श्रावण मास माहात्म्य – बाईसवाँ अध्याय

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श्रावण मास में किए जाने वाले संकष्ट हरण व्रत का विधान

ईश्वर बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन सभी वांछित फल प्रदान करने वाला संकष्टहरण नामक व्रत करना चाहिए.

सनत्कुमार बोले – किस विधि से यह व्रत किया जाता है, इस व्रत में क्या करना चाहिए, किस देवता का पूजन करना चाहिए और इसका उद्यापन कब करना चाहिए? उसके विषय में मुझे विस्तारपूर्वक बताइए.

ईश्वर बोले – चतुर्थी के दिन प्रातः उठकर दंतधावन करके इस संकष्टहरण नामक शुभ व्रत को करने के लिए यह संकल्प ग्रहण करना चाहिए – हे देवेश ! आज मैं चन्द्रमा के उदय होने तक निराहार रहूँगा और रात्रि में आपकी पूजा करके भोजन करूँगा, संकट से मेरा उद्धार कीजिए. हे ब्रह्मपुत्र ! इस प्रकार संकल्प करके शुभ काले तिलों से युक्त जल से स्नान करके समस्त आह्निक कृत्य संपन्न करने के बाद गणपति की पूजा करनी चाहिए. बुद्धिमान को चाहिए की तीन माशे अथवा उसके आधे परिमाण अथवा एक माशे सुवर्ण से अथवा अपनी शक्ति के अनुसार सुवर्ण की प्रतिमा बनाए. सुवर्ण के अभाव में चांदी अथवा तांबे की ही प्रतिमा सुखपूर्वक बनाए. यदि निर्धन हो तो वह मिटटी की ही शुभ प्रतिमा बना ले किन्तु इसमें वित्त शाठ्य ना करें क्योंकि ऐसा करने पर कार्य नष्ट हो जाता है. रम्य अष्टदल कमल पर जल से पूर्ण तथा वस्त्रयुक्त कलश स्थापित करें और उसके ऊपर पूर्णपात्र रखकर उसमें वैदिक तथा तांत्रिक मन्त्रों द्वारा सोलहों उपचारों से देवता की पूजा करें.

हे विप्र ! तिलयुक्त दस उत्तम मोदक बनाएं, उनमें से पाँच मोदक देवता को अर्पित करें और पाँच मोदक ब्राह्मण को प्रदान करें. भक्ति भाव से उस विप्र की देवता की भाँति पूजा करें और यथाशक्ति दक्षिणा देकर यह प्रार्थना करे – हे विप्रवरी ! आपको नमस्कार है. हे देव ! मैं आपको फल तथा दक्षिणा से युक्त पाँच मोदक प्रदान करता हूँ. हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरी विपत्ति को दूर करने के लिए इसे ग्रहण कीजिए. हे विप्ररूप गणेश्वर ! मेरे द्वारा जो भी न्यून, अधिक अथवा द्रव्यहीन कृत्य किया गया हो, वह सब पूर्णता को प्राप्त हो. इसके बाद स्वादिष्ट अन्न से ब्राह्मणों को प्रसन्नतापूर्वक भोजन कराएं.

उसके बाद चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे, उसका मन्त्र प्रारम्भ से सुनिए – हे क्षीरसागर से प्रादुर्भूत ! हे सुधारूप ! हे निशाकर ! हे गणेश की प्रीति को बढ़ाने वाले ! मेरे द्वारा दिए गए अर्घ्य को ग्रहण कीजिए. इस विधान के करने पर गणेश्वर प्रसन्न होते हैं और वांछित फल प्रदान करते हैं, अतः इस व्रत को अवश्य करना चाहिए. इस व्रत का अनुष्ठान करने से विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता है, धन चाहने वाला धन पा जाता है, पुत्र की अभिलाषा रखने वाला पुत्र प्राप्त करता है, मोक्ष चाहने वाला उत्तम गति प्राप्त करता है, कार्य की सिद्धि चाहने वाले का कार्य सिद्ध हो जाता है और रोगी रोग से मुक्त हो जाता है. विपत्तियों में पड़े हुए, व्याकुल चित्तवाले, चिंता से ग्रस्त मनवाले तथा जिन्हे अपने सुहृज्जनों का वियोग हो गया हो – उन मनुष्यों का दुःख दूर हो जाता है. यह व्रत मनुष्यों के सभी कष्टों का निवारण करने वाला, उन्हें सभी अभीष्ट फल प्रदान करने वाला, पुत्र-पौत्र आदि देने वाला तथा सभी प्रकार की संपत्ति प्रदान कराने वाला है.

हे सनत्कुमार ! अब मैं पूजन तथा जप के मंत्रो को आपसे कहता हूँ – “प्रणव” के पश्चात “नमः” शब्द लगाकर बाद में “हेरम्ब”, “मदमोदित” तथा “सङ्कष्टस्य निवारण” – इन शब्दों का चतुर्थ्यन्त जोड़कर पुनः अंत में “स्वाहा” प्रयुक्त करके इस इक्कीस वर्ण वाले मन्त्र – ॐ नमो हेरम्बाय मदमोदिताय संकष्टस्य निवारणाय स्वाहा – को बोलना चाहिए. बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इंद्र आदि लोकपालों की सभी दिशाओं में पूजा करें. अब मैं मोदकों की दूसरी विधि आपको बताता हूँ – पके हुए मूँग तथा तिलों से युक्त घी में पकाए गए तथा गरी के छोटे-छोटे टुकड़ों से मिश्रित मोदक गणेश जी को अर्पित करें. उसके बाद दूर्वा के अंकुर लेकर इन नाम पदों से पृथक-पृथक गणेश जी की पूजा करें.

उन नामों को मुझसे सुनिए – हे गणाधिप ! हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! हे एकदन्त ! हे इभवक्त्र ! हे मूषकवाहन ! हे विनायक ! हे ईशपुत्र ! हे सर्वसिद्धिप्रदायक ! हे विघ्नराज ! हे स्कन्द्गुरो ! हे सर्वसंकष्टनाशन ! हे लम्बोदर ! हे गणाध्यक्ष ! हे गौर्यांगमलसम्भव ! हे धूमकेतो ! हे भालचंद्र ! हे सिन्दूरासुरमर्दन ! हे विद्यानिधान ! हे विकत ! हे शूर्पकर्ण ! आपको नमस्कार है. इस प्रकार इन इक्कीस नामों से गणेश जी की पूजा करें.

उसके बाद भक्ति से नम्र होकर प्रसन्नबुद्धि से गणेश देवता से इस प्रकार प्रार्थना करें – हे विघ्नराज ! आपको नमस्कार है. हे उमापुत्र ! हे अघनाशन ! जिस उद्देश्य से मैंने यथाशक्ति आज आपका पूजन किया है, उससे प्रसन्न होकर शीघ्र ही मेरे हृदयस्थित मनोरथों को पूर्ण कीजिए. हे प्रभो ! मेरे समक्ष उपस्थित विविध प्रकार के समस्त विघ्नों का नाश कीजिए, मैं यहां सभी कार्य आपकी ही कृपा से करता हूँ, मेरे शत्रुओं की बुद्धि का नाश कीजिए तथा मित्रों की उन्नति कीजिए.

इसके बाद एक सौ आठ आहुति देकर होम करें. उसके बाद व्रत की संपूर्णता के लिए मोदकों का वायन प्रदान करें. उस समय यह कहें – गणेश जी की प्रसन्नता के लिए मैं सात लड्डुओं तथा सात मोदकों का वायन फल सहित ब्राह्मण को प्रदान करता हूँ. तदनन्तर हे सत्तम ! पुण्यदायिनी कथा सुनकर इस मन्त्र के द्वारा पाँच बार प्रयत्नपूर्वक चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें –

क्षीरोदार्णवसम्भूत अत्रिगोत्रसमुद्भव | गृहाणारघ्यं मया दत्तं रोहिण्या सहितः शशिन ||

क्षीरसागर से उत्पन्न तथा अत्रिगोत्र में उत्पन्न हे चंद्र ! रोहिणी सहित आप मेरे द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को स्वीकार कीजिए. उसके बाद अपने अपराध के लिए देवता से क्षमा प्रार्थना करें और अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा ब्राह्मणों को जो अर्पित किया हो उसके अवशिष्ट भोजन को स्वयं ग्रहण करें. मौन होकर सात ग्रास ग्रहण करें और अशक्त हो तो इच्छानुसार भोजन करें. इसी प्रकार तीन  मास अथवा चार मास तक विधानपूर्वक इस व्रत को करें. उसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि पाँचवें महीने में उद्यापन करे.

उद्यापन के लिए बुद्धिमान को अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वर्णमयी गणेश-प्रतिमा बनानी चाहिए. उसके बाद उस भक्ति संपन्न मनुष्य को पूर्वोक्त विधान से चन्दन, सुगन्धित द्रव्य तथा अनेक प्रकार के सुन्दर पुष्पों से पूजा करनी चाहिए और एकाग्रचित्त होकर नारिकेल फल से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए. पायस से युक्त सूप में फल रखकर और उसे लाल वस्त्र से लपेटकर यह वायन भक्त ब्राह्मण को प्रदान करें. साथ ही स्वर्ण की गणपति की प्रतिमा भी दक्षिणा सहित उन्हें दें. व्रत की पूर्णता के लिए एक आढ़क टिल का दान करें, उसके बाद “विघ्नेश प्रसन्न हों” ऐसा कहकर देवता से क्षमा प्रार्थना करें.

इस प्रकार उद्यापन करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है और मनोवांछित सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं. हे सत्तम ! पूर्व कल्प में स्कंदकुमार के चले जाने पर पार्वती ने मेरी आज्ञा से चार महीने तक इस व्रत को किया था तब पाँचवें महीने में पार्वती ने कार्तिकेय को प्राप्त किया था. समुद्र पान के समय अगस्त्य जी ने इस व्रत को किया था और तीन माह में विघ्नेश्वर की कृपा से उन्होंने सिद्धि प्राप्त कर ली. हे विपेन्द्र ! राजा नल के लिए दमयंती ने छह महीने तक इस व्रत को किया था तब नल को खोजती हुई दमयंती को वे मिल गए थे. जब चित्रलेखा अनिरुद्ध को बाणासुर के नगर में ले गई थी तब “वह कहाँ गया और उसे कौन ले गया” – यह सोचकर प्रदुम्न व्याकुल हो गए. उस समय प्रदुम्न को पुत्र शोक से पीड़ित देखकर रुक्मिणी ने प्रेम पूर्वक उससे कहा – हे पुत्र ! मैंने जो व्रत अपने घर में किया था उसे मैं बताती हूँ इसे ध्यानपूर्वक सुनो.

बहुत समय पहले जब राक्षस तुम्हे उठा ले गया था तब तुम्हारे वियोगजन्य दुःख के कारण मेरा ह्रदय विदीर्ण हो गया था. मैं सोचती थी कि मैं अपने पुत्र का अति सुन्दर मुख कब देखूंगी. उस समय अन्य स्त्रियों के पुत्रों को देखकर मेरा ह्रदय विदीर्ण हो जाता था कि कहीं अवस्था साम्य से यह मेरा ही पुत्र तो नहीं. इसी चिंता में व्याकुल हुए मेरे अनेक वर्ष व्यतीत हो गए. तब दैवयोग से लोमश मुनि मेरे घर आ गए. उन्होंने सभी चिंताओं को दूर करने वाला संकष्टचतुर्थी का व्रत मुझे विधिपूर्वक बताया और मैंने चार महीने तक इसे किया. उसी के प्रभाव से तुम शंबरासुर को युद्ध में मारकर आ गए थे. अतः हे पुत्र ! इस व्रत की विधि जानकर तुम भी इसे करो, उससे तुम्हे अपने पुत्र का पता चल जाएगा.

हे विप्र ! प्रदुम्न ने यह व्रत करके गणेश जी को प्रसन्न किया तब नारद जी से उन्होंने सूना कि अनिरुद्ध बाणासुर के नगर में है. इसके बाद बाणासुर के नगर में जाकर उससे अत्यंत भीषण युद्ध करके और संग्राम में शिव सहित बाणासुर को जीत कर पुत्रवधू सहित अनिरुद्ध को प्रदुम्न घर लाये थे. हे मुने ! इसी प्रकार अन्य देवताओं तथा असुरों ने भी विघ्नेश की प्रसन्नता के लिए यह व्रत किया था. हे सनत्कुमार ! इस व्रत के समान सभी सिद्धियाँ देने वाला इस लोक में कोई भी व्रत, तप, दान और तीर्थ नहीं है. बहुत कहने से क्या लाभ? इसके तुल्य कार्यसिद्धि करने वाला दूसरा कुछ भी नहीं है. अभक्त, नास्तिक तथा शठ को इस व्रत का उपदेश नहीं करना चाहिए अपितु पुत्र, शिष्य, श्रद्धालु तथा सज्जन को इसका उपदेश करना चाहिए.

हे विप्रर्षे !  हे धर्मिष्ठ ! हे विधिनंदन ! तुम मेरे प्रिय हो तथा लोकोपकार करने वाले हो, अतः मैंने तुम्हारे लिए  इस व्रत का उपदेश किया है.

|| इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में “चतुर्थीव्रत कथन” नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ||

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