महाभागवत – देवीपुराण – सत्ताईसवाँ अध्याय 

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इस अध्याय में ब्रह्मा, विष्णु तथा रति द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान शंकर का कामदेव को पुन: जीवित करना है, ब्रह्माजी के निवेदन पर भगवान शंकर का विवाह के लिए सौम्यरूप धारण करना और बड़े उल्लास के साथ शिव-बारात के प्रस्थान का वर्णन है. 

श्रीमहादेवजी बोले – तदनन्तर अपने पति के वियोग के कारण उत्पन्न व्यथा से अत्यन्त व्याकुल तथा कृशकाय सर्वांगसुन्दरी कामदेव पत्नी रति इन्द्र के सम्मुख आकर खड़ी हो गयी और आँखों में आँसू भरकर उनसे यह कहने लगी – ।।1-2।।

रति बोली – पूर्वकाल में आपके आदेश से मेरे एकमात्र प्राणप्रिय पति कामदेव शिवजी पर बाण चलाकर उसी समय भस्म हो हये थे. तब दु:ख के कारण मुझ रुदन करती हुई से आपने यह कहा था – “शोक मत करो, तुम्हारे पति को पुन: देह की प्राप्ति हो जाएगी”. उस बाण से मोहित होकर शंकरजी भी इस समय पत्नी प्राप्त कर रहे हैं और इससे आप लोगों का भी मनोरथ पूर्ण हो गया, किंतु मेरे पति तो मर गए और आप उन्हें जीवित करने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं ।।3-6।।

श्रीमहादेवजी बोले – ऎसा कहकर पति के वियोग से व्यथित रति ने देवराज इन्द्र तथा ब्रह्मा के सामने बहुत प्रकार से विलाप किया।।7।। उसकी बातें सुनकर भगवान ब्रह्मा तथा देवराज इन्द्र विवाह के लिए उत्सुक चित्त वाले शंकर से प्रार्थनापूर्वक यह वचन बोले – ।।8।।

उन दोनों ने कहा – शरणागतों पर कृपा करने वाले प्रभो ! देव ! अब आप देवताओं के उपकार के लिए एक कार्य कर दीजिए. जब हम लोगों का वचन मानकर कामदेव ने आपके ऊपर बाण छोड़ने के लिए प्रस्थान किया था, तब उसने इन्द्र के नेतृत्व में आये हुए सभी देवताओं से कहा था, “मेरे इस कृत्य से कुपित होकर यदि महादेव मुझे नष्ट कर देंगे, तब आप देवतागण मेरे जीवन के लिए यथोचित प्रयास कीजियेगा.” शंकर ! “ऎसा ही होगा” – यह कहकर वे देवतागण उससे वचनबद्ध हो गये थे।।9-11½।। 

इस प्रकार वह कामदेव आपके क्रोध से उत्पन्न अग्नि से जलकर राख हो गया. अब शोक से संतप्त हृदय वाली उसकी पत्नी रति यहाँ आयी हुई है और अपने पति के लिए याचना कर रही है. प्रभो ! त्रिदशेश्वर ! यदि आप कृपा करके कामदेव को जीवित कर देते हैं तो इससे (रति को दिया गया) देवताओं का वचन सत्य हो जाता है और रति भी जगत को मोहित करने वाले पति को प्राप्त कर लेगी।।12-14½।।

श्रीमहादेवजी बोले – महामुने ! ऎसा सुनकर प्रणतजनों पर कृपा करने वाले महादेव ने फिर से कामदेव को शरीर की प्राप्ति करा दी. तब कामदेव ने देह प्राप्त कर उन महेश्वर को प्रणाम किया और सभी देवताओं का अभिवादन करने के बाद वह रति के पास चला गया. मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार पति कामदेव को प्राप्त करके रति का मन हर्ष से भर उठा और देवतागण प्रसन्नता से युक्त हो गये. मनोहर रात्रिवेला उपस्थित हो गयी और चन्द्रमा अत्यन्त निर्मल हो गया. देवताओं के तेज में वृद्धि हो गयी और वे महान उत्सव मनाने लगे।।15-18½।। इसी समय ब्रह्माजी पीले-लाल-मिश्रित वर्ण के जटा से युक्त मस्तक वाले तथा आभूषण के रूप में विभूति धारण करने वाले चतुर्भुज भगवान सदाशिव से कहने लगे – ।।19½।।

ब्रह्माजी ने कहा – शम्भो ! आपका यह श्रेष्ठ रूप देवता आदि के लिए दुर्लभ, योगियों के मन में उत्साह पैदा करने वाला तथा प्रेम को बढ़ाने वाला है. प्रभो ! अब आप इस रूप को तिरोहित करके सौम्यतम रूप धारण कीजिए, जिससे कि आपके श्वसुर गिरिराज हिमालय तथा सास मेनका भी आपको अति सुन्दर देखकर प्रसन्नता प्राप्त करें।।20-22।।

महेश्वर ! हिमालय आपको अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री गौरी का अर्पण करने वाले हैं, अत: जिस भी तरह से उनकी प्रसन्नता हो, आप वैसा ही कीजिए. कामदेव का नाश करने वाले देवाधिदेव ! आप विवाह में दो भुजाओं तथा एक मुख से युक्त उस तरह का अत्यन्त सुन्दर तथा कल्याणकारी रूप धारण कीजिए, जिससे कि आपको भयानक रूपवाला देखकर कोई भी स्त्री भयभीत न हो।।23-24½।। 

श्रीमहादेवजी बोले – मुनिश्रेष्ठ ! ब्रह्मा के ऎसा कहते ही उसी क्षण भगवान शिव दो भुजाओं तथा एक मुख से युक्त सौम्यरूप वाले हो गये. क्षण भर में उनकी जटा सोने का मुकुट हो गई, अग्निरूप तीसरा नेत्र अत्यन्त सुन्दर हो गया, शरीर में लगा हुआ भस्म चन्दन हो गया और शेष स्वर्ण का आभूषण हो गये।।25-26½।। इसके बाद महेश्वर के पास आकर शुभ मुहूर्त में उन देवेश्वर को बैल की पीठ पर बैठाकर देवताओं, गन्धर्वों और किन्नरों ने गिरिराज हिमालय के पुर को प्रस्थान करने के लिए मन में निश्चय किया।27-28।। 

मुने ! देवेश्वर शिव के प्रस्थान के समय पुष्प-राशि की वर्षा होने लगी और स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की दुन्दुभियों की तीव्र ध्वनियों से दिशाएँ परिपूर्ण हो गयीं. शीतल तथा सुगन्धित हवा मन-मन्द बहने लगी, पक्षी कलरव करने लगे और प्रमथगण भी अत्यन्त हर्षित होकर मुख से सुन्दर तथा अति तीव्र ध्वनि करने लगे।।29-30।। 

महामते ! इस प्रकार समस्त वैवाहिक तैयारियाँ पूर्ण हो जाने पर सुन्दर चन्द्रमा को अपने मस्तक पर धारण करने वाले वृषध्वज भगवान शिव ने सभी देवताओं, मुनीश्वरों और किन्नरों के साथ गिरिराज हिमालय के पुर के लिए प्रस्थान किया।।31।।

।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “श्रीशिव का हिमालयपुर-अगमन” नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।27।।