प्रात: स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघ:।।1।।
अर्थ – मैं प्रात:काल, हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता/करती हूँ, जो सत, चित और आनन्दरूप है, परमहंसों का प्राप्य स्थान है और जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है, जो स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्था को नित्य जानता है, वह स्फुरणा रहित ब्रह्म ही मैं हूँ, पंचभूतों का संघात(शरीर) मैं नहीं हूँ।
प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं
वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचं-
स्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्रय्म् ।।2।।
अर्थ – जो मन और वाणी से अगम्य है, जिसकी कृपा से समस्त वाणी भास रही हैं, जिसका शास्त्र “नेति-नेति” कहकर निरूपण करते हैं, जिस अजन्मा देवदेवेश्वर अच्युत को अग्रय (आदि) पुरुष कहते हैं, मैं उसका प्रात:काल भजन करता/करती हूँ।
प्रातर्नमामि तमस:परमर्कवर्णं
पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ
रज्ज्वां भुजंगम इव प्रतिभासितं वै।।3।।
अर्थ – जिस सर्वस्वरुप परमेश्वर में यह समस्त संसार रज्जु में सर्प के समान प्रतिभासित हो रहा है, उस अज्ञानातीत, दिव्यतेजोमय, पूर्ण सनातन पुरुषोत्तम को मैं प्रात:काल नमस्कार करता/करती हूँ।
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं लोकत्रयविभूषणम् ।
प्रात:काले पठेद्यस्तु स गच्छेत्परमं पदम् ।।4।।
अर्थ – ये तीनों श्लोक तीनों लोकों के भूषण हैं, इन्हें जो कोई प्रात:काल के समय पढ़ता है, उसे परमपद की प्राप्ति होती है।
।।इति श्रीमच्छंकरभगवत: कृतौ परब्रह्मण: प्रात:स्मरणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।