श्रावण मास माहात्म्य – उन्नीसवाँ अध्याय

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श्रावण मास की दोनों पक्षों की एकादशियों के व्रतों का वर्णन तथा विष्णुपवित्रारोपण विधि

ईश्वर बोले – हे महामुने ! अब मैं श्रावण मास में दोनों पक्षों की एकादशी तिथि को जो किया जाता है, उसे कहता हूँ, आप सुनिए. हे वत्स ! रहस्यमय, अतिश्रेष्ठ, महान पुण्य प्रदान करने वाले तथा महापातकों का नाश करने वाले इस व्रत को मैंने किसी से नहीं कहा है. यह एकादशी व्रत श्रवण मात्र से मनुष्यों को वांछित फल प्रदान करने वाला, पापों का नाश करने वाला, सभी व्रतों में श्रेष्ठ तथा शुभ है. इसे मैं आपसे कहूँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए. दशमी तिथि में प्रातःकाल स्नान करके शुद्ध होकर संध्या आदि कर ले और वेदवेत्ता, पुराणज्ञ तथा जितेन्द्रिय विप्रों से आज्ञा लेकर सोलहों उपचारों से देवाधिदेव भगवान् का विधिवत पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करें – हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा. हे अच्युत ! आप मेरे शरणदाता होइए.

हे वत्स ! गुरु, देवता तथा अग्नि की सन्निधि में नियम धारण करें और उस दिन काम-क्रोध रहित होकर भूमि पर शयन करें. उसके बाद प्रातःकाल होने पर भगवान् केशव में मन को लगाएं. भूख लगने तथा प्रस्खलन – गिरना, ठोकर आदि लगना – के समय “श्रीधर” – इस शब्द का उच्चारण करें. हे वत्स ! यह व्रत मोक्ष प्रदान करने वाला है, अतः तीन दिनों तक पाखंडी आदि लोगों के साथ बातचीत, उन्हें देखना तथा उनकी बातें सुनना – इन सबका त्याग कर देना चाहिए. तदनन्तर क्रोध रहित होकर पंचगव्य लेकर मध्याह्न के समय नदी आदि के निर्मल जल में स्नान करना चाहिए. सूर्य को नमस्कार करके भगवान् श्रीधर की शरण में जाना चाहिए और वर्णाचार की विधि से सभी कृत्य संपन्न करके घर आना चाहिए.

वहाँ पुष्प, धूप तथा अनेक प्रकार के नैवेद्यों से श्रद्धापूर्वक श्रीधर की पूजा करनी चाहिए. उसके बाद सुवर्णमय, पञ्चरत्नयुक्त, श्वेत चन्दन से लिप्त तथा दो वस्त्रों से आच्छादित कलश को स्थापित करके और शंख, चक्र, गदायुक्त देवाधिदेव श्रीधर की प्रतिमा स्थापित कर उनकी पूजा करके गीत, वाद्य तथा कथा श्रवण के साथ रात्रि में जागरण करना चाहिए. इसके बाद विमल प्रभात होने पर द्वादशी के दिन विधिवत पूजन करके कृतकृत्य होकर बुद्धिमान को चाहिए कि “श्रीधर” नाम का जप करे. इसके बाद उन शंख, चक्र तथा गदा धारण करने वाले देवदेवेश – श्रीधर – की पुनः पूजा करें और सुवर्ण – दक्षिणा सहित कलश ब्राह्मण को प्रदान करें. उस समय ब्राह्मण को विशेष करके नवनीत अवश्य प्रदान करें.

इस प्रकार प्रार्थना करें – भगवान् श्रीधर आज आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे अत्युत्तम लक्ष्मी प्रदान करें. हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार उच्चारण करके जगद्गुरु श्रीधर से प्रार्थना करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देनी चाहिए. उसके बाद सेवकों आदि को भोजन कराकर गायों को घास खिलानी चाहिए. इसके बाद मित्रों तथा बंधु-बांधवों समेत स्वयं भोजन करना चाहिए.

हे सनत्कुमार ! मैंने आपको यह श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी व्रत विधि बतला दी, इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की एकादशी में भी करना चाहिए. दोनों व्रतों में अनुष्ठान समान है, केवल देवताओं के नाम में भेद है. “जनार्दन” मुझ पर प्रसन्न हों – यह वाक्य बोलना चाहिए. शुक्ल एकादशी के देवता श्रीधर हैं और कृष्ण एकादशी के देवता जनार्दन हैं. हे सनत्कुमार ! यह मैंने आपसे दोनों एकादशियों के व्रत का वर्णन कर दिया है. इस एकादशी व्रत के समान पुण्यव्रत न तो कभी हुआ और ना होगा. आपको यह व्रत गुप्त रखना चाहिए और दुष्ट हृदय वाले को नहीं प्रदान करना चाहिए.

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं द्वादशी तिथि में होने वाले श्रीहरि के पवित्रारोपण व्रत का वर्णन करूँगा. पिछले अध्याय में देवी की कही गई पवित्रारोपण विधि के समान ही इसका भी पवित्रारोपण है. इसमें जो विशेष बात है, उसे मैं बताऊंगा, सावधान चित्त होकर सुनिए. हे महामुने ! इस व्रत के लिए जो अधिकारी बताया गया है, उसे आप सुनें. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री – इन सभी को अपने धर्म में स्थित होकर भक्तिपूर्वक पवित्रारोपण करना चाहिए. द्विज को चाहिए कि “अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः.” इस मन्त्र से विष्णु की पूजा करें. स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए नाम मन्त्र है जिसके द्वारा वे विष्णु की पूजा करें.

इसी प्रकार द्विज “कद्रुद्राय.” इस मन्त्र से शिवजी की पूजा करें स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए नाम मन्त्र है जिसके द्वारा वे शिवजी की पूजा करें. सतयुग में मणिमय, त्रेता में सुवर्णमय, द्वापर में रेशम का और कलियुग में कपास का सूत्र पवित्रक के लिए बताया गया है. सन्यासियों को शुभ मानस पवित्रारोपण करना चाहिए. बनाए गए पवित्रक को सर्वप्रथम बाँस की सुन्दर टोकरी में रखकर शुद्ध वस्त्र से ढंककर भगवान् के सम्मुख रखें और इस प्रकार कहें – हे प्रभो ! क्रियालोप के विधान के लिए जो आपने आच्छादन किया है, हे देव ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं इसे करता हूँ. हे देव ! मेरे इस कार्य में विघ्न न उत्पन्न हो, हे नाथ ! मुझ पर दया कीजिए. हे देव ! सब प्रकार से सर्वदा आप ही मेरी परम गति हैं. हे जगत्पते ! मैं इस पवित्रक से आपको प्रसन्न करता हूँ. ये काम-क्रोध आदि मेरे व्रत का नाश करने वाले ना हों. हे देवेश ! आप आज से लेकर वर्षपर्यंत अपने भक्त की रक्षा करें, आपको नमस्कार है. इस प्रकार कलश में देवता की प्रार्थना करके बाँस के शुभ पात्र में स्थित पवित्रक की आदरपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए.

“हे पवित्रक ! वर्ष भर की गई पूजा की पवित्रता के लिए विष्णु लोक से आप इस समय यहां पधारें, आपको नमस्कार है. हे देव ! मैं विष्णु के तेज से उत्पन्न, मनोहर, सभी पापों का नाश करने वाले तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस पवित्रक को आपके अंग में धारण कराता हूँ. हे देवेश ! हे पुराणपुरुषोत्तम ! आप मेरे द्वारा आमंत्रित हैं. अतः आप मेरे समीप पधारें, मैं आपका पूजन करूँगा, आपको नमस्कार है. मैं प्रातःकाल आपको यह पवित्रक निवेदन करूँगा.”

उसके बाद पुष्पांजलि देकर रात्रि में जागरण करना चाहिए. एकादशी के दिन अधिवासन करें और द्वादशी के दिन प्रातःकाल पूजन करें. पुनः हाथ में गंध, दूर्वा तथा अक्षत के साथ पवित्रक लेकर ऐसा कहें – हे देवदेव ! आपको नमस्कार है, वर्षपर्यंत की गई पूजा का फल देने वाले इस पवित्रक को पवित्रीकरण हेतु आप ग्रहण कीजिए. मैंने जो भी दुष्कृत किया है, उसके लिए आप मुझे आज पवित्र कीजिए. हे देव ! हे सुरेश्वर ! आपके अनुग्रह से मैं शुद्ध हो जाऊँ – इस प्रकार मूलमंत्र से सम्पुटित इन मन्त्रों के द्वारा पवित्रक अर्पण करें. उसके बाद महानैवेद्य अर्पित करके नीराजनकर प्रार्थना करें और मूलमंत्र से घृत सहित खीर का अग्नि में हवन करें. इसके बाद इसी मन्त्र से पवित्रक का विसर्जन करके इस प्रकार बोले – हे पवित्रक ! वर्ष भर की गई मेरी शुभ पूजा को पूर्ण करके अब आप विसर्जित होकर विष्णुलोक को प्रस्थान करें. इसके बाद पवित्रक को उतारकर ब्राह्मण को प्रदान कर दें अथवा जल में विसर्जित कर दें.

हे वत्स ! मैंने आपसे श्रीहरि के इस पवित्रारोपण का वर्णन कर दिया. इसे करने वाला इस लोक में सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है.

|| इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में “उभयैकादशी व्रत कथन और द्वादशी में विष्णुपवित्रारोपण कथन” नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ||

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