सोमवार के व्रत

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सोमवार व्रत विधि – Procedure Of Monday Fast

सोमवार का व्रत शिवजी का आशीर्वाद पाने के लिए रखा जाता है. इस व्रत को को कोई भी रख सकता है. कई बार कुंवारी लड़कियाँ अच्छा वर पाने के लिए भी इस व्रत को रखती हैं. सोमवार के व्रत में कोई विशेष नियम नहीं हैं इसलिए इस व्रत को अपनी इच्छा से कैसे भी रख सकते हैं लेकिन भोजन दिन के तीसरे पहर में ही किया जाना चाहिए. जो फलाहार करना चाहते हैं वह कर सकते हैं और कई व्यक्ति ऎसे भी हैं जो एक समय के भोजन में नमक वाला भोजन नहीं करते हैं. कई व्यक्ति दिन के तीसरे पहर में भोजन करते हैं और भोजन में नमक भी उपयोग में लाते हैं.

जैसा कि बताया गया है कि भोजन का कोई विशेष नियम नहीं है लेकिन दिन या रात में किसी एक समय में भोजन करना चाहिए. इस व्रत में शिव के साथ पार्वती जी का पूजन भी किया जाता है. सोमवार के व्रत तीन प्रकार से रखे जाते हैं. एक तो सोमवार का साधारण व्रत है जिसे जितने दिन रखना चाहें रख सकते हैं और अंत में उद्यापन कर देते हैं.

एक सौम्य प्रदोष का व्रत भी होता है और तीसरा व्रत सोलह सोमवार के रुप में रखा जाता है जब सोलह सोमवार पूरे हो जाते हैं तब उद्यापन कर दिया जाता है. इन तीनों प्रकार के व्रत की कहानियाँ भी अलग-अलग हैं. यहाँ हम केवल दो कहानियाँ कह रहे हैं, सोलह सोमवार व्रत की कहानी आपको हमारी वेबसाईट पर कहीं ओर मिल जाएगी.

सोमवार व्रत कथा – Monday Fast Story

प्राचीन समय की बात है कि एक धनवान साहूकार था जिसके पास धनादि की किसी प्रकार से कमी नहीं थी लेकिन उसे सदा एक ही दुख सताता था कि उसके बाद उसका व्यवसाय कौन संभालेगा क्योंकि उसका कोई पुत्र नहीं था. इसी चिंता में रात दिन रहता था. पुत्र प्राप्ति के लिए वह हर सोमवार को शिव भगवान का व्रत व पूजन किया करता था. उसी दिन संध्या समय में वह साहूकार शिवजी के श्री विग्रह के सामने दीपक भी जलाता था.

साहूकार के इस भक्ति भाव को देखकर एक दिन पार्वती जी शिव से कहती हैं कि हे महाराज! यह साहूकार इतनी श्रद्धा से आपका पूजन करता है तो आप इसकी मनोकामना पूर्ण कर दीजिए. पार्वती जी की बात सुन शिव कहते हैं कि हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है जिस प्रकार से किसान जैसा बीज अपने खेत में बोता है वैसी ही फसल भी काटता है. उसी तरह इस संसार में जो जैसे कर्म करेगा वैसे ही फल भी पाएगा. शिव की बातें सुन पार्वती जी फिर से अत्यंत आग्रह से कहती हैं कि यह आपका अनन्य भक्त है और अगर इसे किसी प्रकार का दुख है तो उसे अवश्य ही दूर करना चाहिए. पार्वती आगे कहती हैं कि आप सदैव ही अपने भक्तों पर दयालु रहते हैं और उनके दुखों को दूर करते हैं. यदि आप ऎसा नहीं कर सकते हैं तब क्यों कोई आपकी सेवा व व्रत करेगे?

पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने से शिव कहते हैं कि हे पार्वती! इस साहूकार का कोई पुत्र नही है और इसी चिंता में यह दुखी रहता है. इसके भाग्य में पुत्र है ही नहीं लेकिन तुम्हारे आग्रह से मैं इसे पुत्र होने का वरदान देता हूँ लेकिन इसका यह पुत्र बारह वर्ष तक ही जीवित रहेगा. उसके बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा क्योंकि इससे अधिक मैं नहीं कर सकता हूँ. शिव-पार्वती के मध्य हुए इस वार्तालाप को साहूकार भी सुन रहा था इसलिए उसको ना प्रसन्नता हुई और ना ही दुख हुआ. वह अब भी पहले ही की भाँति शिवजी का व्रत व पूजन करता रहा.

शिवजी की कृपा से साहूकार की पत्नी गर्भवती हुई और दसवें महीने उसकी पत्नी ने बहुत ही सुंदर बालक को जन्म दिया. साहूकार के घर में बहुत खुशियाँ मनाई गई लेकिन साहूकार को कोई खुशी नहीं मिली और अपने इस व्यवहार को उसने किसी को बताया भी नहीं. जब बालक 11 वर्ष का हो गया तब उसकी माँ ने उसके विवाह की इच्छा साहूकार को बताई लेकिन साहूकार बोला कि मैं पहले इसे काशी पढ़ने भेजूँगा. साहूकार ने अपने साले को बुलाया और बहुत सा धन देकर कहा कि बालक को काशी ले जाओ. साथ ही साहूकार ने कहा कि रास्ते में जहाँ भी जाओ वहाँ यज्ञ कराना और ब्राह्मणों को भोजन भी कराना.

मामा-भांजा रास्ते भर यज्ञ करते जाते और ब्राह्मण को भोजन भी करा रहे थे. राह में चलते-चलते वह एक राज्य में पहुंचे वहाँ के राजा की कन्या का विवाह उस दिन होना था लेकिन जिस लड़के से विवाह होना था वह एक आँख से काणा था. इस बात से लड़के का पिता बहुत परेशान था कि कहीं राजा अपनी पुत्री के विवाह से इंकार ना कर दे. इसी सोच में लड़्के के पिता की निगाह साहूकार के पुत्र पर पड़ी जो बहुत ही सुंदर था. उसने सोचा कि दरवाजे के समय इस लड़के को खड़ा कर दिया जाए तो विवाह हो सकता है. वर के पिता उसके मामा से सारी बात कहते हैं और वह मान भी जाते हैं.

साहूकार के लड़के को वर के वस्त्र पहनाकर और घोड़ी पर बिठा दरवाजे तक ले गए और सभी कार्य सफलता से हो गए. इसके बाद वर के पिता फिर सोचते हैं कि क्यों ना विवाह की सारी रस्में इसी लड़के को सामने रखकर ही पूरी कर ली जाएँ और वह फिर से लड़के के मामा से कहता है फेरों व कन्यादान के समय भी आप अपने भांजे को ही बिठा दें. इसके बदले में आपको धन भी मिलेगा. मामा-भांजा दोनों इस काम के लिए तैयार हो गए और विवाह कार्य अच्छी तरह से निबट गया लेकिन विवाह कार्य के बाद जब लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुंदड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के सथ तुम्हारी विदाई होगी वह एक आँख से काणा है, मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ.

लड़के के जाने के बाद राजकुमारी ने जब अपनी चुंदड़ी पर यह सब लिखा देखा तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया कि ये मेरा पति नहीं है. मेरा विवाह जिसके साथ हुआ है वह तो काशी जी पढ़ने गया है. ऎसा होने से राजकुमारी की विदाई नहीं हुई और बारात वापिस चली गई. इधर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंच गए. लड़के ने अपनी शिक्षा आरंभ कर दी और मामा यज्ञ करता रहा. जब लड़के की आयु 12 वर्ष हो गई तब उस दिन मामा भांजा यज्ञ कर रहे थे. लड़का मामा से कहता है मामाजी मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मामा कहता है कि तुम भीतर जाकर आराम कर लो और लड़का कमरे में आकर सो जाता है. कुछ समय बाद लड़के प्राण निकल जाते हैं.

कुछ समय बाद मामा भीतर आते हैं तो देखते हैं कि लड़के में प्राण ही नहीं है वह मुर्दा पड़ा है. मामा सोचता है कि अगर मैं अभी रोना-पीटना मचाऊँगा तो यज्ञ अधूरा रह जाएगा इसलिए वह जल्दी से यज्ञ पूरा करता है तथा ब्राह्मणों को भोजन कराता है. उसके बाद वह रोना आरंभ करता है, संयोग की बात होती है कि उसी समय शिव-पार्वती वहाँ से गुजरते हैं तो रोने की आवाज सुनते है जिसे सुन पार्वती जी कहती हैं कि महाराज! कोई दुखिया रो रहा है. इसके कष्ट दूर कीजिए. शिव-पार्वती पास जाते हैं तो पार्वती जी कहती हैं कि यह तो वही लड़का है जो आपके वरदान से पैदा हुआ था. पार्वती की बात सुन शिव कहते हैं कि इसकी आयु इतनी ही थी जो यह भोग चुका है.

पार्वती जी कहती हैं कि महाराज ! इस बालक को और आयु दीजिए नहीं तो इसके माता-पिता मर जाएंगे. पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी बालक की आयु बढ़ा देते हैं और वापिस कैलाश चले जाते हैं. लड़के को पुन: जीवन मिल जाता है और वह जीवित हो जाता है. मामा-भांजा पहले की भाँति यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते वापिस घर की ओर चलते हैं. रास्ते में वह दोनों उसी राज्य में पहुंचते हैं जहाँ लड़के का विवाह हुआ था. जब उस राज्य में वह दोनों यज्ञ करते हैं तो राजा उन्हें पहचान लेता है और दोनों को महल ले जाकर खातिर करता है.

कुछ समय वहाँ रहने के बाद मामा-भांजे वहाँ से विदा लेते हैं तो राजा अपनी पुत्री को साथ में विदा करता है. साथ ही बहुत सा धन देता है व दास-दासियों को भी भेजता है. राजा प्रसन्नता से अपनी बेटी को विदा करता है. जब वह अपने राज्य के निकट पहुंचने वाले होते हैं तब मामा कहता है कि मैं पहले घर जाकर आने की सूचना दे आता हूँ. मामा घर जाता है तो देखता है कि साहूकार व उसकी पत्नी दोनों छत पर बैठे हुए हैं. वे कहते है कि अगर हमारा पुत्र नहीं आया तब हम दोनों यहाँ से नीचे कूदकर अपनी जान दे देगें. अगर वह कुशलता से आ गया तभी हम नीचे आएंगे.

लड़के का मामा घर पहुंचकर उन्हें यह खुशखबरी देता है तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि उनका पुत्र जीवित है. इस पर मामा शपथ से कहता है कि आपका पुत्र आ गया है और साथ ही वह राजकुमारी से विवाह भी कर आया है. राजा द्वारा दिए उपहारों और धन व दास-दासियों की बात भी वह कहता है. यह सब बातें सुन साहूकार व उसकी पत्नी प्रसन्नतापूर्वक पुत्र व पुत्रवधु का स्वागत करते हैं और आनंद से रहने लगते हैं.

जो भी व्यक्ति सोमवार के व्रत व पूजन कर कथा को कहता अथवा सुनता है तो उसकी सभी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं.

सोमवार की आरती – Somwar Ki Arti

आरती करत जनक कर जोरे,

बड़े भाग्य रामजी घर आए मोरे..

जीत स्वयंवर धनुष चढ़ाए,

सब भूपन के गर्व मिटाए..

तोरि पिनाक किए दुइ खंडा,

रघुकुल हर्ष रावण मन शंका..

आई सिय लिए संग सहेली,

हरषि निरख वरमाला मेली..

गज मोतियन के चौक पुराए,

कनक कलश भरि मंगल गाए..

कंचन थार कपूर की बाती,

सुर नर मुनि जन आए बराती..

फिरत भांवरी बाजा बाजे,

सिया सहित रघुबीर विराजे..

धनि-धनि राम लखन दोउ भाई,

धनि दशरथ कौशल्या माई..

राजा दशरथ जनक विदेही,

भरत शत्रुघन परम सनेही..

मिथिलापुर में बजत बधाई,

दास मुरारी स्वामी आरती गाई..

 

सौम्य प्रदोष व्रत कथा – Saumya Pradosh Vrat

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प्राचीन काल में एक ब्राह्मणी अपने पति की मृत्यु होने से दूसरों पर निर्भर रह भिक्षा माँगने लगती है क्योंकि जीवनयापन का कोई दूसरा मार्ग उसे नहीं मिल पाता है. उसका एक पुत्र भी था जिसे सुबह साथ ले वह भिक्षा के लिए निकल जाती और संध्या समय में घर वापिस आती. एक समय घर वापिस आते ब्राह्मणी को विदर्भ देश का राजकुमार मिलता है. उसके पिता को शत्रु राजा मार देते हैं और राज्य पर अधिकार कर लेते हैं. वह राजकुमार भटकते हुए ब्राह्मणी को मिल जाता है जिसे वह अपने साथ घर ले आती है.

ब्राह्मणी दोनो बच्चों का पालन-पोषण करने लगती है. ब्राह्मणी ने ऋषियों की आज्ञा से प्रदोष व्रत रखना आरंभ कर दिया. एक दिन दोनों बालक वन में खेल रहे थे तो उन्होंने गंधर्व कन्याओं को देखा तो ब्राह्मणी का पुत्र तो घर आ जाता है लेकिन राजा का लड़का अंशुमति नाम की गंधर्व कन्या से बाते करने लगता है. अगले दिन फिर राजकुमार आया तो अंशुमति अपने माता-पिता के साथ बैठी थी. अंशुमति के माता-पिता ने राजकुमार से कहा कि तुम विदर्भ देश के राजकुमार धर्मगुप्त हो. हम शंकर भगवान की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमति का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहते हैं.

राजकुमार का विवाह अंशुमति के साथ हो जाता है और बाद में राजकुमार गंधर्वराज की सहायता से विदर्भ देश पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है. राज्य वापिस पाने पर राजकुमार ब्राह्मणी के पुत्र को अपना मंत्री बनाता है. यह सब ब्राह्मणी द्वारा रखे प्रदोष के व्रत के प्रभाव से होता है. कहते हैं कि उसी समय से इस व्रत को रखने का चलने आरंभ हुआ.

सोलह सोमवार के व्रत की कथा के लिए दिए लिंक पर क्लिक करें :-

https://chanderprabha.com/2016/08/16/solah-somavar-vrat-katha/