गरुड़ पुराण – पंद्रहवाँ अध्याय

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धर्मात्मा जन का दिव्यलोकों का सुख भोगकर उत्तम कुल में जन्म लेना, शरीर के व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दो रूपों का वर्णन, अजपाजप की विधि, भगवत्प्राप्ति के साधनों में भक्ति योग की प्रधानता

 

गरुड़ उवाच

गरुड़ जी ने कहा – धर्मात्मा व्यक्ति स्वर्ग के भोगों को भोगकर पुन: निर्मल कुल में उत्पन्न होता है इसलिए माता के गर्भ में उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, इस विषय में बताइए। हे करुणानिधे ! पुण्यात्मा पुरुष इस देह के विषय में जिस प्रकार विचार करता है, वह मैं सुनना चाहता हूँ, मुझे बताइए।

 

श्रीभगवानुवाच

श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य ! तुमने ठीक पूछा है, मैं तुम्हें परम गोपनीय बात बताता हूँ जिसे जान लेने मात्र से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। पहले मैं तुम्हें शरीर के पारमार्थिक स्वरूप के विषय में बतलाता हूँ, जो ब्रह्माण्ड के गुणों से संपन्न है और योगियों के द्वारा करने योग्य है। इस पारमार्थिक शरीर में जिस प्रकार योगी लोग षट्चक्र का चिन्तन करते हैं, वह सब मुझसे सुनो।

पुण्यात्मा जीव पवित्र आचरण करने वाले लक्ष्मी संपन्न गृहस्थों के घर में जैसे उत्पन्न होता है और उसके पिता तथा माता के विधान एवं नियम जिस प्रकार के होते हैं, उनके विषय में तुमसे कहता हूँ। स्त्रियों के ऋतुकाल में चार दिन तक उनका त्याग कर देना चाहिए अर्थात उनसे दूर रहना चाहिए। उतने समय तक उनका मुख भी नहीं देखना चाहिए, क्योंकि उस समय उनके शरीर में पाप का निवास रहता है।

चौथे दिन वस्त्रों सहित स्नान करने के अनन्तर वह नारी शुद्ध होती है तथा एक सप्ताह के बाद पितरों एवं देवताओं के पूजन, अर्चन तथा व्रत करने के योग्य होती है। एक सप्ताह के मध्य में जो गर्भ धारण होता है, उससे, मलिन वृत्तिवाली संतान का जन्म होता है। प्राय: ऋतुकाल के आठवें दिन गर्भाधान से पुत्र की उत्पत्ति होती है। ऋतुकाल के अनन्तर युग्म (सम) रात्रियों में गर्भाधान होने से पुत्र और अयुग्म (विषम) रात्रियों में गर्भाधान से कन्या की उत्पत्ति होती है, इसलिए पूर्व की सात रात्रियों को छोड़कर युग्म की रात्रियों में ही समागम करना चाहिए। स्त्रियों के रजोदर्शन से सामान्यत: सोलह रात्रियों तक ऋतुकाल बताया गया है। चौदहवीं रात्रि को गर्भाधान होने पर गुणवान, भाग्यवान और धार्मिक पुत्र की उत्पत्ति होती है। प्राकृत जीवों (सामान्य मनुष्यों) को गर्भाधान के निमित्त उस रात्रि में गर्भाधान का अवसर प्राप्त नहीं होता।

पाँचवें दिन स्त्री को मधुर भोजन करना चाहिए। कड़ुआ, खारा, तीखा तथा उष्ण भोजन से दूर रहना चाहिए तब स्त्री का वह क्षेत्र (गर्भाशय) औषधि का पात्र हो जाता है और उसमें संस्थापित बीज अमृत की तरह सुरक्षित रहता है। उस औषधि क्षेत्र में बीजवपन (गर्भाधान) करने वाला स्वामी अच्छे फल को प्राप्त करता है। ताम्बूल खाकर, पुष्प और श्रीखण्ड से युक्त होकर तथा पवित्र वस्त्र धारण करके मन में धार्मिक भावों को रखकर पुरुष को सुन्दर शय्या पर संवास करना चाहिए।

गर्भाधान के समय पुरुष की मनोवृत्ति जिस प्रकार की होती है, उसी प्रकार के स्वभाव वाला जीव गर्भ में प्रविष्ट होता है। बीज का स्वरूप धारण करके चैतन्यांश पुरुष के शुक्र में स्थित रहता है। पुरुष की काम वासना, चित्तवृत्ति तथा शुक्र जब एकत्व को प्राप्र होते हैं, तब स्त्री के गर्भाशय में पुरुष द्रवित होता है। स्त्री के गर्भाशय में शुक्र और शोणित के संयोग से पिण्ड की उत्पत्ति होती है।

गर्भ में आने वाला सुकृती पुत्र पिता-माता को परम आनन्द देने वाला होता है और उसके पुंसवन आदि समस्त संस्कार किये जाते हैं। पुण्यात्मा पुरुष ग्रहों की उच्च स्थिति में जन्म प्राप्त करता है। ऎसे पुत्र की उत्पत्ति के समय ब्राह्मण बहुत सारा धन प्राप्त करते हैं। वह पुत्र विद्या और विनय से संपन्न होकर पिता के घर में बढ़ता है और सत्पुरुषों के संसर्ग में सभी शास्त्रों में पाण्डित्य-संपन्न हो जाता है। वह तरुणावस्था में दिव्य अंगना आदि का योग प्राप्त करता है और दानशील तथा धनी होता है। पूर्व में किये हुए तपस्या, तीर्थ सेवन आदि महापुण्यों के फल का उदय होने पर वह नित्य आत्मा और अनात्मा अर्थात परमात्मा और उससे भिन्न पदार्थों – के विषय में विचार करने लगता है।

जिससे उसे यह बोध होता है कि सांसारिक मनुष्य भ्रमवश रस्सी में सर्प के आरोप की भाँति वस्तु अर्थात सच्चिदानन्द ब्रह्म में अवस्तु अर्थात अज्ञानादि जगत-प्रपंच का अध्यारोप करता है तब अपवाद अर्थात मिथ्याज्ञान या भ्रमज्ञान के निराकरण – से रस्सी में सर्प की भ्रान्ति के निराकरणपूर्वक रस्सी की वास्तविकता के ज्ञान के समान ब्रह्मरूपी सत्य वस्तु में अज्ञानादि जगत-प्रपंच की मिथ्या प्रतीति के दूर हो जाने पर और ब्रह्मरूप सत्य वस्तु का सम्यक ज्ञान हो जाने पर वह उसी सच्चिदानन्द ब्रह्म का चिन्तन करने लगता है। सांसारिक पदार्थ रूप असत् या अनात्म पदार्थों से अन्वित या सम्बद्ध होने वाले इस ब्रह्म के संगरहित शुद्ध स्वरुप के सम्यक् बोध के लिए मैं तुम्हें इसके साथ अन्वित या सम्बद्ध प्रतीत होने वाली पृथिवी आदि अनात्मवर्ग के अर्थात पंचभूतों आदि के गुणों को बतलाता हूँ। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश – ये पाँच स्थूलभूत कहे जाते हैं। यह शरीर इन्हीँ पाँच भूतों से बनता है इसलिए पाँचभौतिक कहलाता है।

हे खगेश्वर ! त्वचा, हड्डियाँ, नाड़ियाँ, रोम तथा माँस – ये पाँच भूमि के गुण हैं, यह मैंने तुम्हें बतलाया है। लार, मूत्र, वीर्य, मज्जा तथा पाँचवां रक्त – ये पाँच जल के गुण कहे गये हैं। अब तेज के गुणों को सुनो।

हे तार्क्ष्य ! योगियों के द्वारा सर्वत्र क्षुधा, तृषा, आलस्य, निद्रा और कान्ति – ये पाँच गुण तेज के कहे गए हैं। सिकुड़ना, दौड़ना, लाँघना, फैलाना तथा चेष्टा करना – ये पाँच गुण वायु के कहे गए हैं। घोष(शब्द) छिद्र, गाम्भीर्य, श्रवण और सर्वसंश्रय(समस्त तत्त्वों को आश्रय प्रदान करना) – ये पाँच गुण तुम्हें प्रयत्नपूर्वक आकाश के जानने चाहिए।  

पूर्व जन्म के कर्मों से अधिवासित मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त – यह अन्त:करणचतुष्टय कहा जाता है। श्रोत्र (कान), त्वक, जिह्वा, चक्षु (नेत्र), नासिका – ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ – ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। दिशा, वायु, सूर्य, प्रचेता और अश्विनीकुमार – ये ज्ञानेन्द्रियों के तथा वह्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र तथा प्रजापति – ये कर्मेन्द्रियों के देवता कहे गए  हैं। देह के मध्य में इडा, पिंगला, सुषुम्णा, गान्धारी, गजजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी – ये दस प्रधान नाडियाँ स्थित हैं। प्राण, अपान, समान, उदान तथा व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय – ये दस वायु हैं।

हृदय में प्राणु वायु, गुदा में अपानवायु, नाभिमण्डल में समानवायु, कण्ठदेश में उदानवायु और संपूर्ण शरीर में व्यानवायु व्याप्त रहती है। उद्गार (डकार या वमन) नागवायु हेतु है, जिसके द्वारा उन्मीलन होता है, वह कूर्मवायु कहा जाता है। कृकल नामक वायु क्षुधा(भूख) को उद्दीप्त करता है। देवदत्त नामक वायु जंभाई कराता है। सर्वव्यापी धनंजय वायु मृत्यु के पश्चात भी मृत शरीर को नहीं छोड़ता। ग्रास के रुप में खाया गया अन्न सभी प्राणियों के शरीर को पुष्ट करता है।

उस पुष्टिकारक अन्न के सारांशभूत रस को व्यान नाम का वायु शरीर की सभी नाड़ियों में पहुंचाता है। उस वायु के द्वारा भुक्त आहार दो भागों में विभक्त कर दिया जाता है। गुदाभाग में प्रविष्ट होकर सम्यक रुप से अन्न और जल को पृथक-पृथक कर के अग्नि के ऊपर जल और जल के ऊपर अन्न को करके अग्नि के नीचे वह प्राण वायु स्वत: स्थित होकर उस अग्नि को धीरे-धीरे धौंकता है। उसके द्वारा धौंके जाने पर अग्नि किट्ट(मल) और रस को पृथक-पृथक कर देता है तब वह व्यानवायु उस रस को संपूर्ण शरीर में पहुंचाता है। शरीर से पृथक किया गया किट्ट (मल) शरीर के कर्ण, नासिका आदि बारह चिद्रों से बाहर निकलता है। कान, आँख, नासिका, जिह्वा, नख, गुदा, गुप्तांग तथा शिराएँ और समस्त शरीर में स्थित छिद्र एवं लोम – ये बारह मल के निवास स्थान हैं। जैसे सूर्य से प्रकाश प्राप्त कर के प्राणी अपने-अपने कर्मों में प्रवृत होते हैं, उसी प्रकार चैतन्यांश से सत्ता प्राप्त करके ये सभी वायु अपने-अपने कर्म में प्रवृत होते हैं।

हे खग ! अब नर देह के दो रुपों  के विषय में सुनो – एक व्यवहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक है। हे विनतासुत ! व्यवहारिक शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, सात लाख केश, बीस नख तथा बत्तीस दाँत सामान्यत: बताए गए हैं। इस शरीर में एक हजार पल मांस, सौ पल रक्त, दस पल मेदा, सत्तर पल त्वचा, बारह पल  मज्जा और तीन पल महारक्त होता है। पुरुष के शरीर में दो कुड़व शुक्र और स्त्री के शरीर में एक कुड़व शोणित (रज) होता है। संपूर्ण शरीर में तीन सौ साठ हड्डियाँ कही गई हैं। शरीर में स्थूल और सूक्ष्मरूप से करोड़ों नाड़ियाँ हैं। इसमें पचास पल पित्त और उसका आधा अर्थात पच्चीस पल श्लेष्मा  (कफ) बताया गया है।

सदा होने वाले विष्ठा और मूत्र का प्रमाण निश्चित नहीं किया गया है। व्यवहारिक शरीर इन उपर्युक्त गुणों से युक्त है। पारमार्थिक शरीर में सभी चौदहों भुवन, सभी पर्वत, सभी द्वीप एवं सभी सागर तथा सूर्य आदि ग्रह सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं। पारमार्थिक शरीर में मूलाधार आदि छ: चक्र होते हैँ। ब्रह्माण्ड में जो गुण कहे गए हैं, वे सभी इस शरीर में स्थित हैं

योगियों के धारणास्पद उन गुणों को मैं बताता हूँ, जिनकी भावना करने से जीव विराट स्वरुप का भागी हो जाता है। पैर के तलवे में तललोक तथा पैर के ऊपर वितललोक जानना चाहिए। इसी प्रकार जानु में सुतललोक और जाँघों में महातल लोक जानना चाहिए। सक्थि के मूल में तलातल, गुह्यस्थान में रसातल, कटिप्रदेश में पाताल – इस प्रकार पैरों के तलवों से लेकर कटिपर्यन्त सात अधोलोक कहे गए हैं।

नाभि के मध्य में भूर्लोक, नाभि के ऊपर भुवर्लोक, हृदय में स्वर्लोक, कण्ठ में महर्लोक, मुख में जनलोक, ललाट में तपोलोक और ब्रह्मरन्ध्र में सत्यलोक स्थित है। इस प्रकार चौदह लोक पारमार्थिक शरीर में स्थित हैं। त्रिकोण के मध्य में मेरु, अध:कोण में मन्दर, दाहिने कोण में कैलास, वामकोण में हिमाचल, ऊर्ध्वरेखा में निषध, दाहिनी ओर की रेखा में गन्धमादन तथा बायीं ओर की रेखा में रमणाचल नामक पर्वत स्थित है। ये सात कुलपर्वत इस पारमार्थिक शरीर में है।

अस्थि में जम्बूद्वीप, मज्जा में शाकद्वीप, मांस में कुशद्वीप, शिराओं में क्रौंचद्वीप, त्वचा में शाल्मलीद्वीप, रोमसमूह में गोमेदद्वीप और नख में पुष्करद्वीप की स्थिति जाननी चाहिए। तत्पश्चात सागरों की स्थिति इस प्रकार है – हे विनतासुत ! क्षारसमुद्र मूत्र में, क्षीरसागर दूध में, सुरा का सागर श्लेष्म (कफ) में, घृत का सागर मज्जा में, रस का सागर शरीरस्थ रस में और दधिसागर रक्त में स्थित समझना चाहिए। स्वादूदक सागर को लम्बिका स्थान (कण्ठ के लटकते हुए भाग अथवा उपजिह्वा या काकल) में समझना चाहिए।

नादचक्र में सूर्य, बिन्दु चक्र में चन्द्रमा, नेत्रों में मंगल और हृदय में बुध को स्थित समझना चाहिए। विष्णुस्थान अर्थात नाभि में स्थित मणिपूरक चक्र में बृहस्पति तथा शुक्र में शुक्र स्थित हैं, नाभिस्थान नाभि (गोलक) में शनैश्चर स्थित है और मुख में राहु स्थित कहा गया है। वायु स्थान में केतु स्थित है, इस प्रकार समस्त ग्रहमण्डल इस पारमार्थिक शरीर में विद्यमान है। इस प्रकार अपने इस शरीर में समस्त ब्रहमाण्ड का चिन्तन करना चाहिए। प्रभातकाल में सदा पद्मासन में स्थित होकर षटचक्रों का चिन्तन करें और यथोक्त क्रम से अजपा-जप करें।

अजपा नाम की गायत्री मुनियों को मोक्ष देने वाली है। इसके संकल्पमात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। हे तार्क्ष्य ! सुनो, मैं तुम्हें अजपा-जप का उत्तम क्रम बताता हूँ – जिसको सर्वदा करने से जीव जीव भाव से मुक्त हो जाता है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञा – इन्हें षटचक्र कहा जाता है। इन चक्रों का क्रमश: मूलाधार (गुदा प्रदेश के ऊपर) – में, लिंग देश में, नाभि में, हृदय में, कण्ठ में, भौंहों के मध्य में तथा ब्रह्मरन्ध्र (सहस्त्रार) में चिन्तन करना चाहिए। मूलाधार चक्र चतुर्दलाकार, अग्नि के समान और ‘व’ से ‘स’ पर्यन्त वर्णों (व, श, ष, स) का आश्रयस्थान है। स्वाधिष्ठानचक्र सूर्य के समान दीप्तिमान ‘ब’से लेकर ‘ल‘ पर्यन्त वर्णों (ब, भ, म, य, र, ल) का आश्रयस्थान और षडदलाकार है। मणिपूरकचक्र रक्तिम आभावाला, दशदलाकार और ‘ड’ से लेकर ‘फ’ पर्यन्त वर्णों (ड, ढ़, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ) का आधार है। अनाहतचक्र द्वादशदलाकार, स्वर्णिम आभा वाला तथा ‘क’ से ‘ठ’ पर्यन्त वर्णों (क, ख, ग, घ, ड़, च, च, ज, झ, ण, ट, ठ) से युक्त है।

विशुद्धचक्र षोडशदलाकार, सोलह स्वरों (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृृ, ए, ऎ, ओ, औ, अं, अ:) – से युक्त कमल और चन्द्रमा के समान कान्तिवाला होता है, आज्ञाचक्र “हं स:” इन दो अक्षरों से  युक्त, द्विदलाकार और रक्तिम वर्ण का है। उसके ऊपर ब्रह्मरन्ध्र में देदीप्यमान सहस्रदलकमला चक्र हैं, जो कि सदा सत्यमय, आनन्दमय, शिवमय, ज्योतिर्मय और शाश्वत है। इन चक्रों में क्रमश: गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, जीवात्मा, गुरु तथा व्यापक परब्रह्म का चिन्तन करना चाहिए अर्थात मूलाधार चक्र में गणेश का, स्वाधिष्ठान चक्र में ब्रह्माजी का,  मणिपूरक चक्र में विष्णु का, अनाहत चक्र में शिव का, विशुद्ध चक्र में जीवात्मा का, आज्ञा चक्र में गुरु का और सहस्रार चक्र में सर्वव्यापी परब्रह्म का चिन्तन करना चाहिए। विद्वानों ने एक दिन-रात में 21,600 श्वासों की सूक्ष्मगति कही है। “हं” का उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकलता है और ‘स:’ की ध्वनि करते हुए अंदर प्रविष्ट होता है। इस प्रकार तात्विक रुप से जीव “हंस:, हंस:” इस मन्त्र से परमात्मा का निरन्तर जप करता रहता है।

जीव के द्वारा अहोरात्र में किये जाने वाले इस अजपा-जप के छ: सौ मन्त्र गणेश के लिए, छ: हजार ब्रह्मा के लिये, छ: हजार विष्णु के लिए, छ: हजार शिव के लिए, एक हजार जीवात्मा के लिए, एक हजार गुरु के लिए और एक हजार मन्त्र जप चिदात्मा के लिए निवेदित करने चाहिए। श्रेष्ठ सम्प्रदायवेत्ता अरुण आदि मुनि इन षटचक्रों में ब्रह्ममयूख (किरण) के रूप में स्थित गणेश आदि देवताओं का चिन्तन करते हैं।

शुक्र आदि मुनि भी अपने शिष्यों को इनका उपदेश देते हैं। अत: महापुरुषों की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर विद्वानों को सदा इन चक्रों में देवताओं का ध्यान करना चाहिए। सभी चक्रों में अनन्यभाव से उन देवताओं की मानस पूजा करके गुरु के उपदेश के अनुसार अजपा गायत्री का जप करना चाहिए। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र में अधोमुख रूप में स्थित सहस्रदलकमल में हंस पर विराजमान, वर तथा अभयमुद्रायुक्त दोनों हस्तकमलों की स्थिति वाले श्रीगुरु का ध्यान करना चाहिए।

गुरु चरणों से निकली हुई अमृतमयी धारा से अपने शरीर को प्रलाक्षित होता हुआ सा चिन्तन करे फिर पंचोपचार से पूजा करके स्तुतिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए। तदनन्तर कुण्डली का ध्यान करना चाहिए। जो षट्चक्रों में साढ़े तीन वलय में स्थित है और आरोह तथा अवरोह के रूप में षट्चक्र में संचरण करती है। तदनन्तर ब्रह्मरन्ध्र से बहिर्गत सुषुम्णा नामक धाम(प्रकाशमार्ग) का  ध्यान करना चाहिए। उस मार्ग से जाने वाले पुरुष विष्णु के परम पद को प्राप्त करते हैं। इसके अनन्तर ब्रह्म मुहूर्त में मेरे द्वारा चिन्तित आनन्दस्वरुप स्वप्रकाश, सनातनरूप का सदा ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार गुरु के उपदेश से मन को निश्चल बनाएँ, अपने प्रयत्न से ऎसा नहीं करें क्योंकि गुरु के उपदेश के बिना साधक का पतन हो सकता है।

इस प्रकार अन्तर्याग संपन्न करके बहिर्याग का अनुष्ठान करना चाहिए। स्नान तथा संध्या आदि कर्मों को करके विष्णु और शिव की पूजा करनी चाहिए। देह का अभिमान रखने वाले अर्थात पांचभौतिक शरीर को ही अपना शरीर समझने वाले व्यक्तियों की वृत्ति अन्तर्मुखी नहीं हो सकती। इसलिए उनके लिए सरलतापूर्वक की जा सकने वाली मेरी भक्ति ही मोक्षसाधिका हो सकती है। यद्यपि तपस्या और योगसाधना आदि भी मोक्ष के मार्ग हैं तो भी इस संसारचक्र में फँसे हुए  व्यक्तियों के उद्धार के लिए मेरा भक्ति मार्ग ही समीचीन उपाय है। ब्रह्मा आदि देवों ने वेद और शास्त्र का पुन: पुन: विचार करके तीन बार यही सिद्धांत सुनिश्चित किया है।

यज्ञादि सद्धर्म भी अन्त:करण की शुद्धि के हेतु हैं और इस शुद्धि के फलस्वरुप मेरी भक्ति प्राप्त होती है। जिसे प्राप्त करके व्यक्ति पुन: जन्म-मरणादि दु:खों से पीड़ित नहीं होता। हे तार्क्ष्य ! जो सुकृती मनुष्य इस प्रकार का आचरण करता है, वह मेरी भक्ति के योग से सनातन मो़क्ष पद प्राप्त करता है।

।।इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “सुकृतिजनजन्माचरणनिरुपण” नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।।