देखा कि जो जमीन बछिया निगल गई थी वह वापिस आ गई है. राजा अब समझ गया था कि ये सब क्यूँ हो रहा है और कहने लगा कि अब हमारे अच्छे दिन आ गए हैं. अब वह आगे बढ़ने लगे तो उसी सरोवर के किनारे पहुंचे जहाँ तीतर भूने थे तो देखा कि जो तीतर उड़ गए थे वे वहीं पड़े हैं. आगे राजा रानी महल की ओर चले तो देखा कि महल का जो दरवाजा टेढ़ा हो गया था वह अब सीधा हो गया है.

सोने की झारी आ गई थी, दातन हरी हो गई थी और जिस ब्राह्मण की बेटी को वह महल में दीया जलाने को छोड़ गए थे उन्होंने उसे बेटी बना लिया और बहुत सा धन देकर उसका विवाह कराया. उसके विवाह के बाद राजा रानी ने साँपदा माता का उद्यापन किया. कहानी के बाद कहना चाहिए कि हे साँपदा माता ! जैसी आपने राजा रानी की सुनी वैसे ही सबकी सुनना.

बसोड़ा अथवा बासड़े – Basoda Or Basode

बसोड़ा का अर्थ है बासी और इस त्योहार को होली पर्व से सात अथवा आठ दिन बाद मनाया जाता है. इसके अलावा जिनके जो रीति-रिवाज है वह बसोड़े वैसे ही मनाते हैं. बसोड़ा मनाने से एक दिन पहले रात में मीठे चावल बनाते हैं और अगले दिन का सारा खाना भी बनाकर रख लेते हैं क्योंकि बसौड़े वाले दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है. परन्तु वर्तमान समय में कई स्थानों पर अब कुछ बदलाव आ गया है वह यह है कि कुछ लोग केवल बसोड़े की पूजा के लिए एक दिन पहले की रात में मीठे चावल पूजा के लिए बना लेते हैं.

बसोड़े से एक दिन पहले बसोड़े के गीत गाये जाते हैं लेकिन अब कई जगहों पर इसका रिवाज भी लुप्त हो रहा है क्योंकि एकल परिवार का चलन बढ़ रहा है और शहरों में इन बातों को लोग भूलते जा रहे हैं. एक दिन पहले रात को हाथ में मेहंदी भी लगाई जाती है और अगले दिन की पूजा के लिए मोठ, चना अथवा बाजरा भिगो देते हैं. बसोड़े वाले दिन सभी भिगी चीजों को एक थाली में रख लेते हैं. थोड़ी हल्दी भी साथ ही रख लेते हैं और कुछ स्थानों पर बड़कुल्ला (यह गोबर के छोटे-छोटे उपलों से बनी माला होती है जिसे होली से पहले बनाते हैं और होली जलाने के लिए उस पर चढ़ा देते हैं उनमें से एक माला बसोड़े पर चढ़ाने के लिए रख लेते हैं)की माला भी रखते हैं और उसे पूजा स्थान पर चढ़ा देते हैं.

सुबह के समय सारा सामान इकठ्ठा कर शीतला माता की पूजा करते हैं. भीगे हुए मोठ, चना और बाजरा चढ़ाते हैं हल्दी का तिलक लगाते हैं और साथ में कुछ दक्षिणा भी चढ़ाते है. मीठे चावल भी यहाँ माता पर चढ़ाए जाते हैं और खाने की कुछ चीजों को सफाई करने वाली को भी देते हैं. सभी अपने-अपने रिवाज के अनुसार बसोड़े की पूजा करते हैं.

बसोड़े वाले दिन सुबह ठंडे पानी से नहाना चहिए और जिन माताओं के बच्चे अभी माता का दूध पीते हो तब उन्हें बसोड़े के दिन नहाना नहीं चाहिए.

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बसोड़े की कहानी – Story Of Basoda

एक बुढ़िया माई थी जो बसोड़े की पूजा करती थी इसलिए वह ठण्डी रोटी खाती थी और शीतला माता की पूजा करती थी. एक दिन गाँव में आग लग गई और बुढ़िया का घर छोड़ सारा गाँव आग में जल गया. गाँव वाले बुढ़िया माई के पास आए और कहने लगे कि सारा गाँव जल गया लेकिन तू बच गई, ये कैसे हुआ? बुढ़िया ने कहा कि मैने बसोड़े की ठंडी रोटी खाई थी और शीतला माता की पूजा की थी इसलिए तुम्हारे घर जल गए और मैं बच गई, तुमने किसी ने बसोड़े की पूजा नहीं की.

अब सारे गाँव में ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि सब कोई बसोड़े की पूजा करें और ठंडी रोटी खाए. शीतला माता की पूजा करें. जिस दिन शीतला माता की पूजा करनी हो उससे एक दिन पहले सारा खाना बनाकर रखें. हे शीतला माता ! जैसे बुढ़िया माई की रक्षा की वैसे ही सबकी रक्षा करना. सबके बच्चों की रक्षा करना.

पापमोचनी एकादशी – Papmochini Ekadashi

एकादशी का यह व्रत चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु की षोडशोपचार से पूजा करते हैं और अर्ध्यदान करते हैं. दिन भर व्रत कर के संध्या समय में फलाहार करते हैं.

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पापमोचनी एकादशी व्रत कथा – Papmochini Fast Story

प्राचीन समय की बात है, एक चैत्रमास नाम का अति सुंदर वन था. इस वन में इन्द्र गंधर्व कन्याओं व देवताओं के साथ स्वच्छंद विहार किया करते थे. इसी वन में मेधावी नाम के ऋषि भी तपस्या करते थे. ऋषि शैव के उपासक तथा अप्सराएँ शिवद्रोहिणी अनंग दासी थी. एक समय की बात है कि रतिनाथ कामदेव मेधावी ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए मंजुघोषा नाम की अप्सरा को नृत्य गान के लिए भेजते हैं. ऋषि युवा थे तो अप्सरा के हाव भाव, नृत्य, तथा कटाक्षों पर कामस्वरुप मोहित भी हो गए तथा रति क्रीड़ा करते हुए उन्हें 57 वर्ष बीत गए.

मंजुघोषा अप्सरा ने एक दिन उनसे जाने की आज्ञा माँगी और आज्ञा मांगने पर मुनि के कानों पर चींटी दौड़ी तब उन्हें आत्मज्ञान हुआ. उनके रसातल पहुंचने का एकमात्र कारण उन्होंने अप्सरा मंजूघोषा को समझा और क्रोध में आकर ऋषि मेधावी ने अप्सरा को पिशाचिनी होने का श्राप दे दिया. श्राप सुनकर मंजूघोषा ने काँपते हुए इससे मुक्ति का उपाय पूछा तो ऋषि ने पापमोचिनी एकादशी का व्रत रखने को कहा.

मंजुघोषा को व्रत का विधि विधान बताकर मेधावी मुनि अपने पिता च्यवन के आश्रम चले गए. अपने पुत्र के मुख से श्राप की बात सुनकर च्यवन मुनि ने पुत्र की घोर निंदा की और अपने पुत्र को भी उन्होंने चैत्र माह की पापमोचिनी एकादशी का व्रत रखने को कहा. मंजूघोषा पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से पिशाचिनी के शरीर से मुक्त हो सुंदर शरीर धारण कर स्वर्गलोक को चली गई.