जब भी किसी पूजा का आयोजन होता है तब अंत में आरती जरुर की जाती है. जिस भी देवता का पूजन है उसी देवता की आरती की जाती है. यदि पूजन आम है तब जगदीश जी की आरती की जाती हैं क्योंकि इसमें सभी देवता आ जाते हैं अर्थात – जगत+ईश + जगदीश, जगत को चलाने वाले ईश्वर. हम यह भी कह सकते हैं कि पूजा की पूर्णता के लिए आरती करना जरूरी है. वैसे तो देवता अपने भक्त द्वारा की पूजा से प्रसन्न हो जाते हैं लेकिन आरती का अपना विशेष महत्व है. यदि पूजा में किसी भी तरह की कोई कमी रह गई है, वह आरती से पूरी हो जाती है.
स्कंद पुराण में कहा भी गया है –
मंत्रहीन क्रियाहीन यत् कृतं पूजनं हरे।
सर्व सम्पूर्णता मेति कृतं नीराजने शिवे ।।
इसका अर्थ है कि पूजन मंत्रहीन तथा पूजनहीन होने पर भी नीराजन कर लेने से उसमें पूर्णता आ जाती है. आरती को नीराजन भी कहा जाता है. इसलिए आरती अवश्य करनी चाहिए. सुबह के समय पूजन करने के बाद दीपक जलाकर आरती करनी चाहिए. आरती कर्पूर जलाकर भी की जा सकती है. कर्पूर में एक खासियत यह है कि एक बार जलने पर यह अपने आपको पूरी तरह से जला देता है जो अन्य किसी में देखने को नहीं मिलता है. इसका आशय यह है कि भगवान के सम्मुख आने पर हमें भी कर्पूर की तरह अपने समस्त दोषों को जला देना चाहिए. इसलिए कर्पूर को व्यक्ति के भीतर की वासनाओं का प्रतिरुप माना गया है. ज्ञान की अग्नि सत्य को प्रदीप्त कर देती है और फिर व्यक्ति के भीतर की सभी वासनाएँ स्वत: ही जलकर खाक हो जाती है.
यदि आप भी कर्पूर से आरती करना चाहते हैं तब तीन, पाँच या ग्यारह टिकिया कर्पूर की लें और मिट्टी के दीये में या जो भी दीया आपके पास हैं उसमें कर्पूर की एक टिकिया रख लें और दीये को थाली में रखकर दीया जला लें. अब थाली को हाथ में लेकर देवता की पूजा करते हुए थाली को दाएँ से बाएं ले जाए और फिर ऊपर ले जाते हुए पूजा करें, जैसे ही पहली टिकिया खतम होने लगे तब दूसरी टिकिया डाल दें.
जिस भी आरती को आप कर रहे हैं उसे मन ही मन ना गाकर ऊँची आवाज में गाएँ. यदि परिवार के सभी सदस्य एकत्रित हैं तब सभी एक स्वर में आरती गाएँ. आरती करते समय घंटी बजानी चाहिए, यदि घंटी के साथ घड़ियाल आदि भी है तो वह भी बजाएँ. यदि अन्य कोई वाद्य है जो आरती में बजाया जाता हो तो वह भी बजा सकते हैं. ऎसा करने पर पूजा वाले स्थान पर चैतन्यता उत्पन्न होने लगती है. पूजा में जितने सदस्य शामिल होते हैं सभी को आरती उतारनी चाहिए.
आरती पूर्ण होने पर आरती की “लौ” पर अपने हाथ फेर कर आँखों पर लगाना चाहिए. ऎसा करने का आशय यह है कि जिस प्रकाश ने भगवान की आकृति को प्रदीप्त किया है, वहीं मेरी अन्तर्दृष्टि को भी प्रकाशित करे जिससे मेरी दृष्टि दिव्यता से पूर्ण हो तथा विचार शुद्ध व सुंदर हों. इससे आपको जिस आनंद की प्राप्ति होगी उसे कभी भी शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है.