प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है लेकिन फाल्गुन माह की कृष्ण चतुर्दशी को यह “महाशिवरात्रि” के नाम से जाना और मनाया जाता है. पुराणों के अनुसार इस रात्रि में भगवान शिव का विवाह हुआ था परंतु ईशानसंहिता के वाक्य – “शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:।” के अनुसार फाल्गुन माह की कृष्ण चतुर्दशी की अर्धरात्रि में ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ था इसलिये इस दिन को महाशिवरात्रि माना गया है. इस वर्ष महाशिवरात्रि का यह व्रत 11 मार्च, दिन बृहस्पतिवार 2021 को मनाया जाएगा.
इस व्रत को सभी लोग कर सकते हैं चाहे वह किसी भी वर्ण के हों. सूर्योदय के समय भले ही त्रयोदशी तिथि उदय हो रही हो लेकिन अर्धरात्रि में उसी दिन अगर चतुर्दशी तिथि हो तब व्रत त्रयोदशी में ही किया जाता है. अगर त्रिस्पर्शा तिथि हो – जैसे त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या हो तब उस महाशिवरात्रि को अति उत्तम माना जाता है. रात्रि का आरंभ जिसे प्रदोष कहते हैं और निशीथ काल अर्थात अर्धरात्रि में चतुर्दशी ही ली जाती है.
महाशिवरात्रि की अर्धरात्रि की पूजा के लिए स्कन्दपुराण में लिखा है कि – “निशिभ्रमन्ति भूतानि शक्तय: शूलभृद्यत: । अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेत् ।।” इसका अर्थ है – रात्रि के समय भूत, प्रेत, पिशाच, शक्तियाँ और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं, अत: उस समय इनका पूजन करने से मनुष्य के पाप दूर हो जाते हैं. यदि यह शिवरात्रि त्रिस्पर्शा अर्थात त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या इन तीनों को स्पर्श कर रही हो तब अति उत्तम होती है. उसमें भी यह शिवरात्रि सूर्य या भौमवार(मंगलवार) में शिव योग में हो तब और भी शुभ है.
इस बार महाशिवरात्रि को सुबह 09:24 तक “शिव” योग रहेगा और उसके बाद “सिद्ध” योग में शिवरात्रि मनाई जाएगी. यहाँ शिव योग और सिद्ध योग वे योग हैं जो सूर्य तथा चंद्रमा की खास दूरी से बनते हैं. कुल 27 योग होते हैं जिनमें से 9 योग अशुभ माने गए हैं और बाकी के योग अपने नाम के अनुसार फल देने वाले होते हैं. शिवरात्रि का व्रत “सिद्ध” योग में हो रहा है तब इस दिन व्रत रखकर अर्धरात्रि के समय भगवान शिव का पूजन कर के किसी भी काम को सिद्ध किया जा सकता है.
व्रत रखने वाला व्यक्ति दिन भर शिव का स्मरण करते हुए मौन धारण करे. उसके बाद संध्या काल में फिर से स्नान कर के शिव मंदिर में जाकर पूर्व या उत्तर की तरफ मुख कर के बैठ जाए. माथे पर तिलक लगाकर रुद्राक्ष धारण करके यह मंत्र बोलते हुए संकल्प ले – “ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये शिवपूजनं करिष्ये”. इसके बाद गंध-पुष्प, बेलपत्र, धतूरे के फूल, घी मिली गुग्गल की धूप, दीप, नैवेद्य और नीराजनादि आवश्यक सामग्री अपने पास रखकर रात के पहले प्रहर में “पहली” पूजा करे. इस तरह से दूसरे प्रहर में दूसरी, तीसरे प्रहर में तीसरी तथा चौथे प्रहर में चौथी पूजा करें. चारों पूजन, पंचोपचार, षोडशोपचार या राजोपचार – जिस विधि से हो सके समान रुप से करते रहना चाहिए. साथ में रुद्र पाठ भी करते रहना चाहिए. पूजा की समाप्ति में नीराजन, मंत्रपुष्पाजंलि और अर्घ्य देना चाहिए. परिक्रमा करनी चाहिए.
स्कन्दपुराण के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को भगवान शिव का पूजन करने वाला व्यक्ति माता का दूध कभी नहीं पी सकता अर्थात ऎसे व्यक्ति का कभी पुनर्जन्म नहीं होता है. इस व्रत की दो कथाएँ हैं –
पहली कथा है कि एक बार एक धनवान व्यक्ति कुसंगवश शिवरत्रि के दिन पूजन करती हुई किसी स्त्री का आभूषण चुरा लेने के अपराध में मार डाला गया, किंतु चोरी की ताक में वह आठ प्रहर भूखा-प्यासा और जागता रहा था, इस कारण स्वत: व्रत हो जाने से शिवजी ने उसको सद्गति दी.
दूसरी कथा के अनुसार शिवरात्रि के दिन एक व्याधा दिन भर शिकार की खोज में रहा, तब भी कोई शिकार उसे नहीं मिला. अंत में वह गुँथे हुए एक झाड़ की ओट में बैठ गया. उसके अंदर स्वयम्भू शिवजी की एक मूर्त्ति और एक बिल्ववृक्ष था. उसी अवसर पर एक हरिणी पर वधिक की दृष्टि पड़ी. उसने अपने सामने पड़ने वाले बिल्वपत्रों को तोड़कर शिवजी पर गिरा दिया और धनुष लेकर बाण छोड़ने लगा तब हरिणी उसे उपदेश देकर जीवित चली गई. इसी प्रकार वह प्रत्येक प्रहर में आयी और चली गयी. परिणाम यह हुआ कि उस अनायास किये हुए व्रत से ही शिवजी ने उस व्याध को सद्गति दी और भवबाधा से मुक्त कर दिया. इसलिए हो सके तब शिवरात्रि का व्रत सदा ही करना चाहिए और अगर कोई नहीं कर सकता है तब 14 वर्ष के बाद उद्यापन कर देना चाहिए.