इस अध्याय में भगवान शंकर द्वारा पार्वती के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना है, मरीचि आदि ऋषियों का हिमालय के पास जाकर अपनी पुत्री भगवान शंकर को समर्पित करने का परामर्श देना तथा हिमालय द्वारा इसकी स्वीकृति देना है.
श्रीमहादेवजी बोले – तब भगवान शंकर कामदेव के शरीर का भस्म लेकर अपने सम्पूर्ण शरीर पर उसका लेपन कर पुन: अपने भूतगणों के साथ पर्वतराज हिमालय के शिखर पर तपस्यारत हो गये और पार्वती भी उसी हिमालय पर्वत पर तपस्या में संलग्न हो गयीं।।1-2।। भगवान शंकर ने मन से उन देवी का और देवी पार्वती ने उन महेश्वर का ध्यान करते हुए तीन हजार वर्ष व्यतीत कर दिए।।3।। तब भस्मीभूत काम से अत्यन्त दु:खित भगवान शंकर पार्वती के निकट जाकर हाथ जोड़कर यह वचन बोले – परमेशानि ! अत्यन्त कठिन तपस्या का त्याग कीजिए. आपके कठिन ध्यान, जप और मौनव्रत से मैं आपका क्रीतदास हो गया हूँ. मुझे अपनी सेवा में नियुक्त कर लीजिए. पर्वतसुता शिवा ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो अपने अंगमार्जन में, हार-केयूर पहनाने में तथा अलक्तक आदि रागद्रव्यों से सम्मानपूर्वक अंगों को अलंकृत करने में मुझे नियुक्त कीजिए।।4-7।।
मैं देह में स्थित भस्मीभूत कामदेव से अत्यन्त जलाया जा रहा हूँ. महादेवि ! कामदेव से मेरा उद्धार कीजिए. आप सबकी कठिन पीड़ा को हरने वाली हैं, आप अभीष्ट वर देने वाली दुर्गा हैं. जो आपका आश्रय ग्रहण करते हैं, उन्हें कभी दु:ख होता ही नहीं. मैंने भक्तिभाव से सभी प्रकार से आपका आश्रय ग्रहण किया है. महादुर्गे ! कामरूपी सागर के मध्य से मेरा उद्धार कीजिए. दयामयी ! जिस प्रकार आप अपने स्मरण करने वाले भक्तों को मोक्ष प्रदान करती हैँ, उसी प्रकार कृपा करके मेरा इस कामरूपी समुद्र से उद्धार कीजिए।।8-11।। ऎसी प्रार्थना करने पर लज्जा से सिर झुकाई हुई, मुसकान भरे मुखवाली, शैलपुत्री पार्वती अपनी सखी को संबोधित करते हुए भगवान शंकर से इस प्रकार बोलीं – ।।12।।
मैं पिता के द्वारा बिना दिये इन्हें कैसे प्राप्त हो सकती हूँ? पिता के द्वारा सम्प्रदान करने पर ही भगवान शंकर विधिपूर्वक मेरा पाणिग्रहण करें. महेश्वर किसी बुद्धिमान व्यक्ति के द्वारा अपने विवाह के लिए अपना अभिप्राय मेरे पिता पर्वतराज को बताएँ।।13-14।।
ऎसा कहने पर त्रिलोचन भगवान महादेव ने कामासक्त होते हुए भी गिरिराजपुत्री के वचन को तथ्ययुक्त माना।।15।। तदनन्तर प्रफुल्लित कमल के समान मुखवाली वे भगवती सखियों से घिरी हुई शीघ्र ही पिता के घर चली गयीं।।16।। पार्वती के आने की बात सुनकर गिरिराज अकस्मात् उठ पड़े और आकर उनको गोद में लेकर पुर के मध्य में ले आए. महारानी मेनका ने वहाँ आकर अपनी बाँहों से पुत्री का आलिंगन कर अश्रुपूरित नेत्रों से परम आदरपूर्वक उनके मुख का चुम्बन किया और कहा – माता ! आप मेरे प्राण के समान पुत्री हैं. आपके वियोग से मुझ मरी हुई को इस समय जीवित कीजिए।।17-19।।
गिरिराज पुत्री पार्वती के मैनाक आदि सभी भाई, बन्धु-बान्धव और अन्य लोग उन्हें देखकर हर्ष से भर गये।।20।। उनकी सखियों ने शम्भु द्वारा पार्वती विषयक चेष्टाओं को वन में जैसा देखा था, वैसा पर्वतराज हिमालय को बता दिया. मुनिश्रेष्ठ ! गिरिराज उन बातों को सुनकर अपनी पुत्री पार्वती के विवाह के लिए भगवान शंकर के प्रस्ताव की प्रतीक्षा करते हुए महान् हर्ष से भर गये।।21-22½
भगवान शंकर पाणिग्रहण का निश्चय करके अपने प्रमथगणों के साथ हिमालय के शिखर पर रहने लगे. तदनन्तर भगवान शंकर ने अपना अभिप्राय गिरिराज से बताने के लिए मरीचि आदि सप्तऋषियों का स्मरण किया।।23-24½।। तब वे मरीचि आदि महर्षिगण उसी क्षण वायु से उड़ाए गये मेघों की भाँति भगवान शंकर के समीप पहुँच गए. उन्होंने देवाधिदेव महादेव को प्रणाम कर उनसे पूछा – भगवन् ! आपने हम लोगों का किसलिए स्मरण किया? उसे बताइए।।25-26½।। मुनिपुंगव ! तब काम से निर्दग्ध हृदयवाले भगवान महादेव ने मरीचि आदि मुनियों को पृथक-पृथक संबोधित करके कहा – ।।27½।।
श्रेष्ठ मुनियों ! संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए संतान वृद्धि के लिए आज मेरी विवाह करने की इच्छा हो रही है. जब से दक्षतनया सती अपनी माया से मुझे छोड़कर चली गयी हैं, उसी समय से ही हृदय में उनका ध्यान करके मैं तपस्या में संलग्न हूँ. उस तपस्या से संतुष्ट होकर उन्होंने स्वयं गिरिराजतनया होकर अपनी इच्छा से मुझे पति के रूप में स्वीकार कर लिया है, किंतु उनके पिता गिरिराज हिमवान यदि मुझे बुलाकर पाणिग्रहण-संस्कार करके उनको देते हैं, तभी वे मनोरम मुखवाली सुन्दरी मेरी पत्नी होंगी. भस्मीभूत कामदेव से मैं दिन-रात जल रहा हूँ. बिना उन गिरिराज पुत्री के मैं शान्ति नहीं प्राप्त कर सकूँगा. यदि आप लोग मेरी सहायता करके उन मेरी एकमात्र प्राणप्रिया को प्राप्त कराने में समर्थ हो सकें तभी मैं स्थित रह सकता हूँ।।28-34।।
ऋषिगण बोले – देव ! प्रभो ! जो करणीय हो, वैसी आप हमें आज्ञा दीजिए, उसी प्रकार हम लोग प्रयत्न करेंगे. इससे बढ़कर हम लोगों का और कौन-सा कार्य हो सकता है. आदिशक्ति, परमा, विद्या, पूर्णस्वरुपा, परा प्रकृति जो हिमालय की पुत्री हैं, वे ही आपकी पूर्वगृहिणी हैं. शिव ! हिमवान निश्चय ही अविलम्ब अपनी पुत्री पार्वती आपको दे देंगे. इस कार्य में हम लोग तो केवल निमित्तमात्र होंगे।।35-37।।
श्रीमहादेवजी बोले – वे सभी महर्षिगण भगवान शंकर से ऎसा कहकर परम प्रसन्न हो भगवान शंकर के विवाह के निमित्त पार्वती को संयोजित करने के लिए गिरिराज के नगर में चले गये।।38½।। आये हुए उन महर्षियों को देखकर गिरिराज ने भी उन लोगों की यथाविधि पूजा कर न्यायपूर्वक उन्हें आसनों पर बैठाया।।39½।। इसके बाद वे महर्षिगण पर्वतराज हिमालय से कहने लगे – राजन् ! आपकी भलाई के लिए भगवान शंकर ने जो कहा है, उसे सुनिए – प्राचीन काल में दक्षतनया सती उन्हीं की अर्धांगिनी थीं. वे ही आपकी पुत्री इस समय कल्याणकारिणी पार्वती के रूप में उत्पन्न हुई हैं. उन्हें आप परमात्मा भगवान शिव को दे दीजिए. आपकी कृपा से वे पत्नी को प्राप्त कर सुखी होंगे. आप देवाधिदेव भगवान शंकर के सम्पूर्ण प्रभाव को जानते हैं. इसलिए आप अपनी पुत्री उन्हीं को दे दीजिए, इससे बड़ा कौन कार्य है।।40-43½।।
भूत, भविष्य तथा वर्तमान को जानने वाले महाबुद्धिमान नारदजी हँसते हुए पर्वतराज हिमालय से पुन: इस प्रकार बोले – महाराज ! मैंने आपसे पूर्व में ये सभी बातें बता दी हैं. आप अपने भाग्य को गौरवान्वित करने के लिए परम आदिशक्ति अपनी पुत्री पार्वती को अनादि पुरुष पूर्णपरमात्मा शिव को दे दीजिए।।44-46।। तब हर्ष से प्रफुल्लित मनवाले गिरिराज हिमालय ने उनसे कहा कि आप लोगों के आने से मैं कृतकृत्य और पवित्र हो गया हूँ. सभी लोग जिन चन्द्रशेखर को देवाधिदेव कहते हैं, वे संसार के सृष्टि, पालन और संहार करने में सक्षम हैं. उन्हें अपनी पुत्री देने में मुझे क्या आपत्ति है? उन्हीं की इच्छा के अधीन यह सम्पूर्ण विश्व है तथा मैं भी उन्हीं की इच्छा के अधीन हूँ. उनकी जैसी इच्छा हुई उसी समय वैसी ही मेरी भी इच्छा हुई. आप लोग भगवान शम्भु के निकट जाएँ और मेरी बात कहें कि वे शुभ मुहूर्त्त निश्चित करके मुझ से वार्तालाप करें. मैं यथाशक्ति अलंकृत करके अपनी पुत्री उन्हें दे दूँगा।।47-51।।
।।इस प्रकार महाभागवत महापुराण के अंतर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “पार्वतीविवाहोपक्रम” नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।24।।