कार्तिक व्रत के नियम 

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कार्तिक मास में जो भी व्रत आदि रखता है उसे सदा एक पहर रात बचते ही उठ जाना चाहिए फिर स्तोत्र आदि के द्वारा अपने इष्ट देव की स्तुति करते हुए दिन के बाकी कामों को करना चाहिए. गाँव अथवा नगर के अनुसार दैनिक कर्म – मल-मूत्र त्याग आदि कर उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए. इसके साथ ही दाँत व जिह्वा की शुद्धि के लिए वृक्ष के समीप जाकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए:- 

आयुर्बल यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च ।

ब्रह्म प्रज्ञां च मेघां च त्वं नो देहि वनस्पते ।।

अर्थात – हे वनस्पति! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा एवं धारणाशक्ति प्रदान करें. इस प्रकार कहकर वृक्ष से दाँतुन लेनी चाहिए. दूध वाले वृक्षों की दाँतुन लेना वर्जित माना गया है. (वर्तमान समय में दाँतुन नहीं मिलती तो जिस तरह व्यक्ति दाँत साफ करते आया है वैसे ही करे) दाँतों को विधिपूर्वक शुद्ध करके मुँह को जल से धोना चाहिए. इसके बाद कार्तिक का व्रत करने वाले को विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए. 

स्नान के बाद नए अथवा स्वच्छ वस्त्र धारण करके तिलक लगाना चाहिए फिर अपनी गोत्र विधि के अनुसार अथवा अपने घर के नियमानुसार संध्या उपासना करनी चाहिए. जब तक सूर्योदय ना हो जाए तब तक गायत्री मंत्र का जाप करते रहना चाहिए. संध्योपासना के अंत में विष्णु सहस्त्रनाम आदि का पाठ करना चाहिए, फिर व्यक्ति को अपनी दिनचर्या आरंभ करनी चाहिए जैसे वह जो भी काम करता हो उस पर जाना चाहिए. मध्यान्ह में दाल के अलावा शेष अन्न का भोजन करना चाहिए. जो व्यक्ति अतिथियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण करता है वह भोजन अमृततुल्य होता है. 

मुख शुद्धि के लिए तुलसी का सेवन करना उत्तम है. उसके बाद शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करना चाहिए. सायंकाल में पुन: भगवान के मन्दिर जाकर संध्या करके यथाशक्ति दीपदान करना चाहिए. भगवान विष्णु अथवा अपने देवता को प्रणाम करके आरती उतारनी चाहिए. प्रथम प्रहर में कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए. प्रथम प्रहर के बीत जाने पर शयन करना चाहिए. इस प्रकार जो व्यक्ति एक महीने तक शास्त्र अनुसार विधि का पालन करते हुए कार्तिक मास में स्नान-दान करता है, उसे भगवान का सालोक्य प्राप्त होता है. 

 

कार्तिक मास में निम्न वस्तुओं का त्याग अवश्य कर देना चाहिए:- 

तेल लगाना, दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करना, तेल खाना, अधिक बीज वाले फलों का सेवन, चावल तथा दाल – ये खाद्य पदार्थ कार्तिक मास में नहीं खाने चाहिए. इसके अलावा गाजर, बैंगन, बासी खाना, मसूर, कांसे के बर्तन में भोजन, कांजी, दुर्गंधित पदार्थ, किसी भी समुदाय का अन्न अर्थात भण्डारा, शूद्र का अन्न, सूतक का अन्न, श्राद्ध का अन्न – यह कार्तिक व्रत करने वाले को त्याग देने चाहिए. 

कार्तिक में केले और आंवले के फल का दान करना चाहिए. शीत से कष्ट पाने वाले निर्धन और ब्राह्मण को वस्त्र दान देना चाहिए. जो व्यक्ति इस माह भगवान को तुलसीदल समर्पित करता है, उसे मुक्ति मिलती है. जो कार्तिक की एकादशी को निराहार रहकर व्रत करता है, वह पूर्व जन्मों के पापों से छुटकारा पा लेता है. जो राह चलकर आये हुए थके व्यक्ति को अन्न देता है और भोजन के समय उसे भोजन कराकर संतुष्ट करता है, उससे अनन्य पुण्यों का फल मिलता है. कार्तिक में भगवान विष्णु की परिक्रमा करने वाले को पग-पग पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है. कार्तिक में भगवान के मन्दिरों में चूना-सफाई आदि करवाकर उन्हें सुन्दर बनाने में सहयोग देने वाले और उनमें भगवान के निमित्त नवीन वस्त्र – अलंकार भेंट करने वाले को विष्णु के सामीप्य का आनन्द अनुभव होता है. 

कार्तिक मास में प्याज, सिंघाड़ा, सेज, बेर, राई, नशीली वस्तुएँ और चिवड़ा – इन सभी का उपयोग भी वर्जित है. कार्तिक व्रत करने वाले व्यक्ति को देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री और महात्माओं की निन्दा नहीं करनी चाहिए. कार्तिक मास में नरक चतुर्दशी को (छोटी दीवाली) शरीर में तेल लगाना चाहिए. इसके अलावा व्रती मनुष्य को अन्य किसी भी दिन तेल नहीं लगाना चााहिए. व्रत करने वाले को कार्तिक में चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मण द्वेषी और वेद बहिष्कृत लोगों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए.