चतु:श्लोकी भागवतम्

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श्रीभगवानुवाच

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।

सरहस्यं तदंग च गृहाण गदितं मया ।।1।।

अर्थ – श्रीभगवान बोले – (हे चतुरानन!) मेरा जो ज्ञान परम गोप्य है, विज्ञान (अनुभव) से युक्त है और भक्ति के सहित है उसको और उसके साधन को मैं कहता हूँ, सुनो।

 

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मक:।

तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ।।2।।

अर्थ – मेरे जितने स्वरुप हैं, जिस प्रकार मेरी सत्ता है और जो मेरे रूप, गुण, कर्म हैं, मेरी कृपा से तुम उसी प्रकार तत्त्व का विज्ञान हो।

 

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम् ।

पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम् ।।3।।

अर्थ – सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त जो स्थूल, सूक्ष्म या प्रकृति है – इनमें से कुछ भी न था, सृष्टि के पश्चात भी मैं ही था, जो यह जगत (दृश्यमान) है, यह भी मैं ही हूँ और प्रलयकाल में जो शेष रहता है वह भी मैं ही हूँ।

 

ऋतेSर्थें यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाSSभासो यथा तम:।।4।।

अर्थ – जिसके कारण आत्मा में वास्तविक अर्थ के न रहते हुए भी उसकी प्रतीति हो और अर्थ के रहते हुए भी उसकी प्रतीति न हो, उसी को मेरी माया जानो, जैसे आभास (एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा का भ्रमात्मक ज्ञान) और जैसे राहु (राहु जैसे ग्रह मण्डलों में स्थित होकर भी नहीं दिखाई पड़ता)।

 

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।।5।।

अर्थ – जैसे पाँच महाभूत उच्चावच भौतिक पदार्थों में कार्य और कारण भाव से प्रविष्ट और अप्रविष्ट रहते हैं, उसी प्रकार मैं इन भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट और अप्रविष्ट भी रहता हूँ (इस प्रकार मेरी सत्ता है)।

 

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा।।6।।

अर्थ – आत्मा के तत्त्व जिज्ञासु के लिए इतना ही जिज्ञास्य है, जो अन्वयव्यतिरेक सर्वत्र और सर्वदा रहे वही आत्मा है।

 

एतन्मत् समातिष्ठ परमेण समाधिना।

भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ।।7।।

अर्थ – चित्त की परम एकाग्रता से इस मत का अनुष्ठान करें, कल्प की विविध सृष्टियों में आपको कभी भी कर्तापन का अभिमान न होगा।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणेsष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां वैयासिक्यां द्वितीयस्कन्धे भगवद् ब्रह्मसंवादे चतु:श्लोकी भागवतं समाप्तम् ।