अथ प्राधानिकं रहस्यम्

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ऊँ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्तयर्थं जपे विनियोग: ।

अर्थ – ऊँ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता है. शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिए जप में इनका विनियोग होता है. 

 

राजोवाच 

भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिता: ।

एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि ।।11।।

अर्थ – राजा बोले – भगवन् ! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही. ब्रह्मन् अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिए.

 

आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज ।

विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे ।।2।।

अर्थ – द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपके चरणों में पड़ा हूँ. मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है, वह सब यथार्थ रूप से बतलाइए. 

 

ऋषिरुवाच 

इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते ।

भक्तोsसीति न मे किंचित्तवावाच्यं नराधिप ।।3।।

अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् यह रहस्य परम गोपनीय है. इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है, किन्तु तुम मेरे भक्त हो, इसलिए तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है. 

 

सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी ।

लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता ।।4।।

अर्थ – त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं. वे ही दृश्य और अदृश्य रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित है. 

 

मातुलुंगं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती ।

नागं लिंगं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि ।।5।।

अर्थ – राजन् ! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुंग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिंग तथा योनि – इन वस्तुओं को धारण करती हैं. 

 

तप्तकांचनवर्णाभा तप्तकांचनभूषणा ।

शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा ।।6।।

अर्थ – तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति हैं, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं. उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत को परिपूर्ण किया है. 

 

शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी ।

बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि ।।7।।

अर्थ – परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया. 

 

सा भिन्नांजनसंकाशा दंष्ट्रांकितवरानना ।

विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा ।।8।।

अर्थ – वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रँग की थी, उसका श्रेष्ठ मुख दाढ़ों से सुशोभित था. नेत्र बड़े-बड़े और कमर पतली थी. 

 

खड्गपात्रशिर:खेटैरलंकृतचतुर्भुजा ।

कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्त्रजम् ।।9।।

अर्थ – उसकी चार भुजाएँ ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं. वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड़) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किए हुए थी. 

 

सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा ।

नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम: ।।10।।

अर्थ – इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहा – “माताजी ! आपको नमस्कार है. मुझे मेरा नाम औरर कर्म बताइए”. 

 

तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम् ।

ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते ।।11।।

अर्थ – तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा – “मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,

 

महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा ।

निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया ।।12।।

अर्थ – महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया – 

 

इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभि: ।

एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योsधीते सोsश्नुते सुखम् ।।13।।

अर्थ – ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मों के द्वारा लोक में चरितार्थ होगें. इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मों को जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है”. 

 

तामित्युक्त्वा महालक्ष्मी: स्वरूपमपरं नृप ।

सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ ।।14।।

अर्थ – राजन् ! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था. 

 

अक्षमालांकुशधरा वीणापुस्तकधारिणी ।

सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ ।।15।।

अर्थ – वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अंकुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किए हुए थी. महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किए. 

 

महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती ।

आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी ।।16।।

अर्थ – महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धि की स्वामिनी) – ये तुम्हारे नाम होंगे. 

 

अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम् ।

युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपत: ।।17।।

अर्थ – तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा – “देवियों ! तुम दोनों अपने -अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोड़े उत्पन्न करो”. 

 

इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मी: ससर्ज मिथुनं स्वयम् ।

हिरण्यगर्भौ रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ ।।18।।

अर्थ – उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न किया. वे दोनों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञान से सम्पन्न) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे. उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष. 

 

ब्रह्मन् विधे विरिंचेति धातरित्याह तं नरम् ।

श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम् ।।19।।

अर्थ – तत्पश्चात माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन् ! विधे ! विरिंच ! तथा धात: ! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री ! पद्मा ! कमला ! लक्ष्मी ! इत्यादि नामों से पुकारा. 

 

महाकाली भारती च मिथुने सृजत: सह ।

एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते ।।20।।

अर्थ – इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया. इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ. 

 

नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वेतांग चन्द्रशेखरम् ।

जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम् ।।21।।

अर्थ – महाकाली ने कण्ठ में नील चिन्ह से युक्त, लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया. 

 

स रुद्र: शंकर: स्थाणु: कपर्दी च त्रिलोचन: । 

त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा ।।22।।

अर्थ – वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा – ये नाम हुए. 

 

सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप ।

जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते ।।23।। 

अर्थ – राजन् ! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुष को प्रकट किया. उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ. 

 

विष्णु: कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दन: ।

उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा ।।24।।

अर्थ – उनमें पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा – इन नामों से प्रसिद्ध हुई. 

 

एवं युवतय:सद्य: पुरुषत्वं प्रपेदिरे ।

चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेsतद्विदो जना: ।।25।।

अर्थ – इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुष रूप को प्राप्त हुई. इस बात को ज्ञान – नेत्रवाले ही समझ सकते हैं. दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते. 

 

ब्रह्मणे प्रददौ पत्नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम् ।

रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम् ।।26।।

अर्थ – राजन् महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिए  पत्नीरूप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान वासुदेव को लक्ष्मी दे दी. 

 

स्वरया सह सम्भूय विरिंचोsण्डमजीजनत् ।

बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान् ।।27।।

अर्थ – इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया. 

 

अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप ।

महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजंगमम् ।।28।।

अर्थ – राजन् ! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महतत्त्व) आदि कार्यसमूह – पंचमहाभूतात्मक समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत की उत्पत्ति हुई. 

 

पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव: ।

संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वर: ।।29।।

अर्थ – फिर लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु ने उस जगत का पालन-पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत का संहार किया. 

 

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्वमयीश्वरी ।

निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत् ।।30।।

अर्थ – महाराज ! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्वमयी तथा सब सत्त्वों की अधीश्वरी हैं. वे ही निराकार और साकार रूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं. 

 

नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित् ।।ऊँ।।31।।

अर्थ – सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिए. केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र) – से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता. 

 

इति प्राधानिकं रहस्यं सम्पूर्णम् ।